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क्या इसे ‘न्यू इंडिया’ की असली तस्वीर मानें कि बीते 24 महीने में देश की एक और अभिजात संस्था सीबीआई ( सेन्ट्रल ब्यूरो आॅफ इन्वेस्टीगेशन) भी गहरे संदेह के दायरे में आ गई है ? संवैधानिक संस्थाअों की विश्वसनीयता में गिरावट और अराजकता की शुरूआत निर्वाचन आयोग से हुई, जो भारतीय रिजर्व
बैंक फिर सुप्रीम कोर्ट और अब सीबीआई तक आन पहुंची है। जो हो रहा है, उसे देखकर लगता है कि या तो सरकार को इन सब की कोई चिंता ही नहीं है या फिर इन्हें संभालना उसके बस में नहीं है, अथवा वह खुद ही चाहती है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का हर घटक संदिग्ध होकर अपनी विश्वसनीयता खो बैठे और देश का ध्यान बुनियादी मुद्दों से भटका रहे। इस अफरातफरी के माहौल में सत्ता पर िफर से काबिज होने का नया राजनीतिक चक्रव्यूह रचा जा सके।
इनमें भी सीबीआई में जो रहा है वह अभूतपूर्व और अकल्पनीय है। क्योंकि वह देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी है। ‘सत्ता का तोता’ कहलाने के बाद भी उसकी एक विश्वसनीयता और दंबगई रहती आई है। सीबीआई का गठन अंग्रेजों ने द्वतिीय विश्व युद्ध के समय 1941 में आर्थिक भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए किया था। तब इसका नाम दिल्ली पुलिस स्पेशल एस्टाब्लिशमेंट था। इसी नाम से एक एक्ट भी 1946 में बना। इसे सीबीआई नाम 1963 में मिला। यह आर्थिक के साथ साथ फौजदारी अपराधो की भी सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण जांच एजेंसी बन गई। बोफोर्स रिश्वत कांड, टू जी स्कैम, कोयला घोटाला, हवाला कांड, चारा घोटाले जैसे कई बड़े घोटालों और अन्य गंभीर तथा जटिल अपराधों की जांच सीबीआई ने की है। इसके द्वारा दोषियों को सजा दिलाने दर भी 60 फीसदी से ज्यादा ही रही है। सुप्रीम कोर्ट जैसी न्याीियक संस्थाएं तथा सरकारें भी उलझे हुए मामलों की जांच सीबीआई से ही कराती रही हैं। सीबीआई की कुल 7 शाखाएं है, जो अलग अलग मामलों की जांच करती हैं। इसका बजट करीब 698 करोड़ है और संस्था के साढ़े 6 हजार से ज्यादा कर्मचारी अधिकारी अपने काम को अंजाम देते हैं। सीबीआई में अधिकारी भारतीय पुलिस सेवा तथा भारतीय राजस्व सेवा से लिए जाते हैं। सीबीआई में नियुक्ति प्रतिष्ठा की बात मानी जाती रही है। हालांकि सीबीआई पर दबी जबान से सरकार के इशारे पर काम करने, उसी मुतािबक जांच को मोड़ देने तथा रिश्वतखोरी के आरोप पहले भी लगते रहे हैं, लेकिन इनका कोई ठोस प्रमाण नहीं था।
अब जो सीबीआई में हो रहा है, उसके प्रमाण तो खुद भ्रष्टाचार में घिरे सीबीआई के आला अफसर ही दे रहे हैं। सीबीआई में शीर्ष स्तर पर शर्मनाक विवाद की शुरूआत सीबीआई में पिछले साल गुजरात काडर के अफसर राकेश अस्थाना की स्पेशल डायरेक्टर पद पर नियुक्ति से हुई। आलोक वर्मा इसके पक्ष में नहीं थे, क्योंकि अस्थाना का पूर्व रिकाॅर्ड संदिग्ध था। फिर भी सरकार ने अस्थाना को वहां नियुक्त किया। इस साल अगस्त में अस्थाना ने सीवीसी ( केन्द्रीय सतर्कता आयोग) और कैबिनेट सेक्रेटरी को शिकायत कर डायरेक्टर आलोक वर्मा तथा एडीशनल डायरेक्टर एके शर्मा के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार की डीटेल दी। अस्थाना ने दावा किया कि मोइन कुरैशी केस में कुरैशी को बचाने के लिए बिजनेस मैन सतीश सना द्वारा वर्मा को 2 करोड़ की रिश्वत दी गई। उन्होंने यह भी कहा कि वर्मा ने उन्हें सना को गिरफ्तार करने से रोका। उधर वर्मा ने कुरैशी मामले की जांच का काम एके शर्मा को सौंप दिया।
इस बीच सना को सीबीआई ने गिरफ्तार किया और उसने मजिस्ट्रेट के सामने बयान दिया िक स्पेशल डायरेक्टर अस्थाना को 3 करोड़ रू. बतौर रिश्वत दिए हैं। इसके बाद सीबीआई ने अपने ही अफसर अस्थाना के खिलाफ केस दर्ज किया। उसने अपने ही मुख्याबलय पर छापे मारे, अस्थाना से सारे अधिकारी छीन लिए और एक और जांच अधिकारी देवेन्द्र कुमार को रिश्वतकांड में गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद केन्द्र सरकार की नींद खुली। उसने ताबड़तोड़ तरीके से दोनो डायरेक्टरो समेत 11 अफसरों को हटाया तथा एम. नागेश्वर राव को अंतरिम डायरेक्टर बनाकर पूरे मामले की नई जांच शुरू कर दी। उधर हटाए गए दोनो आला अफसर कोर्ट पहुंचे। आलोक वर्मा ने तो सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में साफ कहा कि सीबीआई सरकार के दबाव में काम कर रही है।
सीबीआई की यह आंतरिक जूतमपैजार राजनीतिक मुद्दा बन गई। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से सीधा आरोप लगाया कि राफेल घोटाले की शिकायत में रूचि लेने के कारण डायरेक्टर वर्मा को मोदी सरकार ने हटाया तो ममता बैनजी ने सीबीआई को बीबीआई( बीजेपी ब्यूरो आॅफ इ्न्वेस्टीगेशन) बताया। वर्मा को हटाने पर भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी अलग भड़के। बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा कि इस घटनाक्रम से सीबीआई पर से लोगों का भरोसा डगमगा गया है। बौराई सरकार के वित्त मंत्री अरूण जेटली ने सफाई दी कि सरकार ने सारी कार्रवाई सीवीसी की सलाह पर की है। ताकि सीबीआई की निष्पक्षता अौर साख को बचाया जा सके।
असली सवाल भी यही है कि जब इतना नंगा नाच हो चुका है तो सीबीआई की साख बचाने के लिए सरकार के पास अब बचा क्या है? जब आला अफसर ही खुले आम कह रहे हों कि वे सरकार के इशारों पर काम करते हैं तो किस बात की निष्पक्षता बचाने की बात हो रही है ? जो घट रहा है, वह बेहद चिंताजनक इसलिए भी है कि हमने पहले निर्वाचन आयोग को ईवीएम की विश्वसनीयता तथा चुनाव तारीखों की घोषणा में सत्तारूढ़ दल के राजनीतिक हितों के प्रति ‘साॅफ्ट कार्नर रखने’ के आरोपों पर असहाय होते देखा। फिर नोटबंदी और सरकारी बैंकों को लूटने के आरोपियों को आराम से विदेश भागने के मामले में रिजर्व बैंक की बेबसी देखी। वह आज तक नहीं बता पाई कि नोटबंदी से देश को आखिर फायदा क्या हुआ ? कितना काला धन उजागर हुआ? इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के जजों को सीजेआई के एकाधिकारवाद और तानाशाही रवैए के खिलाफ सड़कों पर आना पड़ा। यह भी स्वतंत्र भारत के इतिहास की अभूतपूर्व घटना थी।
अब सीबीआई की इज्जत तार-तार हो रही है। जब सीबीआई में सर्वोच्च स्तर पर भी इतना भ्रष्टाचार ( जैसे कि आरोप लगे हैं) है तो जनता किस पर भरोसा करे? केन्द्र सरकार अपने बचाव में यह बोदा तर्क दे सकती है कि सीबीआई को लेकर विवाद तो पहले भी होते रहे हैं, यह कोई नई बात नहीं है। ठीक है, लेकिन इस प्रतिष्ठित संस्था में ऐसी खुली तलवारबाजी भी पहले कभी नहीं हुई थी। अगर सरकार को पता था कि वहां यह सब चल रहा है तो इस नासूर को इतना पकने क्यों दिया गया? या फिर उसका मिशन कुछ और था?
एक आम नागरिक के मन में शक की कई परतें हैं। पहला तो यह कि जब चौतरफा ‘सुशासन’ के दावे हैं तो यह सब क्यों और कैसे हो रहा है? या फिर यह सब ‘सुशासन’ की स्वनिर्मित परिभाषा के बाहर के उपक्रम हैं? दूसरे, जब ‘न खाऊंगा और न ही खाने दूंगा’ जैसे बहुप्रशंसित और बहुअपेक्षित जुमले हैं तो सीबीआई में शीर्ष अफसर खुलेआम रिश्वत लेने-देने के आरोप क्यों लगा रहे हैं? आजकल टीवी न्यूज चैनलों पर दरोगा स्तर के पुलिस अफसरों के बीच भी अवैध वसूली के बंटवारे को लेकर हाथापाई के वीडियो वायरल होना आम बात है। तो क्या उनमें और आला सीबीआई अफसरों में फरक केवल इतना है कि यहां ‘वसूली’ का आंकड़ा कुछ सौ में न होकर करोड़ो में है ? राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप अपनी जगह हैं, लेकिन एक आम भारतीय होने के नाते मन में डर इस बात का है कि साख खोने वाली संवैधानिक संस्थाअों में अगला नंबर अब किसका है?
#अजय बोकिल
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