तब कविता जन्म लेती ………

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arun kumar

जब अपरिमित शून्य में मन को मिले सोते गरल के

लेखनी के अश्रु छलके , सिंधु ज्यों नमकीन जल के
शुभ्र कागज का धरातल , सावनी सपने सँजोये

भावना हल को चलाये , अक्षरों के बीज बोये

रूप धरते भाव सारे , खेत में तब कृषक-दल के

लेखनी के अश्रु छलके……
गीत के बिरवा सुकोमल , पर्ण शब्दों से सजाये

सुमन छंदों के खिले ऋतुराज आये या न आये

सुख तितलियाँ, दु:ख भ्रमर तो पाहुने दो-चार पल के

लेखनी के अश्रु छलके……
इस धरातल से अलग ही, कौन सा है वह धरातल

साधना तप ध्यान में मन , डूब जाता है ये चंचल

जब मथा जाता समुन्दर , रत्न आते हैं निकल के

लेखनी के अश्रु छलके……
अंत है अस्तित्व खोता , दरकती सीमा तनय की

नव-सृजन की पीर में जब,बाँसुरी बजती समय की

तब कविता जन्म लेती , दूर होते हैं धुँधलके

लेखनी के अश्रु छलके……

अरुण कुमार निगम
दुर्ग छत्तीसगढ़

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