श्री भगवान ने कहा – जो मनुष्य बिना किसी फ़ल की कामना करते हुए काम को अपना कर्तव्य समझ कर करता है, वही संन्यासी है और वही योगी है, न तो अग्नि को त्यागने वाला ही सन्यासी होता है, और न ही कार्यों को त्यागने वाला ही योगी होता है। काम को करने वाला ही असली में योगी होता है। : हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं, उसे ही तू योग समझ,वो ही ब्रह्मा से मिलवाता है। क्योंकि शरीर के सुख की इच्छा का त्याग किये बिना कभी भी कोई मनुष्य योग को प्राप्त नहीं हो सकता है।भाव भगवान को नही पा सकता। मन को वश में करने की इच्छा वाले मनुष्य को योग की प्राप्ति के लिये कर्म करना होता है, और योग को प्राप्त होते-होते सभी सांसारिक इच्छाओं का अभाव हो होता है। जब मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करता है। न तो उसे शारीरिक सुख के लिये कार्य पड़ता है, और न ही वो फ़ल की इच्छा के लिए कार्य करता है, उस समय वह मनुष्य योगी कहलाता है।
मनुष्य को चाहिये कि वह अपने मन के द्वारा अपना जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन से मुक्त करने का प्रयत्न करे, और अपने आपको मन के वश में ना आने दे, क्योंकि यह मन ही जीवात्मा का मित्र है, और यही जीवात्मा का शत्रु भी है।
जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका वह मन ही परम-मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही परम-शत्रु के समान होता है। जिसने मन को वश में कर लिया है, उसको परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा पूर्ण-रूप से प्राप्त हो जाता है, उस मनुष्य के लिये सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान एक समान होते है। ऎसे परमात्मा को प्राप्त हुए मनुष्य के लिये मिट्टी, पत्थर और सोना एक समान होते है। ऎसा मनुष्य स्वभाव से सभी का हित चाहने वाला, मित्रों और शत्रुओं में, तटस्थों और मध्यस्थों में, शुभ-चिन्तकों और ईर्ष्यालुओं में, पुण्यात्माओं और पापात्माओं में भी एक समान भाव रखने वाला होता है।
योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को एकान्त स्थान में पवित्र भूमि में न तो बहुत ऊँचा और न ही बहुत नीचा, कुशा के आसन पर मुलायम वस्त्र या मृगछाला बिछाकर, उस पर दृड़ता-पूर्वक बैठकर, मन को एक बिन्दु पर स्थित करके, चित्त और इन्द्रिओं की क्रियाओं को वश में रखते हुए अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करना चाहिये। योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को अचल और स्थिर रखकर, नासिका के आगे के सिरे पर दृष्टि स्थित करके, इधर-उधर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ, बिना किसी भय से, इन्द्रिय विषयों से मुक्त ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित, मन को भली-भाँति शांत करके, मुझे अपना लक्ष्य बनाकर और मेरे ही आश्रय होकर, अपने मन को मुझमें स्थिर करके, मनुष्य को अपने हृदय में मेरा ही चिन्तन करना चाहिये। इस प्रकार निरन्तर शरीर द्वारा अभ्यास करके, मन को परमात्मा स्वरूप में स्थिर करके, परम-शान्ति को प्राप्त हुआ योग में स्थित मनुष्य ही सभी सांसारिक बन्धन से मुक्त होकर मेरे परम-धाम को प्राप्त कर पाता है।
हे अर्जुन! योग में स्थित मनुष्य को न तो अधिक भोजन करना चाहिये और न ही कम भोजन करना चाहिये, न ही अधिक सोना चाहिये और न ही सदा जागते रहना चाहिये। योग में स्थित मनुष्य का योग के अभ्यास द्वारा विशेष रूप से मन जब आत्मा में स्थित परमात्मा में ही विलीन हो जाता है, तब वह सभी प्रकार की सांसारिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, उस समय वह पूर्ण रूप से योग में स्थिर कहा जाता है। उदाहरण के लिये जिस प्रकार बिना हवा वाले स्थान में दीपक की लौ बिना इधर-उधर हुए स्थिर रहती है, उसी प्रकार योग में स्थित मनुष्य का मन निरन्तर आत्मा में स्थित परमात्मा में स्थिर रहता है। योग के अभ्यास द्वारा जिस अवस्था में सभी प्रकार की मानसिक गतिविधियाँ रुक जाती हैं, उस अवस्था (समाधि) में मनुष्य अपनी ही आत्मा में परमात्मा को साक्षात्कार करके अपनी ही आत्मा में ही पूर्ण सन्तुष्ट रहता है। मनुष्य को चाहिये कि दृड़-विश्वास के साथ योग का अभ्यास करते हुए सभी सांसारिक संसर्ग से उत्पन्न दुखों से बिना विचलित हुए है योग समाधि में स्थित रहकर कार्य करे। मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे।
हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान सभी प्राणीयों को देखता है, सभी प्राणीयों के सुख और दुःख को भी एक समान रूप से देखता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना चाहिये। जिस मनुष्य द्वारा मन को वश में नही किया गया है, ऐसे मनुष्य के लिये परमात्मा की प्राप्ति (योग) असंभव है लेकिन मन को वश में करने वाले प्रयत्नशील मनुष्य के लिये परमात्मा की प्राप्ति (योग) सहज होता है – ऎसा मेरा विचार है। तपस्वियों से योगी श्रेष्ठ है, शास्त्र-ज्ञानियों से भी योगी श्रेष्ठ माना जाता है और सकाम कर्म करने वालों की अपेक्षा भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिये हे अर्जुन! तू योगी बन।तो इस अध्याय में भगवान योग को बहुत महत्व दे रहे है ओर बता रहे है की मन को वश में कर के हम इंद्रियों को वश में कर सकते है। ओर मन को योग द्वारा ही अपने वश में कर सकते है।कहते है मन को जीतने वाला जग को जीत लेता है। चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु इसे सभी सांसारिक कामनाओं को त्याग करके और निरन्तर योग अभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है। मन को वश में करना, वायु को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन लगता है। पर ऐसा भी नही की इस मन को हम वश में नही कर सकते, कर सकते है बस अभ्यास नही छोड़ना। योग में स्थित मनुष्य का मन जब परमात्मा में एक ही भाव में स्थिर रहता है और जिसकी रज-गुण से उत्पन्न होने वाली कामनायें भली प्रकार से शांत हो चुकी हैं, ऎसा योगी सभी पाप-कर्मों से मुक्त होकर परम-आनन्द को प्राप्त करता है।तो हमने देखा कि भगवान इसमें योग द्वारा मन को वश में करने की बात कहते है।तो हमें भी मन को वश में करके ओर अपने विचारों को सही रखके अपने जीवन को सफल बना सकते है।
पायल बेदी
अम्बाला