‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ जैसे ध्येय वाक्य को मनुस्मृति से समाज के चिंतन में शामिल कर स्त्रीत्व को गौरव प्रदान करने वाली भारतीय संस्कृति आज जिस चौराहे पर खड़ी है, वहां इस बात को पुन: विचार करना होगा कि हमने क्या किया, क्या पाया- क्या खोया। ख़बरों से जुड़े रहने के कारण कुछ ऐसी भी खबर आ जाया करती है जो सोचने समझने पर मजबूर कर देती है। बिहार के भोजपुर ज़िले के बिहिया शहर में भीड़ ने एक महिला को निर्वस्त्र कर घंटों घुमाने का मामला सामने आया है और पुलिस के मुताबिक भीड़ को इस महिला पर 19 साल के एक युवक की हत्या में शामिल होने का संदेह था। आखिर जुर्म भी मान लिया जाए तो सजा देने वाली जनता कौन? और सजा भी इस तरह की इंसानियत शर्मसार हो जाये और सभ्यता नंगी?
खबर जब बुद्ध के बिहार से आई तो शर्मसार मानवता और बुद्ध के उसूल हो गए, और शांति के संदेशवाहक की निजी जमीं आज संस्कार विहीन समाज गढ़ चुकी, इस बात में कोई अतिश्योक्ति या संदेह नहीं है। सृष्टि की प्रथम सृजक को इस तरह नग्न करके रास्तों पर दौड़ा कर कौन-सी मानवता और इंसानियत का परिचय दिया जा रहा, कौन से संस्कारों का तर्पण किया जा रहा है?
मानवता का पाठ सम्पूर्ण विश्व को पढ़ाने वाली भारतीय संस्कृति सनातन से ही स्त्री सम्मान की वकालत तो करती रही है, किन्तु जब राष्ट्र में इस तरह की घटनाएं होती तो मन व्यथित ही नहीं होता, बल्कि अंदर तक टूट जाता है। आखिर किस पथ पर ये राष्ट्र चल पड़ा है? किस मार्ग का अनुसरण कर हमने वेदमयी संस्कारवादी संस्कृति की इज्जत को सम्पूर्ण विश्व में पलीता लगा रहे है?
क्या समाज से चिंतन और संस्कार गौण हो गए या शिक्षा पद्धति अब स्त्री विमर्श और नारी का सम्मान नहीं सिखाती ? कई सवालों से घिरी हुई इस घटना के साथ ही देश में लगतार हो रहे दुष्कर्म इसी बात का इशारा कर रहे है कि समय की पराकाष्ठा पर जाकर हमारा समाज वैश्विक प्रगति का खोखला स्वांग तो रच ले रहा है परन्तु मूल्य आधारित जीवनशैली और संस्कार आधारित शिक्षा पर उतना ही खोखला होता जा रहा है।
समाज से चिंतन की लकीरे चिंता में तब बदलना चाहिए जब समाज सम्पूर्ण प्रगति की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं के सामने बौना साबित हो रहा हो, और ऐसी स्थिति में दोष शिक्षा पद्धति के साथ-साथ संस्कारशालाओं का भी माना जाना चाहिए, परिवार में संस्कार सिंचन मौन हो गया है, उसे फिर से स्थापित करना होगा। कमर के नीचे वार करने वाली राजनीती से भी बचना चाहिए, कहीं न कहीं ये घटना पर भी राजनैतिक मंशा दिखाई देती है।
इन सब संभावनाओं के अतिरिक्त समाज को पुनर्गठन की और बढ़ना होगा, वर्ना एक समय आएगा जब विश्वगुरु रहने वाली संस्कृति तहस-नहस होकर अपने अस्तित्व को उसी तरह खोजेगी जिस तरह बाढ़ की तबाही के बाद एक झोपडी में परिवार खाना बनाने के लिए बर्तन ढूंढ़ता है। समय के साथ भारतीय को पुन: बचाना होगा और सांस्कृतिक सामंजस्य के साथ स्त्री सम्मान को बचाना होगा।
#डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’
अंतरताना:www.arpanjain.com
[ लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं ]
परिचय : डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ इन्दौर (म.प्र.) से खबर हलचल न्यूज के सम्पादक हैं, और पत्रकार होने के साथ-साथ शायर और स्तंभकार भी हैं। श्री जैन ने आंचलिक पत्रकारों पर ‘मेरे आंचलिक पत्रकार’ एवं साझा काव्य संग्रह ‘मातृभाषा एक युगमंच’ आदि पुस्तक भी लिखी है। अविचल ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में स्त्री की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा है। इन्होंने आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता का आधार आंचलिक पत्रकारिता को ही ज़्यादा लिखा है। यह मध्यप्रदेश के धार जिले की कुक्षी तहसील में पले-बढ़े और इंदौर को अपना कर्म क्षेत्र बनाया है। बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (कम्प्यूटर साइंस) करने के बाद एमबीए और एम.जे.की डिग्री हासिल की एवं ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियों’ पर शोध किया है। कई पत्रकार संगठनों में राष्ट्रीय स्तर की ज़िम्मेदारियों से नवाज़े जा चुके अर्पण जैन ‘अविचल’ भारत के २१ राज्यों में अपनी टीम का संचालन कर रहे हैं। पत्रकारों के लिए बनाया गया भारत का पहला सोशल नेटवर्क और पत्रकारिता का विकीपीडिया (www.IndianReporters.com) भी जैन द्वारा ही संचालित किया जा रहा है।