बरसों से जिस दस्यू मानसिकता के चलते अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों पर शारीरिक और मानसिक अत्याचार हुए उनसे उपजी हताशा और निराशा को कम करने देश के संविधान ने उन्हें कुछ विशेष सहुलियतें दी। आजादी से पहले गुलामी के जिस दर्द को हर भारतीय सहता था, आजादी मिलने के बाद कहीं ना कहीं उस दर्द का भार उस वर्ग पर आगया जो सालों से उसे ढोये जा रहा था। लेकिन समय के साथ परिस्थितियां बदलती रही और सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर किए गए प्रयासों से आज आजादी के 7 दशक बाद वो वक़्त आ गया है जब देश के अछूत, पिछड़े, दरिद्र समझे जाने वाले वर्ग ने परिवर्तन की लहरों पर तैरना सीख ही लिया है । बेशक यहां तक आने में लंबी लड़ाइयां चाहे वो सामाजिक, आर्थिक हो या फिर स्वयं से लड़ी गई और उनमें बहुत हद तक विजय भी पा ली है लेकिन इस जीत में उन वर्गों का समर्पण, त्याग और बलिदान है जिसे आज सवर्ण या अन्य कहा जा रहा है। जो अपने समर्पण भाव के लिए एक तरफ तो प्रशंसा का पात्र है मगर ये भी नहीं भूले कि दलितों के प्रति भेदभाव का इनका रवैया भी सही नहीं ठहराया जा सकता।
महात्मा गांधी और ज्योतिबा फूले ने जिस सामाजिक सौहाद्र और सहयोग के समाज का सपना देखा था उस हम में से ही कई लोगों के द्वारा अपनाए गए उंच नीच के व्यवहार से ठेस पहुंची है मगर गांधी और फूले के आदर्श आज भी इसी समाज के कई लोगों के व्यवहार में है जो इस देश को उस मुकाम पर ले जाने की होड़ में है जिसका सपना उन महापुरुषों ने देखा था।
बात शायद थोड़ी लम्बी लगे लेकिन 2 अप्रैल को हुए दलित संगठनों के प्रदर्शन और 6 सितंबर को सवर्णों के भारत बंद ने ये साबित कर दिया कि हिंदुस्तान की वर्तमान पीढ़ी उन प्रतिमानों को अब व्यवहार में नहीं लाएगा और ना ही भेदभाव को स्वीकार करेगा चाहे सामाजिक स्तर पर हो या आर्थिक स्तर पर। भारतीय समाज में फैली असमान सम्मान की इस भावना का परिणाम तो एक दिन ये होना ही था। चुकी ये दोनों ही घटनाएं आंदोलन की श्रेणी में नहीं रखी जा सकती क्योंकि हिंसा और स्वयं के देश के संसाधनों को वैमनस्यता की भेंट चढ़ाकर अपने लिए आवाज उठाना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की परिभाषा के अस्तित्व पर सवाल उठाने जैसा है।
लोकतंत्र में सबके लिए स्थान है चाहे वो जिस भी जाति, धर्म, संप्रदाय से ताल्लुक रखता हो बशर्तें वो अपने नागरिक अधिकारों की मांग के साथ साथ नागरिक कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करता हो।
खैर अपने हक की आवाज बुलंद करना सबका अधिकार है जो सवर्ण समाज और संगठनों ने उठाई चाहे दलितों ने बशर्तें किसी और को नुकसान पहुंचाए।
2 अप्रैल और 6 सितंबर के भारत बंद का आधार एक ही है SC-ST एक्ट मगर फर्क उसके दो पहलुओं का है। चुकी जिस प्रारूप ये कानून है उसका लाभ दलितों को मिलता है तो कई बार इसका दुरुपयोग भी दलितों या अन्य लोगों द्वारा दलितों को मोहरा बनाकर उठाया गया है जिसके शिकार लोगों में कई वर्षों से गुस्सा व्याप्त था। जो अब खुलकर सामने आ रहा है लेकिन गुस्से के पीछे किसी वर्ग के हालात भी देख लिए जाने चाहिए ताकि उनको दिए जाने वाले अधिकारों के प्रति द्वेष रखने के बजाए संविधान की मंशा और मुख्य धारा में लाने के प्रयास समाहित है। मगर इसका मतलब कतई नहीं की किसी को ऊपर उठाने के लिए दूसरे के कंधे पर इतना बोझ डाल दिया जाए कि उसे ढोना उसके बस से बाहर हो जाए।
कहने का सार है कि राजनीतिक विचारधारा या फिर किसी के व्यक्तिगत लाभ के चक्कर में हिंदुस्तान की साझा विरासत को यूं पैरों तले ना कुचलिए। सरकार को भी चाहिए कि किसी भी प्रकार का आरक्षण या अन्य लाभ जातिगत होने के बजाए जरूरत के आधार पर करे ताकि वंचितों को लाभ मिले ना कि अधिकारों का दुरुपयोग हो
सबके विचारों और उनके अधिकारों का सम्मान कीजिए।
महान दार्शनिक वाल्टेयर ने भी कहा है कि भले मै आपके विचारों से सहमत ना रहू फिर भी आपके विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता की रक्षा करेगा । जैसा सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता की वैधानिकता पर फैसला देते हुए सहमति से वयस्कों के बीच संबंध बनाने को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा और खास बात जो कहीं की देश में सबको समानता का अधिकार है उन्हें सम्मान से जीने का हक है, अगर उसमें समाज की सोच आड़े आती है तो ऐसी सोच को बदलना होगा।
परिचय : सुनील रमेशचंद्र पटेल इंदौर(मध्यप्रदेश ) में बंगाली कॉलोनी में रहते हैंl आपको काव्य विधा से बहुत लगाव हैl उम्र 23 वर्ष है और वर्तमान में पत्रकारिता पढ़ रहे हैंl