#अजय अज्ञातफ़रीदाबाद
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क्या अंदर, क्या बाहर है
सिर्फ़ ख़ला का मंज़र है
क्या बेहतर क्या बदतर है
सब कुछ सोच पे निर्भर है
जिसके हाथ में पत्थर है
वो तो ख़ुद शीशागर है
सोच का पैकर बदला है
आज ग़ज़ल कुछ हटकर है
ग़म की सहबा पी कर अब
ख़ुश रह पाना दूभर है
सुख दुख के दो पासे हैं
ये जीवन इक चौसर है
दो पल को भी चैन सुकूँ
किसको आज मयस्सर है
देख के सूरज के तेवर
साये को लगता डर है
धूप को बाहों में भरकर
खेती करता हलधर है
मर मर कर जीते रहना
मरने से भी दुष्कर है
वाणी पर संयम रखना
इंसानों का ज़ेवर है
उतने पैर पसारा कर
जितनी लंबी चादर है
दफ़्तर में घर साथ रहे
घर में भी इक दफ़्तर है
ये जो है तकनीक नयी
इस जीवन की महवर है
मैं ख़ुद अपने जैसा हूँ
तुझ में मुझ में अंतर है
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