आस्था की पवित्रता से सत्ता की कुटिलता

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सदियों से हमारा भारत बहु संस्कृति, बहुभाषी ,बहु मान्यताओं का केंद्र रहा है ।जहां सभी को स्वतंत्र रूप से अपनी अपनी आमनाओ, परंपराओं के साथ जीवन निर्वाहन करने का अधिकार रहा है क्योंकि इस देश की महान जलवायु मैं ही हिमालय की शीतलता है तो थार के मरुस्थल की उष्णता भी है। पग पग पर प्रकृति म
ने इसे विविधता से सजाया संवारा है ।अनेकों बोलियों, भाषा, लोक संगीत से इस पावन भूमि को मधुरता दी है। कलकल बहती हुई नदियां, झरने ने अपना संगीत दिया है ।विविधता पूर्ण खानपान, जीवन शैली, रहन सहन ,पहनावा वह सब कुछ जो लिखने बैठे तो महाकाव्य भी छोटे हो जाएंगे ।इतनी विविधता हमारी भारतीय संस्कृति में विद्यमान हैं। क्या किसी को यहां एकरूपता का दर्शन कहीं मिलता है, शायद नहीं तो विविधता पूर्ण प्रकृति के साथ जीने वाले कैसे एक विचारधारा के हो सकते हैं ।कल्पना करना ही सूरज को दिया दिखाना जैसा है ।
इस विविधता के दर्शन हमें प्रत्येक धर्म में भी होते हैं धर्म जो की प्रकृति ने तो हमें नहीं दिया है बस हमारे पूर्वजों की देन है जो आदिमानव को मानव बनाने हेतु सदैव प्रयत्नशील था,है और रहेगा जो लोगों को सदाचारी और प्रेममयी भी बनाता रहा है।
धर्म की शुरुआत जोकि मुख्यता हमारी प्रकृति पूजा से शुरू होती है ।आज भी आदिवासी समाज प्रकृति की ही पूजा होती है ।किसी प्रकृति पूजा के व्यतिकरण (personification) की नहीं ।आदिवासी जो कि हमारे पूर्वजों की संस्कृति के संवाहक हैं।
धीरे-धीरे मनुष्य का विकास होता गया और उस विकास में समाज के श्रेष्ठ मानव को भगवान या देवता का नामकरण करना शुरू किया । फिर डर या भयवश धर्म को व्यतिकरण करने के बाद कर्मकांड को बढ़ावा दिया ।आधुनिक समाज में यही कर्मकांड अब धर्म का रूप लेता जा रहा है। आधुनिक समाज में भौतिकता की प्राप्ति हेतु कर्मकांड को ही धर्म माना जा रहा है जो भी व्यक्ति या धार्मिक व्यक्ति जितना अधिक कर्मकांडी होगा वह उतना ही सिद्ध और लोकप्रिय समाज में मान्य होगा।
बस यही से हमारी पवित्र आस्था को गुमराह करके भगवान के देवपुत्रों के द्वारा डर का व्यापार शुरू कर दिया जाता है। कभी ज्योतिष, कभी हवन, कभी पूजन, कभी यज्ञ तो कभी कोई धार्मिक आयोजन। हमारी आस्था की पवित्रता से डर का व्यापार होने लगता है ।हमारी मेहनत से कमाए गए रुपयों का और हमारे परिवार, समाज की शांति, प्रेम भाव, आडंबर में कहीं खोने लगता है।
तत्पश्चात बहुसंख्यक मैं लोगों की उपस्थिति को देखकर सत्ता धारियो का मन ललचाने लगता है ।अपना वोट बैंक मजबूत करने की जुगाड़ शुरू कर देते हैं क्योंकि उन्हें आसानी से बहुत सारे लोग मिल जाते हैं। बह उनके धार्मिक गुरुओं को अपने हाथ में लेने की कोशिश करने लगते हैं। कई बार तो विशाल धार्मिक आयोजन स्वयं सत्ताधारीयो के द्वारा करवाए जाने लगते हैं जिसमें समाज का प्रत्येक वर्ग बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है क्योंकि उसमें हर एक का स्वार्थ छुपा हुआ होता है। आज संपूर्ण देश जैसे एक कर्मकांड का अखाड़ा बनता जा रहा है और वास्तविक धर्म कहीं खो सा गया है।
हमारी बौद्धिक चेतना कर्मकांड के ठगी जाल में फस कर नष्ट होती जा रही है ।सोचती हूं सचमुच में कभी मेरी भारत भूमि पर तक्षशिला और नालंदा आदि जैसे विश्वविद्यालय एवं चाणक्य ,आर्यभट्ट, पाणिनी आदि जैसे ज्ञानवान महापुरुष भी रहे होंगे। एक सपना सा लगता है किंतु जब उनका स्थापत्य देखने को मिलता है तो उनके होने के लिए सच्चाई महसूस होती हैं। हमारे देश में ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद, अर्थ वेद एवं अनेकों पुराण, शास्त्र आदि है जो हमारे पूर्वजों की मानसिक प्रज्ञा को बताते है ।आज उसे मात्र छूकर प्रणाम करने तक सीमित कर दिया गया है ।क्या छूने से हमारे अंदर उनका ज्ञान आ जाएगा कभी भी नहीं। आम जनता को उसके वास्तविक ज्ञान से दूर करने के लिए कर्मकांड फैलाया गया है। वर्तमान विद्वान जन क्या अपनी आने वाली पीढ़ी को बह सच्चा ज्ञान सौंप पा रहे हैं। क्या उनकी कोई जवाबदारी भी नहीं रह गई है इसलिए तो हम आस्था की पवित्रता से सत्ता की कुटिलता के चक्रव्यू में फंसते जा रहे हैं।
राजनीति जोकि समाज का ही एक अंग है जो लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उनके हित में काम करना सिखाती है।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के अनुसार “धर्म को कभी राजनीति से अलग नहीं रखा जा सकता है अगर उसे अलग कर देंगे तो राजनीति तबाह हो जाएगी लोग बेईमान बन जाएंगे ।अगर धर्म राजनीति में होगा तो देश उन्नति करेगा।”
धर्म और राजनीति दोनों ही हमारे के जीवन को गहरे रूप से प्रभावित करते हैं ।जो कभी भी अलग नहीं हो सकते हैं मगर दोनों की दशा और दिशा आज बदलने की बहुत आवश्यकता है क्योंकि धर्म- राजनीति आज लोगों के लिए नहीं बल्कि कुछ खास लोगों के लिए सीमित हो गई। है इससे आमजन बहुत दूर हो गए हैं बस स्वार्थी तंत्र हावी हो गया है।
वर्तमान परिस्थितियों का आकलन करके हमें भविष्य के समाज के बारे में सोचना होगा हमारे बुद्धिजीवी समाज को, राजनेताओं को एवं समाज के प्रत्येक वर्ग को सोचना होगा कि हम कैसा समाज चाहते हैं। हमारे धर्म गुरुओं को जिन पर लोग अंधा विश्वास करते हैं और उन्हें भगवान की तरह पूजते हैं।क्या वह हमें यूं ही कर्मकांड और लफफे बाजी मैं उलझाकर अपनी तिजोरी भरते जाएंगे और मंदिर-मठ आदि के नाम पर ढेरों कमाते रहेंगे एवं आम जनता का खून चूसते रहेंगे।
राजनेताओं को भी अपने राष्ट्रप्रेम सच्चा है या बनावटी या सिर्फ मीडिया प्रबंधन करके आम जनता को गुमराह करके ठगना है। यहसोचना होगा अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को समझना भी होगा वर्तमान में समाज धार्मिक उन्माद के नशे में झूल रहा है क्योंकि धर्म गुरु और राजनेता अपनी अपनी तरह से आम जनता का उपयोग कर रहे हैं और बुद्धिजीवी समाज भौतिकता, विलासिता का संग्रह एवं सामाजिक सम्मान के अंतहीन भूख के लिए काम कर रहा है। आने वाले 20 से 25 वर्षों में समाज का ,देश का भविष्य कैसा होगा सोचने की फुर्सत ही किसी को नहीं है और सुशिक्षित युवा वर्ग मोबाइल क्रांति की वर्चुअल दुनिया में खोया हुआ सा है कभी कोई भविष्य को लेकर चिंतनशील नजर नहीं आता है और ना ही कार्य करता दिखता है।
कोरोना काल के वर्तमान दौर में जहां हर कहीं लाशों के ढेर जल रहे है ।मानवता रो रही है। अस्पतालों- श्मशान घाट का अंतर खत्म होता जा रहा है ।तब ना तो सत्ता शीशों के चुनाव प्रचार रुक रहे है और ना ही कुंभ में जैसे बड़े आयोजन ।इससे पता चलता है कि दिखावटी धर्म , राजनीति के साथ मिलकर हमारे जैसे आधुनिक और विविधता पूर्ण देश के लिए बेहद घातक रणनीति तैयार हो गई है। यह एक सरपीला खेल खेला जा रहा है जो कभी भी नियंत्रण से बाहर हो सकता है। यह खेल पूरे देश को विनाश की कगार पर ले जाने वाला है ।हमारे मासूमियत युक्त पवित्र आस्था को बरगला कर हमें आपस में ही लडाकर सत्ता हथियाने का घिनौना दौर चल रहा है।
तब क्या हमारे पूर्वजों का भारत धार्मिक कट्टरता के रूप में पहचाना जाएगा जहां सिर्फ सत्ता में अनुकूल होकर जीवन जीना है हमारी मौन अभिव्यक्ति होगी या हम सचमुच में विविधता पूर्ण प्रकृति के संग विविधता पूर्वक विचारों की अभिव्यक्ति भी कर पाएंगे। विविधता पूर्ण संस्कृति की खुशबू को अपने दामन में भर पायेंगे या सत्ता के द्वारा दी गई संस्कृति और अभिव्यक्ति को ही अपना सच मान लेंगे और अपना जीवन यापन करने लगेंगे और इसी को जीना कहने लगेंगे ,विकास कहेंगे या सामाजिक योगदान कहकर आत्म संतुष्टि महसूस करेंगे।

स्मिता जैन

matruadmin

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