क्या महागठबंधन तय करेगा देश की दिशा?
आज कल देश के सभी छोटे बड़े टेलीविज़न चैनलों पर हो हल्ला होता हुआ दिखायी दे रहा है जोकि चुनावी मौसम के अनुसार आम बात है। क्योंकि, देश का वातावरण चुनावी मौसम में परिवर्तित हो रहा है। लगभग देश की सभी छोटी बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ अपनी चुनावी ज़मीन तैयार करने में लगी हुई हैं, सभी छोटी बड़ी पार्टियाँ अपने चुनावी क्षेत्र में अंकगणित को ठीक-ठाक करने में लगी हुई हैं, सभी अपने-अपने मतदाओं की गड़ना करने में पूरी तीव्रता के साथ लगी हुई हैं, जिस पार्टी का अपना स्वयं का जनाधार कमज़ोर है वह गठ-जोड़ के सहारे अपनी नैय्या को पार करने की फिराक में लगी हुई हैं।
देश की सभी पार्टियाँ अपने-अपने राजनीतिक लाभ एवं सुविधओं के अनुसार गठबंधन करने में लगी हुई हैं, लेकिन वास्तविकता इससे इतर है। मात्र दो पार्टियों के आपस में गठबंधन कर लेने से मतदाता भी आपस में गठबंधन कर लेंगे। और किसी भी पार्टी की तरफ नहीं जाएंगे। क्योंकि, देश की जनता के अपने-अपने स्वयं के मुद्दे हैं जोकि अलग-अलग हैं। देश की जनता अत्यधिक भोली-भाली है। जोकि नेताओं के बहकावे में भी आ जाती है। परन्तु ऐसा भी नहीं कि 100 प्रतिशत जनता बहकावे में आ जाए ऐसा भी नहीं है। परन्तु, जातीय आधार पर वोट बैंक का प्रत्याशी के पक्ष में एक जुट हो जाना उत्तर प्रदेश की राजनीति का मुख्य हिस्सा है, जोकि किसी से भी छुपा हुआ नहीं है। यही एक ऐसा समीकरण है जोकि चुनावी समीकरणों को बिगाड़ता एवं बनाता भी है। क्योंकि, वोट जातीय आधार पर पड़ने के कारण बड़े से बड़े प्रत्याशियों को भी हारते हुए देखा गया है। यह उत्तर प्रदेश की राजनीति की ज़मीनी हक़ीकत है।
कहते हैं कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश के गलियारों से ही होकर गुज़रता है। इसीलिए उत्तर प्रदेश की सभी राजनीतिक हल-चल पर संपूर्ण भारत की पैनी नज़रें टिकी हुई होती हैं। जोकि, स्पष्ट रूप से दिखाई भी दे जाती हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक धरती पर मुख्य रूप से दो पार्टियाँ जनता के बीच अपना मजबूत जनाधार रखती हैं, जिन्हें क्रमशः समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी के नाम से जाना जाता है। जिनका आपसी मतभेद भी किसी से भी छिपा हुआ नहीं है। दशकों से दोनों एक दूसरे की धुर-विरोधी पार्टी रही हैं। परन्तु, आज के समय में दोनों पार्टियों का आपस में फिर से एक बार गठबंधन हो गया है। अब देखना यह दिलचस्प है कि प्रदेश की जनता क्या इस गठबंधन के साथ जाती है, अथवा अपना कोई अलग मार्ग चुन लेती है।
अब बात करते हैं राजनीति के मुख्य केन्द्र की जिसके लिए पूरी ज़ोर आज़माइश होती है, जिसे विजय एवं पराजय कहते हैं। तो क्या सपा-बसपा के आपस में गठबंधन कर लेने से गठबंधन का विजय रथ तीव्रता के साथ चल पाएगा अथवा नहीं। क्योंकि, समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को चुनौती मुख्यरूप से उनके चाचा एवं प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के संस्थापक शिवपाल यादव से ही मिलने की संभावना दिखाई दे रही है। क्योंकि शिवपाल यादव की पार्टी चुनाव में जैसा भी प्रदर्शन करे। परन्तु, वर्तमान राजनीतिक समीकरणों के अनुसार चुनाव में मतों का अनेकों भागों में विभाजित हो जाना तय है। जोकि, अलग ही परिणामों के संकेत देता हुआ दिखायी दे रहा है। साथ ही कांग्रेस का भी इस गठबंधन से बाहर होना मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए प्रयाप्त है। सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि कभी लंबे समय तक निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में सपा के साथ शामिल होकर सरकार में कैबिनेट मंत्री के रूप में अपना मज़बूत दबदबा रखने वाले रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया स्वयं अपनी पार्टी बनाकर उसे जमीनी स्तर पर अपने क्षेत्र में सशक्त एवं मजबूत बनाने के पूर्ण रूप से प्रयास में लगे हुए हैं।
इन सभी राजनीतिक शतरंज रूपी चाल को जमीनी स्तर पर गंभीरता पूर्वक खंगालने के बाद जो निष्कर्ष सामने आते हैं वह चौकाने वाले हैं। क्योंकि, जो भी परिणाम सामने आ रहे हैं वह अचंभित करने वाले हैं। क्योंकि, गठबंधन और एकता की बात करने वाला विपक्ष कहीं न कहीं बिखरा हुआ दिखाई दे रहा है। राजनीति में जनाधार का बिखरना हार का मुख्य रूप से कारण होता है। राजनीति के जानकारों की माने तो चुनाव में हार जीत जनाधार के सिमटने और बिखरने पर ही निर्भर करती है। उत्तर प्रदेश की धरती पर दो बड़ी पार्टियों के बीच गठबंधन का जहाँ ढ़िंढ़ोरा पीटने में कुछ विपक्षी पार्टियाँ जोर शोर से लगी हुई हैं। तथा गठबंधन का जश्न मनाया जा रहा है। परन्तु जनाधार का बिखरा हुआ रूप यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि आगामी चुनाव 2019 का परिणाम विपक्ष के लिए मुँगेरी लाल के हसीन सपने की भाँति कहीं न साबित हो जाए। इसलिए, कि जब उत्तर प्रदेश की धरती ही दिल्ली का रास्ता तय करने में अहम भूमिका निभाती है तो उत्तर प्रदेश का राजनीतिक वातावरण तो अलग ही दिखायी दे रहा है। जोकि बिखरे हुए जनाधार के रूप में दिखायी दे रहा है। जिससे भविष्य में आने वाले परिणामों का आंकलन करना जटिल नहीं है। जोकि अलग ही संकेत दे रहा है। राजनीति की चाल एक ऐसी चाल होती है जोकि कभी भी सीधी नहीं होती, इस शतरंज के घोड़े की ढ़ाई घर चाल रूपी टेढ़ी चाल में कौन राजनेता सफल हो पाता है यह देखना दिलचस्प होगा। क्योंकि, राजनीति में कब कौन सा राजनेता क्या फैसला ले-ले कुछ भी स्थायी नहीं है।
विचारक ।
(सज्जाद हैदर)