सनातन धर्म में नवरात्रि, इस्लाम धर्म में रमजान का जितना महत्व है। उसी प्रकार जैन धर्म में पर्युषण पर्व का सबसे अधिक महत्व है। इस पर्व को पर्वाधिराज (पर्वों का राजा) कहा जाता है। इसे आत्मशोधन का पर्व भी कहा गया है। जिसमें तप कर कर्मों की निर्जरा कर अपनी आत्मा को निर्मल बनाया जा सकता है। पर्युषण पर्व को आध्यात्मिक दीवाली की भी संज्ञा दी गई है। जिस तरह दीवाली पर व्यापारी अपने संपूर्ण वर्ष का आय-व्यय का पूरा हिसाब करते हैं, गृहस्थ अपने घरों की साफ- सफाई करते हैं, ठीक उसी तरह पर्युषण पर्व के आने पर जैन धर्म को मानने वाले लोग अपने वर्ष भर के पुण्य-पाप का पूरा हिसाब करते हैं। वे अपनी आत्मा पर लगे कर्म रूपी मैल की साफ-सफाई करते हैं।
पर्युषण आत्म जागरण का संदेश देता है और हमारी सोई हुई आत्मा को जगाता है। यह आत्मा द्वारा आत्मा को पहचानने की शक्ति देता है। इस दौरान व्यक्ति की संपूर्ण शक्तियां जग जाती हैं।आठ कर्मों के निवारण के लिए साधना के ये आठ दिन जैन परंपरा में सबसे महत्वपूर्ण बन गए। सारांश में हम यह कह सकते हैं कि इन आठ दिनों में धर्म ही जीवन का रूप ले लेता है। धर्म से समाज में सहयोग और सामाजिकता का समावेश होता है। बगैर इसके समाज का अस्तित्व संभव नहीं है। इसी से समाज, जाति और राष्ट्र में समरसता आती है और उसकी उन्नति होती है। इसी से मनुष्य का जीवन मूल्यवान बनता है। धर्म प्रधान व्यक्ति सभी को समान दृष्टि से देखता है। अमीर– गरीब, ऊंच– नीच सभी उसकी दृष्टि में बराबर हैं। धर्म प्रधान व्यक्ति न किसी से डरता है और न ही उससे कोई डरता है। धर्म जीवन की औषधि है। वह जब मनुष्य में आता है तो ईर्ष्या , मद , घृणा जैसे कई रोग व विकार स्वत: दूर हो जाते हैं। पर्युषण महापर्व धर्ममय जीवन जीने का संदेश देता है।
पर्युषण के दो भाग हैं। पहला तीर्थंकरों की पूजा, सेवा और स्मरण तथा दूसरा अनेक प्रकार के व्रतों के माध्यम से शारीरिक, मानसिक व वाचिक तप में स्वयं को पूरी तरह समर्पित करना। पर्युषण महापर्व का समापन मैत्री दिवस के रूप में आयोजित होता है। जिसे ‘क्षमापना दिवस’ भी कहा जाता है। इस तरह से पर्युषण महापर्व एवं क्षमापना दिवस एक-दूसरे को निकट लाने का पर्व है। यह एक-दूसरे को अपने ही समान समझने का पर्व है। गीता में भी कहा गया है- ‘आत्मौपम्येन सर्वत्र:, समे पश्यति योर्जुन’ श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-हे अर्जुन! प्राणीमात्र को अपने तुल्य समझो।
पर्युषण पर्व आध्यात्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से आत्मा की शुद्धि का पर्व माना जाता हैं। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मा के विकारों को दूर करने का होता हैं जिसका साधारण शब्दों में मतलब होता है, किसी भी प्रकार के किये गए पापों का प्रायश्चित करना। याने हमारे द्वारा किये गए कोई भी कार्य जिससे किसी भी प्राणी को दुःख पहुँचा हो तो उसका प्रायश्चित करना और उसके क्षमा मांगना। यह पर्व बुरे कर्मों का नाश करके हमें सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
पर्युषण महापर्व-आत्मा शुद्धि का पर्व है। पर्युषण का अर्थ है परि यानी चारों ओर से, उषण यानी धर्म की आराधना। यह पर्व महावीर स्वामी के मूल सिद्धांत “अहिंसा परमो धर्म” और “जियो और जीने दो” की राह पर चलना सिखाता है। मोक्ष प्राप्ति के द्वार खोलता है। इस पर्व का मुख्य उद्देश्य-“संपिक्खए अप्पगमप्पएणं” यानी आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। संसार के समस्त प्राणियों से जाने-अनजाने में की गई गलतियों के लिए क्षमा याचना कर सभी के लिए ख़ुशी की कामना की जाती है।
मनुष्य धार्मिक कहलाए या नहीं। आत्मा-परमात्मा में विश्वास करे या नहीं। पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को माने या नहीं। अपनी किसी भी समस्या के समाधान में जहाँ तक संभव हो, अहिंसा का सहारा ले। यही पयुर्षण का उद्देश्य है। इसके साथ-साथ जब हम सच बोलते हैं, जब हम समस्त जीवों के प्रति दया भाव रखते है, जब हम विपरीत परिस्थिति में भी हिम्मत नहीं हारते। जब अपने दोस्त की मदद करते हैं, जब परिवार के प्रति ज़िम्मेदारी निभाते है, जब हम निरंतर लक्ष्य की ओर अग्रसर होते है, जब हम आत्म निरीक्षण करते है, जब हम मुस्कुराते है, जब हम मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाते है तब पर्युषण होता है। कम या ज़्यादा, जैन हो या अजैन, पर्युषण का सही अर्थ सिर्फ मनावता और इंसानियत को समझना है। संपूर्ण दुनिया में पर्युषण ही ऐसा पर्व है जो हाथ मिलाने और गले लगने का नहीं, पैरों में झुककर माफी माँगने की प्रेरणा देता है। इस पर्व में हाथ जोड़कर क्षमा मांगने में संकोच न करे और टूटे रिश्तों को एक बार फिर से मजबूत करे, बस यही तो पर्युषण है।
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उज्जैन