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मेरा चांद बहुत शर्मीला है ,
चांद रातों को भी दीदार नहीं होते ।
जो आ जाता तू एक बार आसमां में,
हर शब हम यूं बीमार नहीं होते ।।
तेरे इश्क की चांदनी में डूबे हैं,
अंधियारी रात के शिकार नहीं होते।
लुका छिपी तेरी आदत बन गई है,
तेरे इस खेल के हिस्सेदार नहीं होते ।।
वो चांद फ़लक पर इतराता बहुत है,
मेरा चांद जमीं पर इठलाता बहुत है
रुबरु होता हूं मैं उसके जब भी,
वो ख़ामोशी से मुस्कुराता बहुत है ।
अदाओं से करता है वार मुझ पर,
पास मेरे हथियार नहीं होते ।
लिपटना चाहता है जब वो हमसे,
उस वक्त मग़र हम तैयार नहीं होते।
#डॉ.वासीफ काजी
परिचय : इंदौर में इकबाल कालोनी में निवासरत डॉ. वासीफ पिता स्व.बदरुद्दीन काजी ने हिन्दी में स्नातकोत्तर किया है,साथ ही आपकी हिंदी काव्य एवं कहानी की वर्त्तमान सिनेमा में प्रासंगिकता विषय में शोध कार्य (पी.एच.डी.) पूर्ण किया है | और अँग्रेजी साहित्य में भी एमए कियाहुआ है। आप वर्तमान में कालेज में बतौर व्याख्याता कार्यरत हैं। आप स्वतंत्र लेखन के ज़रिए निरंतर सक्रिय हैं।
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