किसान आंदोलन के नाम पर अराजक तत्वों ने गणतंत्र दिवस पर गणतंत्र की संप्रभुत्ता का अपमान करने का कुकर्म किया। कुठिंत ‘कलंक कथा’ देश को पीढियों तक जूभकर, शर्मसार करते रहेंगी। आलम में दंगाईयों ने बेशर्मी से कई जगह पर पुलिसकर्मियों पर हमला और जमकर तांडव किया। प्रदर्शनकारी हाथ में डंडे लेकर पुलिसकर्मियों को दौड़ाया। तलवारें लहराई गई, ईंट पत्थर फेंके गए, जनसंपत्ति को काफी नुकसान पहुंचाया। मन नहीं भरा तो देश विरोधी नारे भी लगाए गए। आंदोलन के बहाने इन्होंने सारी निलर्जता की हद पार कर दी। जो हिंसा, उपद्रव हुआ वह अत्यंत ही दुःखद, अक्ष्म्य एवं निंदनीय है। विशेषकर ऐतिहासिक स्थल लालकिले पर हुआ कृत्य देश की स्वाधीनता और अखंडता की रक्षा के लिए बलिदान देने वालों का सरासर घोर अपमान है। जिस तरह का ध्वजस्तंभ पर झंडा फहराने जैसा राष्ट्र विरोधी अपराध किया। लोकतंत्र में ऐसी अराजकता के लिए कोई स्थान नहीं है। याद रहे, तिरंगे की जगह कोई नहीं ले सकता। ये लाल क़िले की गरिमा से खिलवाड़ है। लाल क़िले की सिर्फ़ दीवारें लाल नहीं हैं, इसमें सुर्ख़ लहु शामिल है आज़ादी के मत वालों का। इस ऐतिहासिक बुनियाद में एक सोच शामिल है जिसका नाम हिंदुस्तान है।
बनिस्बत, हमारे प्रजातंत्र का जी खोलकर मखौल उड़ाया गया। प्रजातंत्र के मायने क्या होते हैं यह समझने समझाने का वक्त आ गया है। लाल किले की प्राचीर पर किसानों के वेष में मौकापरस्तों ने झंडा से लहरा दिया। यहां तक कि ट्रैक्टरों से पुलिस वालों को कुचलने के कुत्सित प्रयास भी किए गए। इसमे इन रक्षकों का दोष क्यां था, वही भी किसान पुत्र ही है। गौरतलब शासन, प्रशासन के द्वारा इस किसान आंदोलन के कथित नेताओं से वार्ताओं के कई दौर हो चुके हैं। परंतु नतीजा सिफर क्योंकि किसानों के मध्य जो अराजक तत्व घुस आए हैं। वे चाहते ही नहीं है की बैठक किसी नतीजे पर पहुंचे। आप सभी पिछले एक माह से इस आंदोलन को देख रहे हैं, सुन रहे हैं, समझ रहे हैं, क्या यह देश के गरीब, अन्नदाता का आंदोलन कहा जा सकता है? जिन्होंने अपने खून, पशीने से सरजमीं को सींचा है वह क्या अपनी मातृभूमि की अस्मिता पर दाग लगा सकते है? कदापि नही? ट्रैक्टरों की अटूट रैली, बड़ी-बड़ी-बडी कारें, शानदार मनचाहा भोजन, शाही इंतजाम सब कुछ आलीशान। ये सब किससे, कैसे और कहां से? आखिर! इस आंदोलन की आड़ में देश में उन्माद फैलाकर, अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए कौनसी शक्तियां अड़ी हुई है!
बकायदा, शासकीय तंत्र ने बहुत ही आत्मविश्वास एवं संयम के साथ प्रजातंत्र का दामन पकड़े रखा और अपनी तरफ से ऐसी कोई कार्यवाही नहीं की जिसे गलत कहा जा सके। वह भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। उकसाने वाले तमाम हथकंडो के बावजूद पुलिस प्रशासन ने जो धैर्य बनाए रखा। इसके लिए भारतीय पुलिस के प्रति आज सीना गर्व से चौड़ा हो गया है। अभिभूत, भारतीय गणतंत्र के प्रति नत मस्तक होने का मन हो रहा है। अब उस साजिश की पोल खुद ब खुद खुल गई कि किसी भी आंदोलन को कैसे खींचकर उसे कैसे घृणित आंदोलन की शक्ल दी जाती है। सरकार ने उदंडता को भी सर माथे लगाया है। जिन्हें दंड दिया जाना चाहिए लगता है उन्हें माफ कर दिया। ऐसे कृत्यों के विरोध सरकार को भी कानून सम्मत अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग निसंकोच करना चाहिए।
परंतु, ऐसा कब तक चलेगा? अराजक, असामाजिक व अलगाववादी तत्वों को क्यों माफ किया जाना चाहिये? विरोध करने के लिए विरोध करना कदापि उचित नहीं है। निश्चित रूप से यह प्रजातंत्र तो है ही नहीं । ये ना भूले इन सब पांखड़ों को देश भलिभांति देख रहा है। इस आंदोलन की ‘कलंक कथा’ से टूट गई आंदोलन की मर्यादा! सदियों तक इस दिन को काला दिवस के रूप में मनाया जाएगा। बेतरतीब, देश के ओज में बदनुमा दाग लगाने वाले किसान नेताओं के दावे कहां गए? आखिरकार! क्यो किया गया देश के गौरव को कलंकित? इसकी जिम्मेदारी लेने का साहस आंदोलन के ओट में मुद्दे, सत्ता और नाम के व्याकुल कतिपय स्वार्थी नेताओं में तो है नहीं! अलबत्ता, एक प्रजातांत्रिक देश में इस सवाल का जवाब अवाम को ही हरहाल में देना पड़ेगा।
हेमेन्द्र क्षीरसागर,
लेखक, पत्रकार व विचारक