राजनीति एक ऐसा खेल है जिसमें सभी खेल खुले मंचों पर कभी भी नहीं होते यह एक अडिग सच है। गाँव की राजनीति से लेकर क्षेत्र की राजनीति तक एवं प्रदेश की राजनीति से लेकर देश की राजनीति तक। सभी खेल कभी भी खुले मंचों पर नहीं होते। क्योंकि राजनीति का सदैव ही दो रूप होता है। इसीलिए राजनीति में जितना खेल जनता के सामने खुले मंच पर होता है उससे कहीं अधिक खेल पर्दे के पीछे भी बंद कमरे के अंदर होता है। लेकिन विश्व स्तर की राजनीति इससे भी दो कदम आगे है। दुनिया के बड़े देश अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए सब कुछ कर गुजरने के लिए आतुर हैं जिससे कि विश्व में उनकी धाक बनी रहे। लेकिन इस खेल की पटकथा बंद कमरों में लिखी जाती है। उसका मुख्य कारण है कि विश्व स्तर के तमाम देशों का दो खेमों में बंटा होना। जिसके लिए बड़े देशों ने सदैव ही पर्दे के पीछे की सियासत का सहारा लिया और सियासत की दुनिया में छिपकर खेल किया। जिसमें दिखाई कुछ और देता है लेकिन होता कुछ और है। यह एक ऐसी कूटनीतिक चाल होती है जिससे कि दुनिया को यह संदेश देने का प्रयास किया जाता है कि हम एक दूसरे के धुरविरोधी हैं जबकि अंदर खाने की स्थिति इसके ठीक विपरीत होती है। जो खुले मंचों से एक दूसरे के विरोधी होने का ढ़ोंग करते हैं वह अंदर खाने बंद कमरे में एक दूसरे के लिए कार्य करते हुए दिखाई देते हैं। इसका एक ताजा उदाहरण विश्व के सामने एक बार फिर से आकर खड़ा हो गया जिसे मात्र समझने की आवश्यकता है।
विश्व में पर्दे के पीछे की कहानी को ज़रा ध्यान से समझने की आवश्यकता है। क्योंकि तुर्की ने इसराइल के लिए अपना राजदूत नियुक्त कर दिया। इसराइल के अख़बार द टाइम्स ऑफ़ इसराइल ने तुर्की के इस फ़ैसले आने वाले दिनों में अमेरिका से अपने संबंधों को ठीक करने की कोशिश क़रार दिया है। इसराइल के एक और अख़बार येरुशलम पोस्ट ने 13 दिसंबर को लिखा कि तुर्की एक ओर इसराइल के साध संबंधों को बेहतर करके अमेरिका के सामने अपने आपको गुड कॉप के तौर पर पेश करना चाहता है। मध्य पूर्व पर नज़र रखने वाले विश्लेषक यह मानते हैं कि तुर्की ने यह फ़ैसला नए अमेरिकी प्रशासन से बातचीत के दरवाज़े खुले रखने के लिया है जिससे कि तुर्की अमेरिका के नए प्रशासन के सामने अपने आपको ट्रंप प्रशासन के विरोधी के रूप में पेश कर सके। क्योंकि तुर्की ने जिस प्रकार से ट्रंप प्रशासन के कूटनीतिज्ञ इशारे पर कठपुतली की तरह उछ उछलकर लोगों का खून बहाया है वह किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। क्योंकि सीरियाई कुर्दों ने आतंकवादी संगठन के ISIS के खिलाफ अमेरिका की फौज का खुलकर साथ दिया और आतंकवाद का सफाया करने में अहम भूमिका निभाई थी। कुर्दों के कारण ही ISIS की कमर पूरी तरह टूट गई। लेकिन जब कुर्दों ने अपने लिए एक अलग क्षेत्र की मांग की कि अब हमें शांति के साथ अपनी संस्कृति के साथ अपना जीवन जीने के लिए अनुमति दी जाए तो अमेरिका ने बड़ी ही चतुराई के साथ बड़ी चाल चली और कुर्दों को मजधार में छोड़ दिया। ट्रंप प्रशासन अपनी सेना को लेकर सीरिया से भाग खड़ा हुआ। जिसमें कुर्द बुरी तरह से फंस गए एक ओर जहाँ दुनिया का खूंखार आतंकवादी संगठन ISIS से खुली दुश्मनी का सामना करना बड़ी चुनौती थी। क्योंकि कुर्दों ने ही अमेरिकी फौज का खुलकर साथ दिया था और ISIS के सभी ठिकानों की पुख्ता जानकारी अमेरिकी फौज का साथ देकर ISIS का सफाया करने में अहम रोल निभाया था। इसलिए ISIS कुर्दों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता था। जब ट्रंप ने कुर्दों के साथ गद्दारी की और अपनी सेना लेकर सीरिया से भाग गये तो ISIS ने कुर्दों पर भीषण आक्रमण किया जिससे कि बड़ी संख्या में कुर्दों की हत्याएं हुईं जिसमें क्रूर ISIS ने कुर्दों के अबोध बच्चों को भी नहीं बख्शा और मौत के घाट उतारता रहा। लेकिन कुर्द लड़ाकों ने अपना हौसलों को नहीं टूटने दिया और बेहद दिलेरी के साथ ISIS मुकाबला करते रहे।
लेकिन मामले में नया मोड़ तब आया जब अमेरिका के इशारे पर तुर्की अपनी सेना लेकर कुर्दों के उपर टूट पड़ा। क्योंकि कुर्द लड़ाके ISIS का मुकाबला तो कर रहे थे लेकिन तुर्की की सेना की तोपों के सामने कैसे टिक पाते यह न मुमकिन था। जिसमें कुर्दों को भारी क्षति हुई। इस पूरे खेल की जमीन अमेरिका के ट्रंप प्रशासन ने तैयार की थी कि किस प्रकार से कुर्दों की कमर तोड़ना है। अतः तैयार किये हुए प्लान के अनुसार अमेरिका के इशारे पर तुर्की प्रशासन ने कुर्दों पर आक्रमण कर दिया। इसके पीछे का मुख्य कारण यह था कि जो भी ISIS लड़ाके सीरिया से भागकर तुर्की में जाकर छिपे हुए थे उनको सकुशल पुनः तुर्की प्रशासन ने सीरिया में स्थापित कर दिया। यह नीति अमेरिका की थी जिसको तुर्की ने शर्णार्थियों के नाम पर बल प्रयोग कर बड़ी ही कुशलता के साथ दुनिया की नजरों में धूल झोंकने का कार्य किया। और फिर से सीरिया पहुँचा दिया।
चौकाने वाली बात यह है कि अमेरिका ने तुर्की पर कई तरह के प्रतिबंध लगाकर उसके सामने नई मुश्किलें खड़ी कर देने का दावा किया है। जिसे पर्दे के पीछे झांककर देखने की जरूरत है। कि इस पर्दे के पीछे की सच्चाई क्या है। क्योंकि अमेरिका ने तुर्की पर जो भी प्रतिबंध लगाए हैं वह रूस से एस-400 मिसाइस खरीदने के बाद लगाया गया है। रूस के साथ हुई डील का हवाला देकर अमेरिका ने तुर्की पर प्रतिबंध लगा दिया है। जिसमें अमेरिका ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि रूसी प्रशासन अमेरिका का धुर विरोधी है। जबकि यह भी ध्यान रहे कि अभी हाल के हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में पुतिन ने बाईडेन को जीत की बधाई तक नहीं दी थी साथ एक नया आरोप अलग से मढ़ दिया था कि यह विवादित चुनाव है इसलिए वे बधाई नहीं दे रहे हैं। जबकि इसके पीछे की सच्चाई यह है कि पुतिन को बाईडेन की जीत स्वीकार्य नहीं थी। अमेरिका ने अपने प्रतिबंधों में मुख्य रूप से तुर्की की रक्षा खरीद एजेंसी प्रेजिडेंसी ऑफ डिफेंस को निशाना बनाया है। इस संस्था के कई अधिकारियों पर भी प्रतिबंध लगाए गए हैं। अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने कहा कि रूस से एस-400 सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली की खरीद के लिए अमेरिका ने तुर्की पर प्रतिबंध लगाए हैं। उन्होंने आगे कहा कि कहा है कि तुर्की ने नियमों को तोड़ा है जिसकी वजह से हम प्रतिबंध लगाने को मजबूर हुए हैं।
जबकि विश्व की कूटनीति के जानकारों का मानना है कि यह पूरा खेल गढ़ा गया है जिसके मोहरे एक के बाद दूसरे अपनी-अपनी निर्धारित चाल को चल रहे हैं। क्योंकि अब ट्रंप प्रशासन का अंत हो गया है इस लिए अब सभी ट्रंप के हितैषी लोग अपने आपको ट्रंप का विरोधी साबित करने में लगे हुए हैं। ऐसा इसलिए है कि नवनियुक्ति अमेरिकी राष्ट्रपित जो बाईडेन की सहानुभूति प्राप्त की जा सके। गढ़े हुए मोहरे की रूप रेखा यहाँ से उजागर होती है कि प्रिंस सलमान ने अमेरिका के इशारे पर इज़राईल को एक राष्ट्र की मान्यता देते हुए अपनी दोस्ती मजबूत कर खुले मंच पर एक साथ आ गए। यूएई ने फिलिस्तीन के प्रति इजराईल का बरबर रवैये को दर किनार करते हुए ट्रंप के इशारे पर इजराईल के साथ आने में तनिक भी देर नहीं लगाई। जानकारों का मानना है कि यूएई और इजराईल के दोस्ती पर्दे के पीछे वैसे ही थी जैसे पहले से थी जिसकी मात्र औपचारिकता ही बाकी थी जिसकी मंच के माध्यम से औपचारिकता पूरी कर दी गई।
अतः यह संभव ही नहीं कि इजराईल बिना अमेरिका की अनुमति के तुर्की के साथ अपने राजनाईक संबन्ध को स्थापित करे। क्योंकि इजराईल और अमेरिका की दोस्ती जगजाहिर है। अमेरिका और इजराईल दोनो एक दूसरे के पूरक हैं। अमेरिका जहां खुफिया जानकारी के लिए इजराईल की खुफिया एजेन्सी मोसाद की सेवा लेता है। वहीं इजराईल दुनिया में किसी भी देश पर दबाव बनाने के लिए अमेरिका का सहारा लेता है। इसलिए बिना अमेरिका अनुमति के इजराईल और तुर्की की दोस्ती होने की कहीं दूर-दूर संभावना नही बनती। इसलिए यह साफ हो जाता है कि जो कुछ दृश्य दिखाई दे रहा है वह कुछ और है जबकि पर्दे के पीछे का असली दृश्य इसके ठीक विपरीत है।
40 वर्षीय अफ़क़ अल्तास तुर्की के विदेश मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले सीनेटर ऑफ़ स्ट्रेटेजिक रिसर्च के चेयरमैन हैं उनको तैय्यप अर्दोआन ने इसराइल में तुर्की का राजदूत चुना है। अफ़क़ अल्तास को अर्दोआन के क़रीबी और विश्वस्त अधिकारियों में से एक माना जाता है। जोकि अर्दोआन के सबसे विश्वास पात्रों में से एक हैं। खास बात यह है कि अफ़क़ ने येरुशलम की हिब्रू यूनिवर्सिटी से ही स्नातक की पढ़ाई भी की है और वो हिब्रू भाषा में पूरी तरह से निपुण हैं। जोकि तुर्की और इजराईल दोनों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है।
इसराइल से प्रकाशित अख़बार द टाइम्स ऑफ़ इसराइल ने अफ़क़ के बारे में लिखा है कि वो बेहद सभ्य समझदार और विश्वास पात्र हैं। जोकि तुर्की के भविष्य के लिए वह मील का पत्थर साबित होंगे। इसराइल और तुर्की के संबंधों की शुरुआत इसराइल के गठन के बाद से ही शुरू हो गई थी। मुस्लिम बाहुल्य देशों में सबसे पहला तुर्की ही वह देश था जिसने 1949 में इसराइल को एक देश के रूप में स्वीकार करने की घोषणा की थी। जिसमें यूएई ने पर्दे के पीछे ही बने रहने में भलाई समझी थी। तुर्की ने ऐसा नहीं किया था तुर्की ने खुलकर इजराईल का समर्थन किया था। जिसके पीछे एक बड़ा कारण अमेरिका था। तुर्की ने संयुक्त राष्ट्र में फ़िलिस्तीनी इलाक़ों के बांटने का विरोध करने के बावजूद इसराइल को स्वीकार करने में देर नहीं की थी और इतिहासकारों की नज़र में उसकी सबसे बड़ी वजह तुर्की का एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होना था जिसका उस समय खूब ढ़िढ़ोंरा पीटा गया। भौगोलिक निकटता और सामान्य हितों के कारण दोनों देशों के बीच आर्थिक पर्यटन व्यापार और रक्षा क्षेत्रों में संबंध बढ़ते चले गए।
अतः विश्व के संकरी गलियों की बंद कमरों की राजनीति के जानकारों का मानना है कि यह सब एक सुनियोजित स्क्रिप्ट है जिसके पटकथा पहले से लिखी जा चुकी है। जिसके सभी मोहरे निर्धारित हैं जिनकी चालें भी निर्धारित हैं। इसलिए सभी अपने-अपने रोल के अनुसार अभिनय करते हुए दिखाई दे रहे हैं। क्योंकि जिस प्रकार से तुर्की ने कुर्दों पर अपनी तोपें बरसाईं हैं वह इतिहास के पन्नों पर एक काला अध्याय है। क्योंकि यह कुर्द ही थे जिन्होंने ISIS की सीरिया में कमर तोड़ने में ट्रंप की खुलकर मदद की। उसके बाद यह ट्रंप प्रशासन ने यूएई को इजराईल के साथ खुले मंच पर आने के लिए आमंत्रित किया। यही ट्रंप प्रशासन है जिसको नाराज करके इजराईल एक कदम भी नहीं चल सकता। तो फिर यह कैसे संभव है कि एक ओर ट्रंप का दोस्त इजराईल तुर्की के साथ खड़ा रहे और दूसरी ओर ट्रंप प्रशासन तुर्की पर प्रतिबंध थोप दे। यह पूरी तरह से असंभव है। इसलिए यह साफ एवं स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है कि यह एक बड़ी सियासत है जिसके भविष्य को ध्यान में रखकर नींव रख दी गई है। जिसमें आने वाले कल में सियासी दाँव पेंच आज़ामाने में आसानी रहे। साथ ही गुप्त सूचनाएं भी आसानी के साथ प्राप्त हो सकें। ट्रंप की विदेश नीति को समझने के लिए ट्रंप के पूरे कार्यकाल को समझने की आवश्यकता है। क्योंकि ट्रंप के कार्यकाल में जो विदेश नीति बनाई गई वह पूरी तरह से संदेहास्पद थी। ट्रंप प्रशासन जहाँ भारत के साथ खड़ा था वहीं वह यूएई को मोहरा बनाकर पाकिस्तान की पूरी आर्थिक मदद करता रहा। भारत के साथ ट्रंप प्रशासन खुलकर खड़ा था तो पाकिस्तान के साथ परोक्ष रूप से खड़ा था। जिसमें ट्रंप प्रशासन ने अपने खास दोस्त यूएई का भरपूर सहयोग लिया और पाकिस्तान का अंदर खाने साथ देकर दोनों हाथों में लड्डू लेने का करतब दिखाय़ा। इससे विदेश नीति को गहराई के साथ समझने की आवश्यकता है। क्योंकि पर्दे के पीछे जो खेल हो रहा है वह सार्वजनिक मंचों पर होने वाले खेल से पूरी तरह से भिन्न है।
वरिष्ठपत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक।
(सज्जाद हैदर)