​भारतीय वर्णमाला की संकल्पना !

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भारतीय भाषा, भारतीय लिपियाँ, जैसे शब्दप्रयोग हम कई बार सुनते हैं, सामान्य व्यवहार में भी इनका प्रयोग करते हैं। फिर भी भारतीय वर्णमाला की संकल्पना से हम प्रायः अपरिचित ही होते हैं। पाठशाला की पहली कक्षा में अक्षर परिचय के लिये जो तख्ती टाँगी होती है, उस पर वर्णमाला शब्द लिखा होता है। पहली की पाठ्यपुस्तक में भी यह शब्द होता है। लेकिन जैसे ही पहली कक्षा से हमारा संबंध छूट जाता है, तो उसके बाद यह शब्द भी विस्मृत हो जाता है। फिर हमारी वर्णमाला की संकल्पना पर चिन्तन तो बहुत दूर की बात है।

इसीलिये सर्वप्रथम वर्णमाला शब्द की संकल्पना की चर्चा आवश्यक है। भारतीय वर्णमाला सुदूर दक्षिण की सिंहली भाषा से लेकर सभी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ तिब्बती, नेपाली, ब्रह्मदेशी, थाय भाषा, इंडोनेशिया, मलेशिया तक सभी भाषाओं की वर्णमाला है। यद्यपि उनकी लिपियाँ भिन्न दिखती हैं, लेकिन सभी के लिये एक वर्णन देवनागरी लागू है। बस, हर लिपी में आकृतियाँ अलग हैं। अतिपूर्व देश चीन, जापान व कोरिया तीनों में चीनी वर्णमाला प्रयुक्त है। तमाम मुस्लिम देशों मे फारसी-अरेबिक वर्णमाला है जबकि युरोप व अमेरीकन भाषाएँ ग्रीको-रोमन-लॅटीन वर्णमाला का उपयोग करती हैं जिसमें उस भाषानुरूप वर्णाक्षरों की संख्या कहीं 26 (अंग्रेजी भाषा में), तो कहीं 29 (ग्रीक के लिये) इस प्रकार कम-बेसी है।

मानव की उत्क्रांती के महत्वपूर्ण पडावों में एक वह है जब उसने बोलना सीखा और शब्द की उत्पत्ति हुई। वैसे देखा जाय तो चिरैया, कौए, गाय, बकरी, भ्रमर, मख्खी आदि प्राणी भी ध्वनि का उच्चारण करते ही हैं, लेकिन मानव के मन में शब्द की परिकल्पना उपजी तो उससे नादब्रह्म अर्थात् ॐकार और फिर शब्दब्रह्म का प्रकटन हुआ। आगे मनुष्य ने चित्रलिपी सीखी व गुहाओं में चित्र उकेर कर उनकी मार्फत संवाद व ज्ञान को स्थायी स्वरूप देने लगा। वहाँ से अक्षरों की परिकल्पना का उदय हुआ। अक्षर चिह्नों का निर्माण हुआ और वर्णक्रम या वर्णमाला अवतरित हुई।

भारतीय मनीषियों ने पहचाना की वर्णमाला में विज्ञान है। ध्वनि के उच्चारण में शरीर के विभिन्न अवयवों का व्यवहार होता है। इस बात को पहचानकर शरीर-विज्ञान के अनुरूप भारतीय वर्णमाला बनी और उसकी वर्गवारी भी तय हुई। सर्वप्रथम स्वर और व्यंजन इस प्रकार दो वर्ग बने। फिर दीर्घ परीक्षण और प्रयोगों के बाद व्यंजनों में कंठ वर्ग के पाँच व्यंजन, फिर तालव्य वर्ग के व्यंजन, फिर मूर्धन्य व्यंजन, फिर दंत और फिर ओष्ठ इस प्रकार वर्णमाला का एक क्रम सिद्ध हुआ। क ख ग घ ङ, इन अक्षरों को एक क्रम से उच्चारण करते हुए शरीर की ऊर्जा कम खर्च होती है, इस बात को हमारे मनीषियों ने समझा। विश्व की अन्य तीनों वर्णमालाओं का शरीर शास्त्र अथवा उच्चारण शास्त्र से कोई भी संबंध नहीं है। परंतु भारत में यह प्रयोग होते गए। व्यंजनों में महाप्राण तथा अल्पप्राण इस प्रकार और भी दो भेद हुए। इससे भी आगे चलकर यह खोज हुई कि ध्वनि के उच्चारण में मंत्र शक्ति है। तो इस मंत्र शक्ति को साधने के लिये अलग प्रकार का शोध व अध्ययन आरंभ हुआ। उच्चारण में उदात्त, अनुदात्त, स्वरित जैसी व्याख्या हुई। शरीर शास्त्र की पढ़ाई और चिंतन से कुंडलिनी, षट्चक्र, ब्रह्मरंध्र, समाधि में विश्व से एकात्मता, सर्वज्ञता इत्यादि संकल्पनाएँ बनीं। आणिमा, गरिमा, लघिमा, इत्यादी सिद्धियों की प्राप्ति हो सकती है, इस अनुभव व ज्ञान तक भारतीय मनीषी पहुँचे। भारतीय कुंडलिनी विज्ञान के अनुसार षट्चक्रों में पँखुडियाँ हैं और प्रत्येक पँखुडी पर एकेक अक्षर (स्वर अथवा व्यंजन) विराजमान हैं। उस उस अक्षर पर ध्यान केंद्रित करने से एकेक पँखुडी व एकेक चक्र सिद्ध किया जा सकता है। इसी कारण हमें सिखाया जाता है — अमंत्रं अक्षरम् नास्ति- जिसमें मंत्रशक्ति न हो, ऐसा कोई भी अक्षर नहीं।

इस प्रकार हमारी वर्णमाला में वैज्ञानिकता समाई हुई है, विज्ञान का विचार यहां हुआ है और यह विरासत हमारे लिए निश्चित ही अभिमान की बात है।
मुख्य मुद्दा है वर्णमाला और उससे परिभाषित राष्ट्र, जो कि श्रीलंका से कोरिया की सीमा तक पसरा हुआ है। भारत देश में हजारो वर्षों की परिपाटी के कारण वर्णमाला के विभिन्न आयाम प्रकट हुए। वह लोककलाओं का भी एक विषय बनी। वर्ण शब्द का दूसरा अर्थ है – रंगछटा। तो शरीर के अंदर षट्चक्रों में जो-जो वर्णाक्षर का स्थान है वहाँ-वहाँ उस चक्र का रंग भी वर्णित है। सारांश में हमारी वर्णमाला की उपयोगिता केवल लेखन तक मर्यादित नही अपितु जीवन के कई अन्य अंगों में इस ज्ञान के अगले आयाम प्रकट हुए हैं।

वर्णमाला के विषय में इतना प्रदीर्घ विवेचन इसलिये आवश्यक है कि नये युग में अवतरित संगणक (कम्प्यूटर) शीर्षक तंत्र ज्ञान और वर्णमाला का अन्योन्य संबंध है। यह नया तंत्र ज्ञान सर्वदूर व्यवहार में होने के कारण उसका अतिप्रभावी संख्या बल है जिसकी भेदक शक्ति भी प्रचंड है। जीवन की प्रत्येक सुविधाएँ व ज्ञान प्रसार दोनों के बाबत इस तंत्रज्ञान से कई मूलगामी परिवर्तन हुए हैं।
एक तरफ हमारी हजारों वर्षों की परंपरा का अभिमान रखने वाली और उसे विविध आयामों में प्रकट करने वाली हमारी वर्णमाला है और दूसरी ओर अगली कई सदियों पर राज करने वाला एक सशक्त तंत्र ज्ञान। अब यह भारतीयों को तय करना है कि इस नये तंत्र और पुरातन वर्णमाला का संयोग किस प्रकार हो। यदि वह सकारात्मक हुआ तो हमारी वर्णमाला अक्षुण्ण टिकी रहेगी। इतना ही नहीं वरन् इस नये तंत्र को समृद्ध भी करेगी। यदि दोनों का मेल नहीं हुआ तो इस संगणक तंत्र में वह सामथ्र्य है कि वह हमारी वर्णमाला, हमारी लिपियाँ, हमारी बोलियाँ, भाषाएँ और हमारी संस्कृति को विनष्ट कर दे। संगणक तंत्र की इस शक्ति को हमें समझना होगा, स्वीकारना भी होगा कि यह तंत्र हमारा विनाशक भी बन सकता है और सकारात्मक ढंग से व्यवहार में लाया गया तो हमारी वर्णमाला, भाषा व संस्कृति को समृद्धि के शिखर पर भी बैठा सकता है।

इस सकारात्मक संयोग की संभावना कैसे बनती है इसे जानने के लिये थोड़ा-सा संगणक के इतिहास को समझना होगा।
बीसवीं सदी की विज्ञान प्रगति में क्ष-किरण मेडिकल शास्त्र की छलांग, अणु विच्छेदन व उससे अणु-ऊर्जा-निर्माण, खगोलीय दूरबीनें, अॅटम बम आदि कई घटनाएँ गिनाई जा सकती हैं। उनसे पहले एक मस्तिष्क युक्त यंत्र की परिकल्पना की गई। इसकी पहल थी वे सरल से गुणा-भाग करने वाला कॅलक्युलेटर्स! मुझे याद आता है कि 1967-68 में प्रयोगशालाओं में ये कॅलक्युलेटर्स रखे होते थे। हम विद्यार्थी मजाक करते थे कि इससे अधिक वेग तो हमारा गुणा-भाग हो जाता है। लेकिन हाँ तब संख्याएँ बड़ी-बड़ी होती थीं तो इनका वेग और अचूक गणित हमारे वश की बात नहीं थी। परन्तु उन्हीं दिनों यूरोप में यह संकल्पना काफी आगे निकल चुकी थी कि गणित के जोड़, घटाव, गुणा, भाग चिह्नों से परे पहुँचकर मानवी भाषा को सीख ले ऐसे यंत्र चाहिये। इसके लिये अंग्रेजी भाषा चुनी गई। संगणक तंत्र की पूरी इमारत अंग्रेजी की नींव पर रखी जाने लगी और सभी पंडितों ने पहचाना की उनकी भाषा को नामशेष करने का सामथ्र्य इस तंत्र में है। इसे पहचान कर सबसे पहले जापान ने और फिर कई यूरोपीय देशों ने तय किया कि उनका संगणक उनकी भाषा की नींव पर बनेगा।

संगणकीय व्यवहार दो प्रकार के होते हैं- परदे पर दृश्य व्यवहार जिनकी सहायता से मनुष्य उनसे संवाद कर सके और परदे के पीछे (अर्थात् प्रोसेसर के अंदर) चलने वाले व्यवहार। तो सभी प्रगत राष्ट्रों ने आग्रहपूर्वक अपनी-अपनी भाषा को ही परदे पर रखा। यूरोपीय देशों को यह सुविधा थी कि उनकी वर्णमाला के वर्णाक्षर और अंग्रेजी के अक्षरों में काफी समानता थी। इसके विपरीत जापानी भाषा नितान्त भिन्न थी। फिर भी जापानियों ने अपनी जिद निभाई। पीछे-पीछे चीन और अरेबिक-फारसी लिखने वाले देशों ने भी यही किया। पिछड़ा रहा केवल भारत व भारतीय भाषाएँ क्योंकि हमारे लिये अंग्रेजी ही महानता थी, स्वर्ग थी और हमें गर्व था कि चूँकि हमारी 20 प्रतिशत जनता अंग्रेजी जानती है (इसकी तुलना में 1990 में केवल 3 प्रतिशत चीनी जनता अंग्रेजी जानती थी) तो इसी आधार पर हम पूरी दुनिया का संगणक-बिजनेस अपनी मुट्ठी में कर लेंगे। इस सोच के कारण आज हम किस प्रकार चीन से पिछड़ रहे हैं, इसकी चर्चा थोड़ा रुककर करते हैं।

गलत सोच का एक घाटा परदे के पीछे के व्यवहारों में भी हुआ। इसे समझते हैं। संगणक के मूलगामी व्यवहार के लिये उसे केवल दो बातें समझ में आती हैं- हाँ और ना। अर्थात् उसके विशिष्ट सर्किट में बिजली प्रवाह है या नहीं है। लेकिन कई दशकों पहले मोर्स ने जब मोर्स कोड बनाया था तो उसके पास भी दो ही मूल नाद थे- लम्बी ध्वनि डा और छोटी ध्वनि डिड्। ऐसे दो, चार, पाँच या छह नादों को अलग क्रम से एकत्रित करने से अंग्रेजी के एक-एक वर्णाक्षर को सूचित किया जा सकता था। मसलन च् के लिये डिड्-डिड्-डिड् या ॠ के लिये डिड्-डा। इसी तरह हाँ-ना के आठ संकेतों से अलग-अलग संकेत श्रृंखलाएँ बनाकर उनसे अंग्रेजी अक्षर सूचित हों इस प्रकार से एक सारणी बनाई गई। तो की-बोर्ड पर ॠ की कुंजी दबाने से ॠ की संकेत-श्रृंखला के अनुरूप संगणकीय प्रोसेसर के आठ सर्किटों में विद्युत-धारा या तो बहेगी या नहीं बहेगी। उसे देखकर प्रोसेसर उसे पढ़ेगा कि यह श्रंृंखला मुझे ॠ कह रही है। फिर प्रोसेसर के द्वारा पिं्रटर को आदेश दिया जायेगा कि ॠ प्रिंट करना है।

इस प्रकार की-बोर्ड पर प्रत्येक अक्षर की कुंजी का स्थान, उससे उत्पन्न होने वाली संकेत-श्रृंखला और उसे पिं्रट करने पर दिखने वाला वही अक्षर ये बातें तो आरंभिक काल में ही तय हो गई थीं। गड़बड़ ये रही कि यदि संगणक को यह मानवी संदेश अपनी हार्ड-डिस्क में स्टोअर कर रखना हो तो क्या होगा?

तब आवश्यकता हुई प्रोग्रामर की। उसे एक अलग मॅपिंग-चार्ट बनाना था कि हार्ड-डिस्क में इन अक्षरों को कहाँ रखा जायेगा। आरंभिक काल में हर संस्था का प्रोग्रामर अपना-अपना चार्ट बनाता था। तो एक संगणक पर स्टोअर किया गया संदेश दूसरे संगणक पर नहीं पढ़ा जा सकता था। फिर सबने इकट्ठे बैठकर तय किया कि इसे भी स्टॅण्डर्डाइज किया जायेगा ताकि दुनिया के किसी भी संगणक पर स्टोअर किया गया संदेश दूसरे किसी भी संगणक पर पढ़ा जा सके।

1990 तक ऐसा स्टॅण्डर्डडायजेशन दुनिया की हर भाषा के वर्णाक्षरों के लिये सर्वमान्य हो गया – सिवाय भारतीय भाषाओं के। क्योंकि हमारे सॉफ्टवेयर बनाने वाले प्रोग्रामर अपना कोडिंग गुप्त रखकर पैसा बटोरना चाहते हैं और इनकी जमात में सबसे आगे हैं सरकारी सॉफ्टवेयर कंपनी सी-डॅक के कर्ता-धर्ता। यह परिस्थिति आज भी बरकरार है और शायद आगे कई वर्षों तक चले।
लेकिन इस कथाक्रम में एक टिविस्ट आया 1988-1991 के काल में। उसी सरकारी सी-डॅक के एक वैज्ञानिक गुट ने भारतीय वर्णमाला के अनुक्रम का अनुसरण करने वाला की-बोर्ड बनाया। उससे लिखे जाने वाले अक्षर हार्ड-डिस्क में स्टोअर करने के लिये एक बेहद सरल तरीके वाला कोड तैयार किया और 1991 में इसे ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टॅण्डर्ड्स के ऑफिस में इनस्क्रिप्ट नाम से रजिस्टर करवा लिया। इसका अर्थ हुआ कि इस की-बोर्ड और इस कोड का कोई कॉपीराइट नहीं रहेगा। इसका उपयोग कोई भी कर सकता है और अगले बड़े-बड़े सॉफ्टवेयर भी लिखे जा सकते हैं।

लेकिन सी-डॅक के बाकी लोगों को यह बात रास नहीं आई। की-बोर्ड का डिजाइन तो गुप्त नहीं रखा जा सकता। लेकिन स्टोरेज कोड को बदला जा सकता है सो बदला गया और उसे मार्केट में भारी दाम पर बेचने के लिये उतारा गया। नतीजा यह रहा कि जो भारतीय भाषाई सॉफ्टवेयर 1991 में करीब 2 हजार रुपयों में बेचा जा सकता था उसे कोल्ड स्टोरेज में रखकर नये स्टोरेज कोड के साथ बाजार में उतारा गया जिसकी कीमत 14 हजार थी। बाकी कंपनियों के भी सीक्रेट कोड थे और उनके भाषाई सॉफ्टवेयर भी इसी दाम पर थे। जैसे “श्री” या “कृतिदेव”। उनकी मार्केटिंग और ऑफ्टर सेल सर्विस भी अच्छे थे सो सी-डॅक को टिकना भारी पड़ने लगा। फिर सरकार ने आदेश निकालकर सभी सरकारी कार्यालयों में केवल सी-डॅक का सॉफ्टवेयर “इजम” ही खरीदा जाने की व्यवस्था की। साथ ही सी-डॅक ने उस गुट के वैज्ञानिकों को बाहर कर दिया जो मेरी समझ से कम से कम पद्मश्री के हकदार थे। खैर!

सभी भारतीय भाषाई सॉफ्टवेयरों के की-बोर्ड का डिजाइन वही था जो रेमिंग्टन टाइप राइटरों का था। तर्क यह था कि जो हजारों टाइपिस्ट काम कर रहे हैं उनकी सुविधा हो। कुछ कंपनियों ने भारतीय वर्णमाला को ही धता बताते हुये अंग्रेजी स्पेलिंग से लिखने वाले सॉफ्टवेयर बनाये जैसे- बरहा। सी-डॅक का सॉफ्टवेयर ये दोनों सुविधाएँ दे रहा था- पर एक तीसरा ऑप्शन भी दे रहा था वर्णमाला अनुसारी की-बोर्ड का जिसमें अआईईउऊ एऐओऔ एक क्रम से थे। इसी प्रकार कखगघङ पास-पास। चछजझञ पास-पास। टठडढण, तथदधन, पफबभम भी पास-पास। इसलिये नये सीखने वालों के लिये यह निहायत आसान था। इसके अक्षर-क्रम को समझने के लिये दस मिनट पर्याप्त हैं और स्पीड के लिये पंद्रह से बीस दिन। फिर भी यह की-बोर्ड लोगों तक नहीं पहुँच पाया। क्योंकि सामान्य ग्राहक के लिये पूरे सॉफ्टवेयर की कीमत बहुत अधिक थी। सरकारी कार्यालयों के पुराने टाइपिस्टों के लिये टाइपराइटर वाला ऑफ्शन था और वरिष्ठ अधिकारियों के लिये अंग्रेजी स्पेलिंग से हिन्दी लिखने का। फिर भी जिन अत्यल्प प्रतिशत लोगों ने यह वर्णमाला-अनुसारी इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड सीखा उन्हें इससे प्रेम हो गया। इसमें एक खूबी और थी। हिन्दी में एक परिच्छेद लिखकर केवल सिलेक्ट ऑल और चैज टू मलयाली कह देने से सारी लिखावट मलयाली या किसी भी अन्य भारतीय लिपि में बदल सकती थी।
1991 से 1998 तक भारतीय भाषाओं के अलग-अलग कंपनियों के अन-स्टण्डर्डाइज्ड सॉफ्टवेयरों के चलते भारतीय भाषाओं का संगणक लेखन बिखरा रहा, जहाँ एक सॉफ्टवेयर से लिखा लेखन दूसरे के द्वारा नहीं पढ़ा जा सकता था। इस बीच 1995 में इंटरनेट का प्रवेश हुआ और दुनिया में संगणक के जरिये संदेश-आवागमन आरंभ हुआ। लेकिन नॉन स्टॅण्डर्डाइजेशन के कारण इस इंटरनेट रिवोल्यूशन पर सारा भारतीय लेखन फेल रहा।

एक रिवोल्यूशन और आया जिसका नाम था युनीकोड। संगणकों के चिप्स में हर वर्ष सुधार होते गये जिससे उनकी स्पीड बढ़ी, क्षमता बढ़ी और वे कॉम्प्लेक्स वर्णमाला के लायक बनते गये। संसार की चार वर्णमालाओं में तीन कॉम्प्लेक्स हैं- भारतीय, चीनी और अरेबिक। फिर भी भारतीय वैज्ञानिकों ने कम क्षमता वाले पुराने संगणकों पर भी अपनी वर्णमाला को अॅडजस्ट कर लिया था। इसलिये रोमन वर्णमाला की भाषाओं की तुलना में कम ही सही पर कंप्यूटर पर भारतीय भाषाओं का चलन बढ़ रहा था। लेकिन सॉफ्टवेयरों की आपसी नॉन-कम्पटेबिलिटी उनकी प्रगति को पीछे खींच रही थी। अरेबिक या चीनी वर्णमालाएँ कम स्टोरेज वाले संगणकों पर नहीं आ सकती थीं। जैसे ही स्टोअरेज क्षमता बढ़ी, जैसे ही मेगा-बाइट वाले हार्ड डिस्क की जगह गेगा बाइट और टेरा बाइट वाले हार्ड डिस्क आये तो अरेबिक और चीनी भाषाई सॉफ्टवेयर भी उन पर समाने लगे। इस पूरे बढ़े हुये व्यवहार के लिये पुराने स्टोरेज-स्टॅण्डर्ड को बदलकर यूनीकोड नामक नया स्टॅण्डर्ड दुनिया ने अपनाया जो इंटरनेट व्यवहारों को भी समाहित कर सके। इस स्टॅण्डर्ड को तय करने वाली जो विश्वभर के संगणक-तंत्रज्ञों की कमेटी बनी वे किसी नॉन-स्टॅण्डर्ड सॉफ्टवेयर को नहीं अपना सकते थे। चीनी और अरेबिक सॉफ्टवेयर प्रोग्रामर्स तो अपनी-अपनी वर्णमाला के लिये एक स्टॅण्डर्ड लागू करने के लिये तैयार हुये। उन्होंने अपने-अपने देश में उस तरह का कानून लाकर उन-उन भाषाओं के संगणकीकरण की पद्धति को स्टॅण्डर्ड कर दिया। लेकिन भारतीय भाषाओं के सॉफ्टवेयर डेवलपर्स अब भी एकवाक्यता के लिये तैयार नहीं थे। सी-डॅक भी नहीं।

ऐसे में भारत देश में सौभाग्य से यूनीकोड कमेटी को एक उपाय मिल गया। वर्षों पुराना ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टॅण्डर्ड्स (एक्ष्च्) द्वारा मान्य किया जा चुका इनस्क्रिप्ट का स्टॅण्डर्ड यूनीकोड ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार एक प्रश्न हल हुआ। लेकिन मायक्रोसॉफ्ट कंपनी ने इस स्टॅण्डर्ड के सॉफ्टवेयर को अपनी सिस्टम में लेने से इंकार कर दिया।
ज्ञातव्य है कि यह इंकार की भाषा वे ना तो किसी चीनी वर्णमाला की भाषाओं के लिये कर सके (अर्थात् चीनी, जापानी व कोरियाई) और न अरेबिक वर्णमाला की भाषाओं के लिये। लेकिन भारतीयों की आपसी फूट और लालच के कारण वे भारत में यह सीनाजोरी करने लग गये थे।

लेकिन इस देश का एक आंशिक सौभाग्य और रहा। मायक्रोसॉफ्ट को टक्कर देने के लिये बनी एक नई ऑपरेटिंग सिस्टम लीनक्स के कर्ताधर्ताओं ने घोषणा कर दी कि वे भारतीय भाषाओं के लिये एक्ष्च् तथा यूनीकोड द्वारा स्वीकृत स्टॅण्डर्ड को अपनायेंगे। ज्ञातव्य है कि लीनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम फ्री डाउनलोड वाली सिस्टम है। इस कारण 1998 से 2002 तक यह नजारा रहा कि जिसने लीनक्स को अपनाया उसके भाषाई लेखन इंटरनेट पर टिकने लगे। अत: सर्च इंजिनों में खोजने लायक हुये। जिसने इसे नहीं अपनाया उन्हें अपना भाषाई लेखन इंटरनेट पर डालने के लिये पीडीएफ या जीपेग अर्थात् चित्र बनाकर ही डालना पड़ता था। वह लेखन गूगल सर्च में पकड़ में नहीं आता है।

हालांकि लीनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम अधिक प्रगत होने के कारण सामान्य उपयोगकर्ता के लिये काफी भारी पड़ती थी, फिर भी भाषाई लेखन को इंटरनेट पर रखने के लिये लोग उसे अपनाने लगे। अब मायक्रोसॉफ्ट को लगा कि उनका इंडियन मार्केट हाथ से जा सकता है। तब उस कम्पनी ने भी उन्हीं भारतीय भाषा तंत्रज्ञों की सहायता से अपना एक प्रोपायटरी सॉफ्टवेयर बनाया i-386 जो हर भारतीय भाषा के लिये एक-एक फॉण्ट के साथ इंटरनेट व यूनीकोड कॅम्पटिबल भाषा-लेखन की सुविधा देता है। इसके लिये वर्णमाला अनुसारी अर्थात् सी-डॅक के उन वैज्ञानिकों का बनाया इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड सीखना पड़ता है जो कि बहुत सरल है। इस प्रगति को मैंने आंशिक सौभाग्य कहा है। क्योंकि यूनीकोड ने एक दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लिया। हर भारतीय भाषा को अलग कम्पार्टमेंट में रखा। अर्थात् इनस्क्रिप्ट विधि से लेखन करने पर भी पहले की तरह हिन्दी लेखन को केवल कन्वर्ट टू बंगाली कहने से यह बंगला लिपि में नहीं लिखा जायेगा। उसे फिर से बंगला में लिखना पड़ेगा। इस प्रकार भाषाई एकात्मता की धज्जियाँ उड़ गईं। इसका बडा दुष्परिणाम गीता-प्रेस जैसी बहुभाषाई संस्थाओंको होता है।

यहाँ भी ज्ञातव्य है कि हालांकि चीनी वर्णमाला आधारित जापानी, चीनी और कोरियाई लिपियाँ अलग हैं लेकिन उन्होंने एकजुट होकर यूनीकोड पर दबाव बनाया कि उन्हें एक कम्पार्टमेंट में रखा जाये ताकि लिप्यंतरण संभव हो। लेकिन यह सुविधा भारतीय भाषाओं को उपलब्ध नहीं है। यूनीकोड कन्सोर्शियम का कहना है कि यह अलगाव उन्होंने सी-डॅक के कहने पर तथा भारत सरकार की मान्यता से किया है।

इस पूरे घटनाक्रम फलस्वरूप आज भी पूरे देश में इनस्क्रिप्ट का उपयोग करने वालों का प्रतिशत 10-15 से अधिक नहीं है। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम उन्हें भुगतना पड़ रहा है जिन्हें 10वीं कक्षा से पहले स्कूल छोड़ना पड़ा और ऐसे बच्चे 70 प्रतिशत के लगभग हैं। उन्हें यदि इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड की सहायता से इंटरनेट टिकाऊ लेखन कला सिखाई जाये तो यह उनके लिये रोजगार जुटाने का, साथ ही अपना ज्ञानवद्र्धन करने का साधन बन सकता है।

दुष्परिणाम भुगतने वाला दूसरा बड़ा वर्ग है प्रकाशन संस्थाओं का। उन्हें अलग-अलग फॉण्ट का उपयोग अनिवार्य है। सी-डॅक का इजम सॉफ्टवेयर या श्री या कृतिदेव। इन सभी कंपनियों के पास सुंदर-सुंदर और कई तरह के फॉण्ट सेट हैं। लेकिन वे इंटरनेट टिकाऊ नहीं हैं। उन्हें ना लें तो प्रकाशन का काम सुपाठ्य नहीं रहेगा। उन्हें लेकर काम करें तो इंटरनेट पर तत्काल भेज पाने की सुविधा से वंचित हो जाते हैं और स्पीड में मार खाते हैं। दुनिया के अन्य प्रकाशकों की तुलना में हमारे प्रकाशन में पाँच से सात गुना अधिक समय और श्रम खर्च होता है। क्योंकि हम एडिटेबल फाइलें नहीं भेज सकते हैं, लेकिन उन प्रोप्रयटेरी फॉण्ट्स को पब्लिक डोमेन में डाला जाय तो प्रकाशन की कठिनाइयाँ दूर हो जायेंगी।

मनुष्य के विकास में शब्दों को बोलना और भाषा को लिपिबद्ध करना ये दो महत्वपूर्ण पड़ाव रहे हैं। दोनों में भारत ही अग्रसर था और इसी कारण सोने की चिड़िया बना और हजारों वर्ष विश्व-गुरु रहा। आज उतना ही प्रभावी संगणक तंत्र उदित हुआ है। क्या हम उसका उपयोग कर अपनी वर्णमाला, अपनी लिप्यंतरण की सुविधा, अपनी भाषाई व सांस्कृतिक विरासत इत्यादि बचा लेंगे या उसी के हाथों इन्हें नष्ट कर देंगे – यह फैसला हमें करना है। इसी कारण रोमन का आधार छोड़कर अपनी वर्णमाला के आधार से बनी इनस्क्रिप्ट पद्धति का उपयोग करने में ही हमारी भलाई है ।

#लीना मेहंदले

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