मालवी की बांसुरी – सुल्तान मामा

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श्रद्धांजलि –

हिंदी और मालवी के सुप्रसिद्ध कवि , गीतकार सुल्तान मामा हिंदी काव्य मंचों पर अपनी सुरीली आवाज के लिए पहचाने जाते थे। कवि सम्मेलन मंचों पर यदि कोई उन्हें सामने ने नहीं सुन रहा हो तो कहता कि क्या खूबसुरत आवाज में कवयित्री गा रही है । मालवी लोक भाषा की बांसुरी थे मामा ।ग्रामीण अंचलों में उनकी सुरीली आवाज का जादू इस तरह छाया हुआ था कि उनके द्वारा गाए हुए गीतों को महिलाएं अपने घरों में होने वाले मांगलिक अवसर शादी ,विवाह, सगाई , मामेरा, होली, देवी- देवता आदि के विभिन्न रस्मों में गाने लगी थी । उनकी रचनाएं देखा जाए तो लोक रचनाएं थी जो महिलाएं सुल्तान मामा के गीत बड़े चाव से गाती थी उन्हें भी नहीं पता कि यह मौलिक रूप से सुल्तान मामा के लिखे हुए हैं ना कि पारंपरिक है ।
2 मार्च 1928 को उज्जैन के तराना में जन्में सुल्तान अहमद खान मालवी और मालवा की शान माने जाते थे । कांग्रेस की राजनीति और कविता के साथ आपने जीवन की यात्रा की और आखरी सांस तक दोनों को जी भर के जीया । आप तराना नगर पालिका के अध्यक्ष भी रहे । कवि सम्मेलनीय पारी की शुरुआत 1955 में मालवी के प्रसिद्ध कवि हरीश निगम के सानिध्य में शुरु की जो अंतिम पड़ाव तक रही । सुल्तान अहमद खान के सुल्तान मामा बनना भी रोचक है , कवि हरीश निगम की पत्नी ने उन्हें भाई बनाया था और जब वे निगम जी के घर जाते तो बच्चे कहते मामा आए । बच्चों के मामा जगत मामा बन गये और धीरे धीरे उनकी पहचान सुल्तान मामा के रुप में ही हो गई । वे गंगा जमनी संस्कृति के प्रतिक थे, स्वयं मुसलमान हो कर भी उन्होने हिंदू देवी देवताओं पर गीत लिखे और गाए । उनके लिखे गीत आज भी गाए जा रहे है।आकाशवाणी पर अनेक बार रचनापाठ कर चुके, देश भर के मंचों पर उनकी कविताएं चाव से सुनी जाती रही। इंदौर दूरदर्शन ने तराना आकर मामा पर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई।
मामा सही अर्थों में जनकवि थे। सभी पर प्यार लुटाने वाले। हर कोई उन्हें अपने नजदीक महसूस करता था। अपने हर एक पहचान वाले के सुख दु:ख में मामा शामिल होते। उनका आकर्षण व्यक्तित्व सभी को लुभाता था। छह दशक से अधिक समय तक मंचों की शान रहे सुल्तान मामा 27 मई 2019 को दूनिया को महोब्बत के तराने दे कर अलविदा हो गये । मालवी की बांसुरी मामा को विनम्र श्रद्धांजलि…

-संदीप सृजन
संपादक – शाश्वत सृजन

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