सहजता के कवि हैं सुनील चौरसिया ‘सावन’ : कुन्दन

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काव्य वही जो दिशा दिखाए, सरल भाव औ शब्दों से,
महक उठे और महकाये जो कण-कण को स्पर्शों से,
पहुंचे जन-जन के हृदय तक, नित्य जलाए नवीन चिराग
युवा-बच्चे-वृद्ध सबों को,
रंग दिखाएं जीवन के…

भावनाएं शब्दों के बंधन में बंधी नहीं होती – शब्दों के जाल से नहीं, हृदय की मधुरता व मस्तिष्क की सोच एवं कर्तव्य के प्रति निष्ठा, सरल व सुगम वाणी “जो वाणी जन समुदाय की आवाज हो” से ही परिलक्षित होती है। कवि श्री सुनील चौरसिया ‘सावन’ जी ने अपनी समस्त कविताओं में इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि इनके शब्द जन-जन की आम वाणी के अनुकूल हों। वैसे काव्य जिनमें भारी-भरकम शब्दों का उपयोग होता हो, वे समाज के हृदय तक पहुंच ही नहीं सकते। जबकि साहित्य समाज का दर्पण होता है। कवि श्री सुनील कुमार चौरसिया जी केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली अरुणाचल प्रदेश में स्नातकोत्तर शिक्षक भी हैं, जिनके कारण इन्हें इस बात का आभास तो है ही कि यदि लोगों के मन तक अपनी बात पहुंचानी हो तो कठिनतम वाक्यों को भी सरल बनाकर प्रस्तुत करना पड़ता है। संभवत: यही कारण है कि ये अपनी कविताओं को जहां तक संभव हो सके सरल शब्दों में डालने की कोशिश करते हैं।
एक शिक्षक को जब तक बालकों से प्रेम नहीं होगा, वे उनके चरित्र निर्माण के प्रति पूर्ण निष्ठावान हो सकते हैं, इसमें संकोच रहता है। परंतु, कवि को बच्चों से कितना लगाव है, इसकी पुष्टि इनकी ये पंक्तियां स्वयं करती है –

नन्हे-मुन्ने प्यारे बच्चे
देश के बच्चे कितने सच्चे
……………..
ये बच्चे बर्फी-रसगुल्ले
नाचते-गाते करते हल्ले

बच्चों के प्रति असीम प्रेम ने इन्हें इतना अभिभूत किया है कि इन्होंने बालकों को सदा सर्वप्रिय चंदा मामा की, उनके लिए बारात तक निकाल दी है –

तारों की बारात लेकर
आ गए चंदा मामा।
…………
चंदा मामा निकल पड़े हैं
मामी की तलाश में।

आज देश के लगभग सभी राज्यों में नारी की साक्षरता दर पुरुषों से कम ही है तथा बहुत से ऐसे राज्य हैं जहां यह खाई काफी चौड़ी एवं गहरी है। इसका सर्वविदित कारण यही है कि बेटियों की शिक्षा के प्रति समाज की उदासीनता तथा उनकी उपस्थिति चूल्हे-चौके मात्र तक ही सीमित देखना। यह संख्या हमारे अनुमान से काफी विशाल भी हो सकती है। जिसके उत्थान हेतु बुद्धिजीवी लगातार अपने-अपने स्तर पर प्रयत्नशील हैं। परंतु, एक कवि के कोमल हृदय का विचलित होना, इस लिंगात्मक खाई को देखकर स्वभाविक ही है और जब कवि शिक्षक भी हो तो, शिक्षक का धर्म “केवल पढ़ाना नहीं, अपितु शिक्षा के प्रति जागृति का दीपक भी अंजुलि में लेकर चलना है” कैसे भूल सकते हैं। इनके मन का यही विचलन काव्य-धारा के रूप में इस प्रकार बहती है –
विदुषी बन महको ज्यों फूल।
लो बस्ता जाओ स्कूल।।
………………..
दम दिखा दो अपना जग में।
पूरा कर लो सपना जग में।।
बड़ी हो तुम दुनिया है छोटी।

छोड़ो चूल्हा-चौकी रोटी।
आओ, पढ़ाई कर लो बेटी।।

                                मानवता को शर्मसार करने वाली क्रूरतापूर्ण नृसंशता, जो किसी भी जागृत व्यक्ति को व्यथित कर सकता है, कवि के हृदय में वेदना का अंबार लाएगी ही। जो इन पंक्तियों के द्वारा कवि का व्यथा गान करती है –

किस गलती की सजा देते हो,
गर्भ में बेटियों को मारकर।
क्यों करते हो कलंकित मानवता को,
इन्हें मौत के घाट उतारकर।।

काव्य-संग्रह “हाय री! कुमुदिनी” में कवि श्री सुनील चौरसिया ‘सावन’ जी के कोमल हृदय का स्वत: भान होता है, जिसमें इन्होंने समाज के कई पहलुओं को अपने सरल व सुगम शब्दों से चरितार्थ किया है। इनकी कविताओं में उत्साह है, हास्य है, प्रेम व व्यथा भी एवं समाज की कुरीतियों पर व्यंग्यात्मक प्रहार भी है। साथ ही साथ इनके काव्य संग्रह में बच्चों के कोमल मन को अभिभूत करने के लिए भी कुछ है।
इतनी मनोरम, हृदयस्पर्शी एवं मधुरता से अभिभूत काव्य-संग्रह की रचना करने के लिए मैं “हाय री! कुमुदिनी” के रचयिता श्री सुनील कुमार चौरसिया जी के प्रति आशावादी एवं आभारी हूं तथा काव्य जगत में निरंतर प्रयासरत रहने की अनेकानेक शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं।

कुन्दन कुमार

युवाकवि
असम।

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