ढोल-नगाड़ों की आवाज बता रही है कि विश्व हिंदी दिवस फिर आ गया है। ‘विदेशों में हिंदी’ ऐसे विषयों पर अनेक संगोष्ठियां होंगी। प्रवासी साहित्य की भी खूब चर्चा होगी। ‘विदेशों में हिंदी’ विषय पर आयोजित ज्यादातर कार्यकर्मों और संगोष्ठियों में प्रबुद्ध विद्वान वक्ता बड़ी ही खूबसूरती से ऐसे आंकड़े परोसते हैं जिनसे यह लगेगा कि हिंदी बड़ी तेजी से विश्व में अपने पांव पसारती जा रही है। हिंदी की ऐसी मनमोहक छवि से प्रभावित हिंदी-प्रेमी श्रोताओं के मन को भी बहुत सुकून मिलता है, ‘चलिए कोई बात नहीं भारत में न सही विश्व में तो हिंदी तेजी से फैल ही रही है।’ हो सकता है, कभी फिर लौट कर वापस भारत आ जाए। इस प्रकार एक बहुत ही खुशनुमा और आशावादी से माहौल में विश्व में हिंदी की चमकदार तस्वीर लिए लोग अपने घर लौट जाएँगे ।
हिंदी के प्राध्यापक और विद्यार्थी भी इन व्याख्यानों से अपने लिए कुछ न कुछ ऐसा खोज ही लेते हैं जो हिंदी की स्थिति पर होने वाली चर्चाओं में एक ढाल की तरह उनके काम आ सके। हिंदी प्रेमियों में कुछ गिने-चुने ही ऐसे हैं जिन्होंने विश्व भ्रमण किया है और इसलिए वे अक्सर आंकड़ों के मकड़जाल में फंस कर विश्व में हिंदी के प्रसार की एक ऐसी तस्वीर अपने मन में बसा लेते हैं जो कई बार यथार्थ से काफी दूर होती है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हिंदी को प्रचार को लेकर विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किए गए आंकड़े गलत होते हैं, मैं यह कह रहा हूं कि उन आंकड़ों के माध्यम से जो तस्वीर बनाई जाती है, उसमें कितनी हकीकत है और कितना फसाना? अगर तस्वीर उतनी ही मनमोहक हो जितनी की तस्वीरों में दिखाई जाती है तो सच में यह प्रसन्नता की बात है। लेकिव इसके लिए पहले सही स्थिति को समझना आवश्यक होगा, वास्तविक स्थिति को समझ कर आगे बढ़ना उचित होगा।
सदियों से धर्म, आध्यात्म, ज्ञान और व्यापार आदि कारणों से भारत के लोग विदेशों में और अन्य देशों के लोग भारत में आते -जाते रहे हैं। लेकिन बड़े पैमाने पर भारत के लोगों के विदेशों में जाकर बसना 19वीं सदी में और 20वीं सदी के प्रारंभ में हुआ जब ब्रिटिश शासक अपने उपनिवेशों मैं विकास और वहां की प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए यहाँ से मजदूरों को ले कर गए। हिंदुस्तानी किसान मजदूर मॉरीशस में दिसंबर सन 1834 ई. में, त्रिनिडाड में 1845 ई. में, दक्षिण अफ्रीका में 1860 ईस्वी में, गयाना में 1827 ईस्वी में, सूरीनाम में 1873 ईस्वी में, फिजी में 1979 ईस्वी में और कीनिया में 1896 ईस्वी में पहुंचे और 1916 तक भारत से इनके जाने का सिलसिला चलता रहा। ये एक बार इन देशों में जा कर बसे तो फिर लौट कर आ न सके। एग्रीमेंट करके गए ये मजदूर आगे चलकर गिरमिटिया मजदूर कहलाए। ये गिरमिटिया मजदूर ही आगे चल कर भारतीय भाषा-संस्कृति के प्रमुख विश्वदूत बने।
ये मजदूर उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र आंध्रप्रदेश तमिलनाडु सहित भारत के कई हिस्सों से जाकर वहां बसे थे, लेकिन इनमें सर्वाधिक संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों की थी। इन गिरमिटिया मजदूरों के वंशज, ये भारतवंशी इतने वर्ष बाद भी भावनात्मक रुप से अपने पूर्वजों के धर्म और संस्कृति से जुड़े हैं। हालांकि ये सभी देश भौगोलिक दृष्टि से बहुत दूर-दूर स्थित है। इसके बावजूद बहुत सारी बातें इनमें लगभग समान पाई जाती हैं। धार्मिक भावनाओं के चलते ये मजदूर जाते समय ‘रामचरितमानस’ और ‘गीता’ जैसे कई धर्मग्रंथ अपने साथ लेते गए। भारत से और अपनी धार्मिक मान्यताओं से इनका जुड़ाव कुछ ऐसा था कि वहाँ की नदी, सरोवर या समुद्र को इन्होंने ‘गंगा’ नाम दे दिया। घर के आँगन में ‘तुलसी-चौरा’ आज भी मिल जाएगा। अनेक घरों के बाहर ‘ऊँ’ का निशान दिख जाएगा। आगे चलकर यही उनके लिए अपनी संस्कृति से जुड़ने के प्रमुख माध्यम बने। कहने का अभिप्राय यह है कि इनका हिंदी-प्रेम मुख्यत: अपनी जड़ों से जुड़ने की ललक और अपने धर्म- संस्कृति के प्रति लगाव रहा है। इन सभी देशों में ‘रामायण’ के प्रति अगाध श्रद्धा है और आज जबकि उन्हें वहां गए हुए कई पीढ़ियां बीत चुकी हैं वे धर्म और संस्कृति के प्रति लगाव के चलते वहां हिंदी सीखते-सिखाते हैं। आज जबकि भारतवासियों के जीवन में अनेक परिवर्तन आए हैं लेकिन इन देशों में गए भारतवंशी आज भी कहीं न कहीं उसी जीवन धारा का अनुसरण करते से दिखते हैं। आज भी इनके नाम प्राय: वही हैं जो हमारे यहाँ सौ-दौ सौ साल पहले थे। भाषा के स्तर पर भी इनकी भाषा में तत्कालीन अवधी-भोजपुरी जैसी बोलियों का प्रभाव स्पष्ट दिखता है।
अपनी जड़ों से जुड़ने की ललक का एक उदाहरण इसी वर्ष के प्रारंभ में मुझे तब मिला जब दक्षिण अफ्रीका के भारतवंशी डरबन के एक स्कूल के सेवानिवृत्त प्राचार्य अभिमन्यु दुधराज का ई-मेलमिला और उन्होंने बताया कि वे अपने बिछुड़े परिजनों की तलाश में उत्तर प्रदेश में अयोध्या के निकट के गाँव जाने के लिए भारत पहुंच रहे हैं। उन्होंने सरकारी रिकॉर्ड से उस समय युवा रहे अपने पड़दादा का नाम, पता वगैरह भी भिजवाया, जिसे मैने काफी लोगों को भेजा ताकि उनमें से यदि कोई उनके परिजनों का गाँव को जानता हो तो अभिमन्यु दुधराज को अपने परिजनों की तलाश में मदद कर सके। दो वर्ष पूर्व जब वे मुंबई आए थे तो हमारे घर भी आए थे। तब भी उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की थी। उनकी हिंदी में अयोध्या के आसपास बोले जाने वाले शब्दों का खासा प्रयोग था। जिन्हें मैं तो समझ न सका था लेकिन मेरी पत्नी डॉ. कामिनी गुप्ता जो उत्तर प्रदेश की रहनेवाली थीं, उन्होंने आसानी से समझ लिया और उनकी बातें मुझे भी समझाई थी। इनके लिए हिंदी आज भी अपने बिछुड़े परिजनों और देशवासियों से जुड़ने का जरिया है।
जोहान्सबर्ग में ‘हिंदी शिक्षा संघ’ के सहयोग से नवें विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान भारतवंशियों का एक जत्था ‘हिंदी शिक्षा संघ’ के नेतृत्व डरबन और नाटाल से आया था, जहाँ अधिकांश भारतवासी प्रारंभ से बसे हुए हैं। सम्मेलन के बाद जब वे वापस लौटे तो मैं भी उनके साथ था। मैंने पाया कि उस जत्थे में ऐसे लोग भी थे जो हिंदी कम समझते थे या बिल्कुल नहीं समझते थे। उनके लिए हिंदी का सम्मेलन केवल हिंदी का सम्मेलन नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति का और भारतीयता का सम्मेलन था, जहाँ वे भारत की धर्म – संस्कृति से जुड़ने आए थे। जोहान्सबर्ग से डरबन के करीब दस घंटे के सफर में रास्ते भर उन्होंने रोमन लिपि में छपी हुई हिंदी भजनों की पुस्तक से ऐसे-ऐसे धार्मिक भजन गाए कि सब भाव-विभोर हो गए और उसके बाद हिंदी फिल्मों की अंत्याक्षरी ठीक वैसे ही शुरु हुई, जैसे कि किसी पिकनिक मैं भारतवासी लोग अंत्याक्षरी खेलते हैं। ये लोग धर्म की जय के साथ-साथ हिंदी की जय के नारे भी लगा रहे थे। वहाँ पता लगा कि इनमें से ज्यादातर लोग विधि-विधान से नियमित रूप से पूजा-पाठ करते हैं। जत्थे में शामिल बहन सुरीटा सिंह, जो हिंदी बिल्कुल नहीं जानती और राशी सिंह जी जो थोड़ी बहुत हिंदी बोल लेते हैं लेकिन उनका सम्मेलन के बहाने भारत और भारतीयता से जुड़ाव अद्भुद था।
जिस प्रकार मॉरीशस में हिंदी के लिए ‘महात्मा गाँधी संस्थान’ है वैसे ही दक्षिण अफ्रीका के डरबन में ‘हिंदी शिक्षा संघ’ है। ‘हिंदी शिक्षा संघ’ की अध्यक्ष प्रोफ़ेसर उषा शुक्ला पिछले दिनों जब मुंबई आई तो उनसे कई मुद्दों पर विस्तार में चर्चा हुई। उन्होंने बताया कि हिंदी शिक्षा संघ द्वारा दक्षिण अफ्रीका में 55 स्थानों पर हिंदी पढ़ाई जाती है हिंदी शिक्षा संघ के कार्यकर्ता सेवा भाव से शिक्षण कार्य करते है। ये कार्यक्रम स्कूल समय के पश्चात अथवा साप्ताहिक रूप से चलाए जाते हैं। ‘हिंदी शिक्षा संघ’ द्वारा वहां एक रेडियो स्टेशन भी स्थापित किया गया है जहाँ हिंदी और भारतीय भाषाओं के गीत व अन्य कार्यक्रम भी प्रस्तुत किए जाते हैं। हिंदी फिल्मों के गीतों और कार्यक्रमो से वहाँ हिंदी प्रसार में बहुत मदद मिलती है। वे कहती हैं ‘हिंदी प्रसार व शिक्षण के कार्य में ‘हिंदी शिक्षा संघ’ का प्रमुख उद्देश्य भारतीय संस्कृति और संस्कारों की रक्षा है। ज्यादातर भारतवंशियों ‘रामचरितमानस’ पढ़ने और अपने धर्म और संस्कृति से जुड़ने के लिए हिंदी सीखते है। यहाँ के विश्वविद्यालय में हिंदी की विभागाध्यक्ष रह चुकीं प्रो. उषा शुक्ला बड़ी ही साफ़गोई से स्वीकार करती हैं, ‘हिंदी के प्रति जो रुझान पहले था, वैसा अब नहीं रहा। विश्वविद्यालय ने भी हिंदी विषय को अब हटा दिया है। इस कारण उन्हें अपनी सेवा के अंतिम कई वर्ष हिंदी के बजाए अंग्रेजी विषय पढ़ाना पड़ा। जो लगाव है वह भारत से और भारत की संस्कृति से है। जब भारत में ही लोग हिंदी को उतना पसंद नहीं कर रहे तो दक्षिण अफ्रीका में यह कैसे होगा?’
भारतवंशियों का सर्वाधिक प्रतिशत अगर किसी देश में है तो वह मॉरीशस में है। मॉरीशस के साहित्यकार राज हिरामन से दो बार हिंदी संगोष्ठियों में मुलाकात हुई है। चर्चा उन्होंने बताया कि वहां भी हिंदी के प्रचार का मुख्य कारण धार्मिक – सांस्कृतिक जुड़ाव ही अधिक है। इस वर्ष हिंदी साहित्य के लिए दिए जाने वाले प्रतिष्ठित इफ्फको पुरस्कार से सम्मानित मॉरीसस के साहित्यकार रामदेव धुरंधर जब मुंबई आए तो उन्होंने यहाँ आयोजित ‘वैश्विक हिंदी संगोष्ठी’ में अपने वक्तव्य में कहा, ‘मैं वहाँ शब्द बोता हूँ और भारत में उनकी फसल काटता हुँ। ‘उनके मंतव्य को आसानी से समझा जा सकता है। उन्होंने बताया कि मॉरीशस मे भी जो सुविधा –सम्मान यूरोपीय भाषा के अखबारों का है वैसा हिंदी के समाचारपत्रों का नहीं है। बात लगभग वही दिखती है जैसी कि भारत में है।
व्यापार-व्यवसाय या नौकरी के चलते पिछले पचास–सौ साल में जो लोग भारत से जा कर विदेशों में बसे उनमें सर्वाधिक संख्या यूरोप, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और खाड़ी के देशों की रही। इन देशों में हिंदी की वास्तविक स्थितियों को भी वहीं के लोगों की जुबानी बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। करीब दो वर्ष पूर्व विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर मुंबई के के.सी. कॉलेज में एक ‘वैश्विक हिंदी संगोष्ठी’ आयोजित की गई। संगोष्ठी में विद्वान वक्ता. ब्रिटेन से आए कथाकार तजेंद्र शर्मा ने स्पष्ट रूप से कहा कि यूरोप में आंकड़ों के सहारे हिंदी की जो तस्वीर बनाई जाती है, वैसा कुछ है नहीं। हिंदी मुख्यत: मंदिरों या सामाजिक-धार्मिक संगठनों के माध्यम से अपने धर्म और संस्कृति के जुड़ाव के लिए पढ़ाई जाती है और वहाँ भी कोई उत्साहपूर्ण वातावरण नहीं है। ब्रिटेन से ही पधारी हिंदी साहित्यकार श्रीमती शैल अग्रवाल जो अंग्रेजी में भी लिखती हैं, उन्होंने भी इस पर सहमति प्रकट की। मुंबई में प्राचार्य रह चुकीं और ऑस्ट्रेलिया में रहीं श्रीमती शील निगम ने बताया कि 2013 में ऑस्ट्रेलिया में यह विचार-विमर्श चल रहा था कि ऑस्ट्रेलिया में हिंदी क्यों पढ़ाई जाए ? इस संबंध में ऑस्ट्रेलिया सरकार के विदेश एवं व्यापार विभाग ने विषय पर परामर्श आमंत्रित किए, तब उनके पुत्र विनय निगम ने जो वहाँ वित्तीय सेवाओं, उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा व प्रशिक्षण के कार्यों से जुड़े हैं, अपने मित्रों सहित उन्होंने भारत-ऑस्ट्रेलिया संबंधों में हिंदी के महत्व को आधार बना कर एक लेख ऑस्ट्रेलिया सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया । अंतत: सरकार ने उनके व उनके साथियों के दृष्टिकोण को स्वीकारते हुए ऑस्ट्रेलिया में हिंदी शिक्षण के लिए अधिक धनराशि उपलब्ध करवाने पर गंभीरता से विचार और किसी तरह हिंदी जाते-जाते बची।
कनेडा से ‘प्रयास’ नामक साहित्यिक हिंदी ई-पत्रिका निकालने वाले साहित्यकार शरण घई जब भारत आते हैं तो उनसे मुलाकात होती है। वे बताते हैं कि सिक्खों की बहुलता के चलते कनेडा में पंजाबी को तो शासकीय मान्यता है पर हिंदी की कोई खास पूछ नहीं है। इंग्लैंड से मुंबई पधारी सुप्रतिष्ठित हिंदी साहित्यकार श्रीमती कादंबरी मेहरा ने कई महीने पहले जब भारत आने की सूचना दी तो उनसे भी चर्चा हुई तो उन्होंने कहा, ’इंग्लैंड और दूसरे यूरोपीय देशों में वहाँ हिंदी का इस्तेमाल वे लोग तो करते हैं जो भारत में जन्मे और बढ़-पढ़े हैं, लेकिन उनकी अगली पीढ़ियाँ अब हिंदी नहीं बोलतीं। ‘गोंडा उत्तर प्रदेश से ओमान के भारतीय समुदाय के स्कूल के हिंदी शिक्षक अशोक कुमार तिवारी नें जनवरी या फरवरी में एक संदेश भेज कर बताया कि किस प्रकार वहाँ हिंदी के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है, उसे समुचित महत्व नहीं मिल रहा। प्रो. शिवकुमार सिंह जो पुर्तगाल लिस्बन विश्वविद्यालय में कला संकाय में हिंदी पढ़ाते हैं वे बताते हैं, ‘1961 तक गोवा, दमण, दीव और दादरा नगर हवेली क्षेत्र पुर्तगाल के अधीन था और उनका भारत के साथ पांच सौ साल का साझा इतिहास है, इसके चलते भारत से जुड़ी यादें आज भी पुर्तगालियों के मन में बसी हैं। इसलिए बहुत से भारतीय मूल के पुर्तगाली अपने बच्चों को गुजराती, कोंकणी, हिंदी सिखाने की कोशिश करते हैं, कुछ के रिश्तेदार भारत में हैं और साल – दो साल में उनका भारत जाना होता है।‘ उनके अनुसार पढ़ाने के अतिरिक्त दूसरी एक चुनौती विद्यार्थियों की पर्याप्त संख्या बनाए रखना भी है ताकि शिक्षण कार्य चलता रह सके।
मुंबई में ‘वैश्विक संगोष्ठी’ के पूर्व चायपान के समय, जब तमाम देसी-विदेशी विद्वान बैठे थे, कथाकार तजेंद्र शर्मा ने एक सवाल दागा, ‘गुप्ताजी, आप भारत में हिंदी की बात करें ठीक है, पर इंग्लैंड में रह कर मुझे या मेरे बच्चों को हिंदी क्यों बोलनी या पढ़नी चाहिए? हालाँकि इस विषय पर कुछ तल्ख चर्चा हुई जिसमें वे अकेले पड़ते दिखे, लेकिन वह प्रश्न अभी भी यक्ष प्रश्न की तरह मौजूद है। विदेशों में हिंदी की स्थिति को एक और उदाहरण से समझा जा सकता है। 14 से 16 सितंबर, 2016 तक पेरिस विश्वविद्यालय, फ्रांस के एक संस्थान राष्ट्रीय प्राच्य भाषा एवं सभ्यता संस्थान (INALCO) ने विदेश मंत्रालय, भारत सरकार के सहयोग से अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें लगभग 24 देशों के लगभग 120 हिन्दी विद्वान और विभिन्न विश्वविद्यालयों के हिन्दी अध्यापक पधारे थे। लेकिन इस सम्मेलन पर वहाँ से लौट कर आए भाषाविद प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी ने क्षोभ जताते हुए कहा कि हिंदी के लिए आयोजित इस सम्मेलन में ज्यादातर आलेख अंग्रेजी में ही पढ़ गए। हिंदी के साथ इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है।
धर्म और संस्कृति के अतिरिक्त भारतवंशियों या प्रवासी भारतीयों के हिंदी से जुड़ाव का दूसरा प्रमुख कारण है, गीत-संगीत तथा साहित्य और सिनेमा। आज भी हिंदी सिनेमा भारत की तरह भारतवंशियों को हिंदी से जोड़ता है। हिंदी फिल्मों के पुराने सुरीले गीत हिंदी के प्रमुख प्रचारक रहे हैं। करीब दो वर्ष पूर्व डरबन में किसी प्रसिद्ध भारतीय हिंदी गायक का कार्यक्रम था। भारतवंशियों का उत्साह उफान पर था। हिंदी प्रेमियों का एक समूह जिनमें कइयों से मेरा परिचय था, वे कार्यक्रम में जाने क पहले, वहाँ से चलते वक्त, ऑडियोरियम में प्रवेश करने से ले कर आखिर तक वे सब तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर लगातार भेजते रहे । हिंदी गीतों का कार्यक्रम उनके लिए उत्सव की तरह था। जैसाकि मैने पहले बताया कि हिंदी फिल्मी गीतों खी अंत्याक्षरी भी वहाँ खासी लोकप्रिय है। वे भारतवंशी जो हिंदी ठीक से नहीं समझते वे ङी हिंदी गीतों में रस लेते हैं। कई बार पुराने भूले-बिसरे गीतों के वीडियो भारतवंशी देशों के मित्रों द्वारा सोशल मीडिया पर पोस्ट किए जाते हैं, जिससे उनके दिलो-दिमाग में इन गीतों के प्रति आकर्षण स्पष्ट पता लगता है। फिल्मों व धारावाहिकों के कलाकार भी इन देशों में काफी लोकप्रिय हैं। अनेक संस्थाओं द्वारा समय-समय पर इन देशों में हिंदी गीत-संगीत, भजन के साथ-साथ कवि सम्मेलनों आदि का आयोजन भी किया जाता है जो इन्हें हिंदी से जोड़ता है। जहां-जहाँ भी भारत से गए लोग बसे हैं वहाँ हिंदी सिनेमा व गीतों का खासा आकर्षण है। रूस-चीन आदि सहित अनेक देशों में हिंदी सिनेमा ने हिंदी को वहाँ लोकप्रिय बनाया है।
वैश्विक स्तर पर हिंदी के प्रसार का, हिंदी शिक्षण का एक महत्वपूर्ण कारण है वैश्विक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संबंध। भारत न केवल विपुल जनसंख्या वाला एक बड़ा देश है बल्कि एक बड़ा शक्तिशाली देश है। परस्पर आर्थिक, सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ाने के उद्देश्य से विश्व के अनेक देशों में हिंदी सीखी व सिखाई जाती है। भारत के साथ अपने राजनैतिक कूटनीतिक और आर्थिक संबंध साधने के लिए भी विश्व के अनेक देशों के लिए यह आवश्यक है कि भारत की राजभाषा हिंदी सीखें। इस उद्देश्य से भी विश्व के अनेक देशों के लोग अपने विश्वविद्यालयों में विदेशी भाषा के रूप में हिंदी का अध्ययन करते हैं या भारत में हिंदी सीखने के लिए आते हैं। संपन्न देशों के विद्यार्थी वहाँ रह कर हिंदी पढ़ने के बाद भारत आ कर उसका व्यावहारिक अभ्यास भी करते हैं। भारत में विदेशियों को हिंदी सिखाने के लिए ‘केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा‘ सहित कई संस्था में और विश्वविद्यालयों में भी इस प्रकार की सुविधाएं हैं। मुंबई में महात्मा गांधी द्वारा स्थापित ‘हिंदुस्तानी प्रचार सभा’ में भी अनेक देशों के लोग हिंदी व उर्दू सीखने के लिए आते हैं।
चीन आर्थिक और सामरिक मोर्चे केसाथ-साथ सांस्कृतिक मोर्चे पर हमें पटकनी देने और अपने हितों को साधने के लिए पिछले कुछ समय से हिंदी को अपना हथियार बना रहा हैं। इस समय चीन में हजारों जवान ऐसे हैं, जो हिंदी के कुछ वाक्य बोल और समझ सकते हैं। भारत-चीन सीमा पर तैनात चीनी जवानों को हिंदी इसलिए सिखाई जाती है कि वे हमारे जवानों और नागरिकों से सीधे बात कर सकें। उनका हिंदी-ज्ञान उन्हें जासूसी करने, भारतीय जवानों को धमकाने, चेतावनी देने, पटाने में उनकी खासी मदद करता है। चीन से भीरत में काफी आयात होता है। भारतीय आयातक व्यापारियों से संवाद के लिए भी बड़ी संख्या में चीन के लोग हिंदी सीखते और बोलते हैं। यही नहीं चीन के लगभग 20 विश्वविद्यालयों में बाकायदा हिंदी पढ़ाई जाती है।
इसी प्रकार भारत और जापान के राजनैतिक व सास्कृतिक संबंधों पर व्याख्यान देने भारत आए जापानी विद्वान तोमियो मिजोकामी से जब मुलाकात हुई तो चर्चा के दौरान उन्होंने कहा, ‘पहले हमारे देश के लोगों का भारत के प्रति कोई ज्यादा आकर्षण नहीं था। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के आगमन के बाद रिश्तों में जो गर्मी आई है, वे हिंदी में भाषण करते हैं तो हमें अच्छा लगता है। इसके चलते हिंदी के प्रति आकर्षण बढ़ा है। हिंदी से रोजगार के रास्ते भी खुले हैं इसलिए जापान के ज्यादा विद्यार्थी अब हिंदी साखने लगे हैं।‘
आज भारत विश्व का एक बहुत बड़ा बाजार है। यहां के लोगों को अपना ग्राहक बनाने के लिए और अपना मालया सेवाएं बेचने के लिए बड़ी- बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिंदी का प्रयोग करती है। इसलिए आज चीन – जापान सहित अनेक देशों के नागरिक भारत में हिंदी सीखने के लिए आ रहे हैं।मेरा जब जोहांसबर्ग जाना हुआ था तो जिस अतिथि गृह में हम रुके हुए थे उसमें बेल्जियम के भी कई लोग रुके हुए थे, जो वहां किसी डायमंड कॉन्फ्रेंस में भाग लेने के लिए आए हुए थे। नाश्ते की मेज पर जब उनसे बातचीत होने लगी। जब उन्हें पता लगा कि हम भारत से आए हैं तो उन्होंने हिंदी के साथ कुछ गुजराती का प्रयोग शुरु कर दिया। जब हमने उनसे पूछा कि आपको गुजराती या हिंदी कैसे आती है? तो उन्होंने बताया कि उनका संबंध हीरा कारोबार से है, जिसके लिए उनका भारत आना होता है। और भारत में हीरे का काम ज्यादातर गुजरात के सूरत में ही होता है। जब उनकी गुजराती व्यापारियों से बातचीत होती है तो उनके साथ बात करके वे थोड़ी हिंदी और गुजराती सीख गए हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि भारत से होने वाले व्यापार के कारण भी विश्व के अन्य देशों में हिंदी पहुंच रही है। यदि भारत के लोग भी अन्य देशों की भाषाएं सीखें और उनसे संवाद करें तो निश्चित तौर पर उनके माध्यम से भी हिंदी विश्व के अन्य देशों में पहुंचेगी।
ऊपर की गई चर्चा से निकल कर आ रहे संकेतों से यह स्पष्ट है कि विश्व में हिंदी की स्थिति को मजबूत करने के लिए हमें सर्वप्रथम भारत में हिंदी की स्थिति को मजबूत करना होगा। आज भारत में और विशेषकर हिंदी भाषी क्षेत्र में भी हिंदी व्यापार-व्यवसाय तथा शिक्षा-रोजगार आदि में निरंतर अपना स्थान गंवा रही है। उत्तर भारत के छोटे-छोटे गाँवों तक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल अपने पाँव पसार चुके हैं। एक विषय के रूप में भी हिंदी की स्थिति धीरे-धीरे दुय्यम दर्जे की हो रही है। एक समय था जब स्कूल स्तर पर तो कम से कम हिंदी ज्ञान-विज्ञान का माध्यम हिंदी होती थी, लेकिन अब तो धीरे-धीरे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के चलते भारत में भी हिंदी ज्ञान विज्ञान की भाषा नहीं रह गई है। अंग्रेजी माध्यम से निकल कर आए ज्यादातर बच्चे अब हिंदी बोलना और लिखना तक पसंद नहीं करते हैं। ऐसे में यह अपेक्षा करना कि विदेशों में भारतवंशी प्रवासी भारतीय या अन्य विदेशी लोग हिंदी का प्रयोग करेंगे यह बेमानी सा लगता है। यही कारण है कि विश्व के अनेक विश्वविद्यालय जहाँ कल तक हिंदी विषय उच्च स्तर तक पढ़ाया जाता था, अब उसे धीरे-धीरे समाप्त किया जा रहा है। विदेशों में हिंदी मुख्यतः भारतवंशियों और प्रवासी भारतीयों के बीच साहित्य संगीत, सिनेमा आदि तक सिमट कर रह गई है। और अब भारत की तरह ही वहाँ भी नई पीढ़ियां धीरे-धीरे उससे दूर होती जा रही हैं।
इस संबंध में विश्व हिंदी सचिवालय के महानिदेशक प्रो. विनोद कुमार मिश्र का यह कथन महत्वपूर्ण है,‘हिंदी को प्रतिरोध, ज्ञान और विकल्प की भाषा बनाने के लिए सभी को उपलब्ध तकनीक और संसाधनों का उपयोग करने की आदत डालनी चाहिए। हिंदी को धार्मिकता से कार्मिकता की भाषा बनाने के प्रयास करना जरूरी है। हमें बाजार का रूख देखकर हिंदी को लाल कपडे से बाहर निकालना होगा।‘
विदेशों में हिंदी के प्रसार के लिए विदेशों से अधिक देश में प्रयास किए जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। यदि भारत में हिंदी की जड़ें मजबूत होंगी तो उससे निकलने वाली मज
#डॉ.एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य