हृद मेरा भी कंपित होता है।
हर आहट पर आशंकित होता है।
कातर चछु को मै पढता हूँ,
जो भूख तपन से नित रोता है।
स्त्री के फटे वस्त्र तले जब,
यह पागल जन चछु तन छूता है।
उद्गारित हो उठता है हृद तब,
सच धीरज आपा खोता है।
बारिस की वहाँ खुमारी क्या,
जहाँ स्वप्न बूँद रूप में चूता है।
भाई-भाई का मल्ल युद्ध,
मानव खुद मानव से छुपता है।
“फुटपाथो” पर पले जिन्दगी,
“नालो” से ही खाता पीता है।
इंसानियत का दिल दहल जाये,
जब कुहरे की चादर ले सोता है।
दूर देश का सौदा करने पर,
“खाकी-खद्दर” का न्यौता है।
गरीबी के कल-कारखाने में तब,
“हवा” बस खाने पीने में होता है।
“तन को बचाने में बदन बिका”,
“रोटी”के खातिर ही सोता है।
“सच की जुबान” आखिर यहां,
“पटाखो” में ही दब जाता है।
“खाकी” जब छींन लेती कटोरा,
तब “भिखारी” कितना रोता है।
अखबार की सुर्खी पर आहत आँखे,
कि रोज कितनो का “रेप” होता है।
“एक बूढे ने मासूम की इज्जत लूटी”,
बाइज्जत बरी क्यूँकि वह “नेता” है।
जब काट दी जाती है सच की जुबान,
मन अहक-अहक कर रोता है।
पता नही “मिलिंद” क्या लिख रहा,
बस “एहसास सत्य का” होता है।
#मिथलेश सिंह “मिलिंद”
आजमगढ़(उत्तरप्रदेश)