अटल सौभाग्य चाहने के लिए आदिकाल से महिलाएं भगवान शंकर और पार्वतीजी की सच्चे मन से पूजा-अर्चना कर खीर-पूड़ी,दाल-भात का भोग लगाकर उनसे जीवन दाम्पत्य जीवन एवं परिवार की सुख समृद्धि,वंशवृद्धि का वरदान मांगती हैं। गणगौर पर्व के शुभारंभ को लेकर भिन्न-भिन्न मान्यताएं सामने आती हैं। कुछ का मानना है कि,इसकी शुरुआत राजस्थान से हुई, जबकि कुछ इसे मध्यप्रदेश से प्रारंभ होने की बात करते हैं। कहते हैं कि, पंचमढ़ी के चौरागढ़ के निकट गढ़ भंवरा में पांच भाई रहते थे जिनमें राणा कालकुमई, राणा भोगी,राणा रैनण (देव भीलट के पिता),राणा संभार और राणा रुणजुण हुए। इनमें से राणा भोगी की पत्नी काजल रानी हुई, उनके घर कोई संतान नहीं थी तो निकट गवलपुर के लोगों ने उनके लिए मन्नत ली। तब रानी काजल ने अपनी हथेली पर सात दिनों तक गेहूँ के जवारे उगाकर रखे। बाद में उनकी पूजा-अर्चना की गई। खीर-पूड़ी का प्रसाद रानी को दिया गया,तब उन्हें संतान सुख प्राप्त हुआ और उनके घर देवराजल के रूप में पुत्र रत्न हुआ। तभी से यह पर्व परम्परागत रूप से मनाया जाता है। इस वर्ष इस पर्व की शुरुआत बुधवार २२ मार्च को मूठ रखने(जवारे बोने) के साथ शुरु होगी,इसके बाद २९ मार्च को वाड़ी पूजन एवं जोड़े जीमने का कार्यक्रम होगा तथा ३० मार्च को रथ बोराए जाएगे। ३१ मार्च को रात्रि में समय जवारे नर्मदाजी में विसर्जित किए जाएंगे। एक कहानी यह भी है कि,एक बार भगवान शंकर तथा पार्वतीजी नारदजी के साथ भ्रमण को निकले। चलते-चलते वे चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन एक गाँव में पहुँच गए। उनके आगमन का समाचार सुनकर गाँव की श्रेष्ठ कुलीन स्त्रियाँ उनके स्वागत के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं। भोजन बनाते-बनाते उन्हें काफी विलंब हो गया,किन्तु साधारण कुल की स्त्रियाँ श्रेष्ठ कुल की स्त्रियों से पहले ही थालियों में हल्दी तथा अक्षत लेकर पूजन हेतु पहुँच गर्इं। पार्वतीजी ने उनके पूजा भाव को स्वीकार करके सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया। वे अटल सुहाग प्राप्ति का वरदान पाकर लौटीं। तत्पश्चात उच्च कुल की स्त्रियाँ अनेक प्रकार के पकवान लेकर गौरीजी और शंकरजी की पूजा करने पहुँचीं। सोने-चाँदी से निर्मित उनकी थालियों में विभिन्न प्रकार के पदार्थ थे। उन स्त्रियों को देखकर भगवान शंकर ने पार्वतीजी से कहा-तुमने सारा सुहाग रस तो साधारण कुल की स्त्रियों को ही दे दिया,अब इन्हें क्या दोगी? पार्वतीजी ने उत्तर दिया- प्राणनाथ! आप इसकी चिंता मत कीजिए। उन स्त्रियों को मैंने केवल ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया है। इसलिए उनका रस धोती से रहेगा, परंतु मैं इन उच्च कुल की स्त्रियों को अपनी उँगली चीरकर अपने रक्त का सुहाग रस दूँगी। यह सुहाग रस जिसके भाग्य में पड़ेगा वह तन-मन से मुझ जैसी सौभाग्यवती हो जाएगी। जब स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर दिया, तब पार्वतीजी ने अपनी उँगली चीरकर उन पर छिड़क दी। जिस पर जैसा छींटा पड़ा,उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। तत्पश्चात् भगवान शिव की आज्ञा से पार्वतीजी ने नदी तट पर स्नान किया और बालू की शिव-मूर्ति बनाकर पूजन करने लगीं। पूजन के बाद पकवान बनाकर शिवजी को भोग लगाया। प्रदक्षिणा करके नदी तट की मिट्टी में माथे पर तिलक लगाकर दो कण बालू का भोग लगाया। इतना सब करते-करते पार्वती को काफी समय लग गया। काफी देर बाद जब वे लौटकर आर्इं तो महादेवजी ने उनसे देर से आने का कारण पूछा। उत्तर में पार्वतीजी ने झूठ ही कह दिया कि वहाँ मेरे भाई-भावज आदि मायके वाले मिल गए थे। उन्हीं से बातें करने में देरी हो गई,परंतु महादेव तो महादेव ही थे। वे कुछ और ही लीला रचना चाहते थे। अतः उन्होंने पूछा-पार्वती! तुमने नदी के तट पर पूजन करके किस चीज का भोग लगाया था और स्वयं कौन-सा प्रसाद खाया था? स्वामी! पार्वतीजी ने पुनः झूठ बोल दिया-मेरी भावज ने मुझे दूध-भात खिलाया। उसे खाकर मैं सीधी यहाँ चली आ रही हूँ। यह सुनकर शिवजी भी दूध-भात खाने की लालच में नदी-तट की ओर चल दिए। पार्वती दुविधा में पड़ गर्इं। तब उन्होंने मौन भाव से भगवान भोले शंकर का ही ध्यान किया और प्रार्थना की-हे भगवान! यदि मैं आपकी अनन्य दासी हूँ, तो आप इस समय मेरी लाज रखिए। यह प्रार्थना करती हुई पार्वतीजी भगवान शिव के पीछे-पीछे चलती रहीं। उन्हें दूर नदी के तट पर माया का महल दिखाई दिया। उस महल के भीतर पहुँचकर वे देखती हैं कि वहाँ शिवजी के साले तथा सलहज आदि सपरिवार उपस्थित हैं। उन्होंने गौरी तथा शंकर का भाव-भीना स्वागत किया। वे दो दिनों तक वहाँ रहे। तीसरे दिन पार्वतीजी ने शिव से चलने को कहा,पर शिवजी तैयार न हुए। वे अभी और रुकना चाहते थे। तब पार्वतीजी रुठकर अकेली ही चल दीं। ऐसी हालत में भगवान शिवजी को पार्वती के साथ चलना पड़ा। नारदजी भी साथ-साथ चल दिए। चलते-चलते वे बहुत दूर निकल आए। उस समय भगवान सूर्य अपने धाम(पश्चिम) को पधार रहे थे।अचानक भगवान शंकर पार्वतीजी से बोले-मैं तुम्हारे मायके में अपनी माला भूल आया हूँ। ठीक है,मैं ले आती हूँ। पार्वतीजी ने कहा और जाने को तत्पर हो गई,परंतु भगवान ने उन्हें जाने की आज्ञा न दी और इस कार्य के लिए ब्रह्मपुत्र नारदजी को भेज दिया, परंतु वहाँ पहुँचने पर नारदजी को कोई महल नजर न आया। वहाँ तो दूर तक जंगल ही जंगल था,जिसमें हिंसक पशु विचर रहे थे। नारदजी वहाँ भटकने लगे और सोचने लगे कि,कहीं वे किसी गलत स्थान पर तो नहीं आ गए? मगर सहसा ही बिजली चमकी और नारदजी को शिवजी की माला एक पेड़ पर टँगी हुई दिखाई दी। नारदजी ने माला उतार ली और शिवजी के पास पहुँचकर वहाँ का हाल बताया। शिवजी ने हँसकर कहा-नारद! यह सब पार्वती की ही लीला है। इस पर पार्वती बोलीं-मैं किस योग्य हूँ। तब नारदजी ने सिर झुकाकर कहा-माता! आप पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप सौभाग्यवती समाज में आदिशक्ति हैं। यह सब आपके पतिव्रत का ही प्रभाव है। संसार की स्त्रियाँ आपके नाम-स्मरण मात्र से ही अटल सौभाग्य प्राप्त कर सकती हैं और समस्त सिद्धियों को बना तथा मिटा सकती हैं। तब आपके लिए यह कर्म कौन-सी बड़ी बात है? महामाये! गोपनीय पूजन अधिक शक्तिशाली तथा सार्थक होता है। आपकी भावना तथा चमत्कारपूर्ण शक्ति को देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मैं आशीर्वाद रूप में कहता हूँ कि जो स्त्रियाँ इसी तरह गुप्त रूप से पति का पूजन करके मंगलकामना करेंगी,उन्हें महादेवजी की कृपा से दीर्घायु जीवन वाले पति का साथ मिलेगा।
#चम्पालाल गुर्जर
परिचय : चम्पालाल गुर्जर का जन्म खंडवा जिले के सिंगाजी धाम के निकट ग्राम गहेलगांव में २२ फरवरी १९६३ को कृषक चिंताराम गुर्जर के घर हुआ। प्राथमिक शिक्षा यहीं लेकर आप १९८३ में इन्दौर आईटीआई में प्रशिक्षण लेने आए। इन्दौर में बीए की शिक्षा प्राप्त करके आप दैनिक समाचार-पत्र में लगभग २५ वर्षों तक कार्यरत रहे। इंदौर में रहकर आप खुद का समाचार-पत्र निकालने के साथ ही सामाजिक एवं धार्मिक कार्यक्रमों में सक्रिय हैं।
रोचक रचना !!