तेरे प्रेम की गर गली जो न होती
दिले चोट हम कैसे खाकर के जीते —
न होता तेरा गर ये इश्के समन्दर
तो प्यासों को कैसे बुझाकर के जीते —
न होता तेरे प्रेम का ये तराना
तरन्नुम को हम कैसे गाकर के जीते–
अफ़साना होता जो गर उल्फतों का
दास्ताए मोहब्बत सुनाकरके जीते –-
कुमुदनी न होती जो गर महफ़िलो की
तो गैरों के घर हम न जाकरके जीते –-
न होता समन्दर में गर तेरे पानी
सुखी नदियों में नावे चला करके जीते –-
ऐ दिले वेवफा जो न करती वफा
बिन तेरे हम न महफिल सजा करके जीते –-
जो न होता तेरे मन के मंदिर में मैं
शान से सर को अपने उठाकरके जीते –-
तुम जो रोशन न करती हमारी गली
हम चिरागों को अपने जलाकरके जीते –-
पिलाती जो न आज एक बूंद पानी
पपीहे सा हम तड़फडाकरके जीते –
होती न जो तेरी जन्नत सी वादी
तो हम सुनी गलियों में आकरके जीते
जो न होता तेरा ये उपकार हमपे
तो फिर मौत को हम सजा करके जीते !!
परिचय: शिवानंद चौबे की जन्मतिथि-१२ अगस्त १९९० है। आपका वर्तमान निवास राज्य उत्तर प्रदेश में ग्राम महथुआ (जिला-भदोही)है। समाजशास्त्र में एम.ए. के बाद अभी एमबीए(त्रिपुरा) जारी है। कार्यक्षेत्र-शिक्षण ही है। उपलब्धि यह है कि,नेहरू युवा केन्द्र में राज्य प्रशिक्षक( भारत सरकार) हैं। राष्ट्रीय भाषण प्रतियोगिता में जिला स्तरीय विजेता रहे हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-सबकेबीच सदाचार और प्रेम बनाए रखना तथा समाज हित की बात सामने लाना है।