मैं किसान हूं और कोलिया(डिडवाना राजस्थान)गाँव से हूँ,इसलिए हमें ‘मारवाड़ी’ कहा जाता है। हमारा गाँव अपने मतिरो(तरबूज)के लिए प्रसिद्ध है। जब मैं छोटा था,तब इंदौर रहने के कारण गर्मी की छुट्टियों में ही गांव जाते थे। मेरे गाँव के किसान व दादाजी फसल के अंत में मई महीने में तरबूज(मतिरो)खाने की प्रतियोगिता आयोजित करते थे।
गाँव और आसपास के सभी बच्चे तरबूज खाने के लिए बुलाए जाते थे। उन्हें अधिक-से-अधिक जितना तरबूज वे खा सकते थे,खाना होता था। इंदौर में पढ़ाई,फिर नौकरी और व्यवसाय के चक्कर में कई साल गांव नहीं जा पाया। लगभग १०-१५ वर्ष बाद अपने गाँव पहुँचा,तो मैंने तरबूजों के खेत और बाजार देखे। तरबूजे गायब थे,जो थोड़े बहुत थे,वह भी काफी छोटे थे ।
मैं उन किसानों को देखने पहुँचा,जो तरबूज खाने की प्रतियोगिताएँ आयोजित करते थे। अब यह जिम्मेदारी उनके बेटे देख रहे थे,लेकिन मुझे पहले से कुछ अंतर दिखाई दिया। पहले दादाजी व बुजुर्ग किसान हमें तरबूज खाने के बाद बीज थूकने के लिए कटोरी देते थे। एक शर्त यह भी होती थी कि,तरबूज खाते समय कोई भी बीज कटना नहीं चाहिए। वह हमें खाने के लिए अपने खेत के अच्छे से अच्छा,बड़े से बड़ा और मीठे से मीठा तरबूज देते थे। इस तरह से वह अपनी अगली फसल के लिए सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्तम बीज चुन लेते थे,और सिर्फ प्राकृतिक खाद (गोबर) व गोमूत्र से बनी दवाई ही खेत में प्रयोग करते थे। अगली फसल के तरबूज और भी अच्छे,बड़े और मीठे होते थे। हम वास्तव में बिना वेतन के सर्वश्रेष्ठ बीज चयन करने वाले कुशल बाल श्रमिक होते थे,यह मुझे बाद में पता चला। उनके बेटों को लगा कि,बड़े और मीठे तरबूज बाजार में बेचने पर अधिक धन मिलेगा और रासायनिक खाद व कीटनाशक से उत्पादन बढ़ेगा,की सोच रखी,न कि गुणवत्ता की। इसलिए उन्होंने बड़े,मीठे और अच्छे तरबूज बेचने शुरू कर दिए और प्रतियोगिता में छोटे और कम मीठे तरबूज रखने शुरु कर दिए। साल-दर-साल रासायनिक खाद व कीटनाशक के प्रयोग से जमीन ख़राब करते गए। इस प्रकार वर्ष प्रति वर्ष तरबूजे छोटे और छोटे होते गए,क्योंकि फसल में सभी प्रकार के फल होते थे,किन्तु अच्छे व मीठे फल बेचकर धन तो एक बार अधिक मिल गया,पर नुकसान भी होता रहा। ऐसे में छोटे और कम मीठे फल बिकने से रह जाते, इस कारण जो बीज मिलते,वो कमजोर और कम मीठे होते थे। तरबूज की उत्पादकता एक वर्ष की होती है। इस प्रकार वर्ष-दर-वर्ष में कोलिया गांव के सर्वश्रेष्ठ तरबूज विलुप्त हो गए।
मनुष्य में औसत उत्पादकता 25 वर्ष है। नस्ल परिवर्तन में लगभग 200 वर्ष लग जाते हैं। हम अपनी पीढ़ियों को शिक्षित करने में क्या गलती कर रहे हैं, इसका असर 200 वर्ष बाद पता चलेगा..और निश्चित रूप से उसको सुधारने में भी। जब तक हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षित एवं सुयोग्य अध्यापकों को स्थान नहीं देंगे और शादी,खानदान व लड़के- लड़की को छोड़कर सिर्फ पैकेज को ही महत्व देंगे,तो गड़बड़ होती रहेगी।हम विश्व में सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकते।हमें सर्वप्रथम शिक्षा व्यवस्था में सर्वश्रेष्ठ लोगों को बिना भेदभाव के स्थान देना चाहिए,और शिक्षा के बाद जब भी जीवनसाथी का चयन करें तो तनख्वाह या पैकेज के स्थान पर खानदान व रक्त जीन्स को महत्व देना चाहिए। वैसे भी दोनों का पैकेज होगा तो बस एक बात की चर्चा रहेगी कि, मैं आगे,कि तू ?
आगे परिवार और बच्चों पर ध्यान नहीं होगा तो अच्छी नस्ल कहाँ से आएगी। पैकेज से इकठ्ठा धन धन बैंक में,और घर-परिवार संस्कारविहीन तथा बर्बादी की ओर,क्योंकि मेरा-तेरा है,हमारा नहीं है,इसलिए पैकेज के साथ संस्कार व हमारा का पाठ होना चाहिए। दस तेरा,मेरा पंद्रह की अपेक्षा ऐसा होना चाहिए-हमारा पच्चीस है।
गांव की एक और बात साझा करना चाहता हूँ,जिससे शायद पैकेज वाले कुछ समझें। गांव में एक या दो सांड हुआ करते थे,गायें सबके पास थी,जो सबकी अपनी सम्पत्ति होती थी,किन्तु सांड गांव की सम्पत्ति होती थी। उस समय गांव के लोग गायों से अधिक सांड का ध्यान रखते थे। हर घर से रोज़ सांड को रोटी मिलती थी,और सबसे तंदुरुस्त होता था। हर तीन साल में गांव के सांड बदल दिए जाते थे,ताकि गांव की गायों को किसी प्रकार की रक्त की बीमारी न हो। याने गोत्र बदल जाए। कुछ मौकापरस्त बेईमान नेता अपने वोटों और नोटों की भूख के चक्कर में इस प्रयोग को(जो इंसानों में भी होता था) गलत तरीके से पेश कर पूरी नस्ल को बर्बादी की और ले जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत है मुस्लिम धर्म,जिसमें रक्त को महत्व नहीं दिया जाता है। इस कारण आज पूरे विश्व में आंतक के कारन ये बदनाम होकर इंसानियत को हैवानियत की और ले जा रहे हैं। जहाँ मुस्लिम परिवारों में रक्त का विशेष ध्यान रखकर सम्बन्ध किए जाते हैं, उनका अध्ययन करने पर पाएँगे कि,वो अहिंसक और प्रगति की विचारधारा वाले हैं।
सीधी-सी बात यही है कि,अगली पीढ़ी तक अपनी संस्कृति-सभ्यता एवं ज्ञान की विविधता को पहुँचाने की जिम्मेदारी सबकी है। विशेषकर माँ, बाप और परिवार के बुजुर्गों की, या यूँ कहें कि भारत के प्रत्येक नागरिक की है। सभी को यह जिम्मेदारी पूरी लगन और ईमानदारी से निभानी भी चाहिए। इस कार्य के लिए दिमाग की जरुरत होती है,और दिमाग खान-पान से उन्नत होता है। खान-पान शुद्ध शाकाहारी के साथ जैविक और सात्विक होगा,तो सोचने की शक्ति होगी। इसी से विचारधारा सुधरेगी, न कि पैकेज से। अपने बच्चों को समझाएं कि,पैकेज के पीछे और तेरा-मेरा के पीछे न भटकें। दादाजी !!!!!!!!!!ने एक बात और कही थी-आदमी के रक्त जीन्स कभी भी नहीं जाते,आगे की पीढ़ी रक्त मिलाने से बनती है,न कि पैकेज से। अतः रक्त मिलाते समय खानदान व संस्कारों का ध्यान रखें।
#शिवरतन बल्दवा
परिचय : जैविक खेती कॊ अपनाकर सत्संग कॊ जीवन का आधार मानने वाले शिवरतन बल्दवा जैविक किसान हैं, तो पत्रकारिता भी इनका शौक है। मध्यप्रदेश की औधोगिक राजधानी इंदौर में ही रिंग रोड के करीब तीन इमली में आपका निवास है। आप कॉलेज टाइम से लेखन में अग्रणी हैं और कॉलेज में वाद-विवाद स्पर्धाओं में शामिल होकर नाट्य अभिनय में भी हाथ आजमाया है। सामाजिक स्तर पर भी नाट्य इत्यादि में सर्टिफिकेट व इनाम प्राप्त किए हैं। लेखन कार्य के साथ ही जैविक खेती में इनकी विशेष रूचि है। घूमने के विशेष शौकीन श्री बल्दवा अब तक पूरा भारत भ्रमण कर चुके हैं तो सारे धाम ज्योतिर्लिंगों के दर्शन भी कई बार कर चुके हैं।