शब्द साधन और संपन्नता के चरम पर भावनाओं के सहारे तथ्यों और जानकारियों को सहज रूप से प्रस्तुत करके गंभीरता को पाठक के मन तक मोड़ देने का नाम गद्य है | एक साधा हुआ काव्य भी गद्य कहलाता हैं | मानव के सामान्य जीवन में बोले जाने वाले शब्द, लिखी जाने वाली भाषा जो छन्दविधान रहित हो उसे ही गद्य या अंग्रेजी में प्रोस (prose) कहा जाता है। अंग्रेजी के मशहूर कवि वर्डस्वर्थ के अनुसार ‘गद्य और पद्य (या कविता) की भाषा में कोई मूलभूत अंतर न तो है और न हो सकता है।’ मानव का मानस अपने आप को भाषा के दो विशिष्ट रूपों में परिभाषित करता है एक तो कविता और दूसरा गद्य | भाषा की विविधता और भावनाओं को बांधने के लिए साहित्य में पद्य के साथ साथ गद्य को भी आवश्यक तत्वों में शामिल किया गया हैं |
गद्य शब्दों के भावात्मक संदर्भों के स्थान पर उनके वस्तुनिष्ठ प्रतीकात्मक अर्थ को दर्शाता है। गद्य में शब्दों के इस प्रकार के प्रयोग को ध्यान में रखकर हर्बर्ट रीड ने गद्य को निर्माणात्मक अभिव्यक्ति कहा है, ऐसी अभिव्यक्ति जिसमें शब्द निर्माता के चारों ओर प्रयोग के लिए ईंट गारे की तरह बने बनाए तैयार करते हैं।
वस्तुतः सत्य की भाषा कहने का अर्थ यह नहीं कि गद्य कविता से हेय है, या उसका सामाजिक प्रयोजन कविता से कम है, या वह भाषा की कलाशून्य अभिव्यक्ति है। वास्तव में बहुत से ऐसे कार्य जो कविता की शक्ति के बाहर है, गद्य द्वारा संपन्न होते हैं। बहुत पहले यह अनुभव किया गया कि कविता की छंदमय भाषा में विचारों का तर्कमय विकास संभव नहीं। कविता से कम विकसित अवस्था में भी गद्य की विशष्ट शक्ति को पहचानकर अरस्तु ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ रेटॉरिक में उसे प्रतीति परसुएशन, दूसरों को अपने विचारों से प्रभावित करने की भाषा कहा था, जिसके मुख्य तत्व हैं-विचारों का तर्कसंगत क्रम, वर्णन की सजीवता, कल्पना, चित्रयोजना, सहजता, लय, व्यक्तिवैचित्र्य, उक्ति-सौंदर्य, ओज, संयम। इनमें से प्रत्येक बिंदु पर कविता और गद्य की सीमाएँ मिलती हुई जान पड़ती हैं, किंतु दोनों में इनके प्रयोग की अलग अलग रीतियाँ हैं।
जिस तरह कविता की आत्मा चित्रयोजना में बसते हैं, जबकि गद्य में उसका प्रयोग अत्यंत संयम के साथ विचार को आलोकित करने के लिये ही किया जाता है। अंग्रेजी गद्य के महान शैलीकार स्विफ्ट के विषय में डॉ॰ जान्सन ने कहा था कि यह दुष्ट कभी एक रूपक का भी खतरा मोल नहीं लेता। मुख्य वस्तु यह है कि गद्य में भाषा की सारी क्षमताएँ विचार की अचूक अभिव्यक्ति के अधीन रहती हैं। कविता में भाषा को अलंकृत करने की स्वतंत्रता अक्सर शब्दों के प्रयोग और वाक्यरचना के प्रति असावधान रहने की प्रवृत्ति का कारण है। विशेषणों का जितना दुरुपयोग कविता में संभव है उतना गद्य में नहीं। कविता में संगीत को अक्सर सस्ती भावुकता का आवरण बना दिया जाता है। गद्य में कथ्य का महत्व उसपर अंकुश का काम करता है। इसलिये गद्य का अनुशासन भाषा के रचनासौंदर्य के बोध का उत्तम साधन है। टी. एस. इलियट के शब्दों में अच्छे गद्य के गुणों को होना अच्छी कविता की पहली और कम से कम आवश्यकता है।
हिन्दी भाषा की विशालता की बात की जाएं तो यक़ीनन हिन्दी गद्य का विशाल और वृहद इतिहास हैं, हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल भारत के इतिहास के बदलते हुए स्वरूप से प्रभावित था। स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीयता की भावना का प्रभाव साहित्य में भी आया। भारत में औद्योगीकरण का प्रारंभ होने लगा था। आवागमन के साधनों का विकास हुआ। अंग्रेजी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बढ़ा और जीवन में बदलाव आने लगा। ईश्वर के साथ साथ मानव को समान महत्व दिया गया। भावना के साथ-साथ विचारों को पर्याप्त प्रधानता मिली। पद्य के साथ-साथ गद्य का भी विकास हुआ और छापेखाने के आते ही साहित्य के संसार में एक नई क्रांति हुई।
आधुनिक हिन्दी गद्य का विकास केवल हिन्दी भाषी क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहा। पूरे भारत में और हर प्रदेश में हिन्दी की लोकप्रियता फैली और अनेक अन्य भाषी लेखकों ने हिन्दी में साहित्य रचना करके इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।
हिन्दी गद्य के विकास को विभिन्न सोपानों में विभक्त किया जा सकता है-
(१) भारतेंदु पूर्व युग 1800 ईस्वी से 1850 ईस्वी तक
(२) भारतेंदु युग 1850 ईस्वी से 1900 ईस्वी तक
(३) द्विवेदी युग 1900 ईस्वी से 1920 ईस्वी तक
(४) रामचंद्र शुक्ल व प्रेमचंद युग 1920 ईस्वी से 1936 ईस्वी तक
(५) अद्यतन युग 1936 ईस्वी से आज तक
संसार की समस्त भाषाओं में सबसे पहले पद्य-रचना हुई थी, गद्य इसके बाद की कड़ी है । हिन्दी साहित्य के विगत कालों में धार्मिक उपदेश, जीवन चरित्र लेखन आदि के माध्यमों से ब्रजभाषा का प्रयोग सीमित दायरे में होता रहा । आधुनिक काल में प्रजातांत्रिक आदर्शो के बल पर जीवन-ढाँचा बदलने लगा, तो शिक्षा, प्रशासन, उद्योग, विज्ञान आदि क्षेत्रों में गद्य की अनिवार्यता आई, जिसका कि साहित्य पर भी असर पड़ा । आगे चलकर, हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल को भी ‘गद्य युग’ कहा गया ।
भारत में अंग्रेजी राज्य का पैर जमाने के लिए अंग्रेज प्रशासकों ने जनसंपर्क के माध्यम के रूप में खड़ी बोली हिन्दी की दो भाषा-शैलियों को अलग-अलग पनपाया । गिलक्राइस्ट की प्रेरणा से उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में लन्न लाल, सदल मिश्र, ईशा अल्ला और सदासुख लाल ने अरबी, फारसी मिश्रित तथा रहित दोनों शैलियोंमें गद्य लिखा ।
भारतेंदु काल में सामान्य जीवन से संबंधित विषयों पर गद्य लिखा जाने लगा और विषयानुसार भाषा-प्रयोग में वैविध्य लाया गया । गद्य का क्षेत्र व्यापक बना । नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध, व्यंग्य आदि सभी कुछ लिखे जाने लगे । इनके सभी लेखक अपनी-अपनी स्वच्छ प्रवृत्ति के अनुसार भाषा का प्रयोग करते रहे, मगर यह प्रयोग की स्थिति में ही रहा । गद्य का रूप निश्चित नहीं हो पाया था, साथ ही व्याकरण-व्यवस्था भी कमजोर बनी रही ।
राजा लक्ष्मण सिंह, राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद, देवकी नंदन खत्री, प्रताप नारायण मिश्र, लाला श्रीनिवास दास, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त, बद्री नारायण चौधरी आदि भारतेंदु काल के प्रमुख गद्य लेखक रहे । भारतेंदु काल की भाषा-विषयक स्वच्छंदता तथा व्याकरण शिथिलता को मिटाकर हिंदी-भाषा की स्थिरता तथा गद्य-साहित्य का वैविध्य प्रदान किया, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘सरस्वती’ पत्रिका ने । इसी काल में कामता प्रसाद गुरु लिखित हिन्दी का प्रामाणिक व्याकरण ग्रंथ प्रकाशित हुआ था ।
हिन्दी-ग्रंथ के परिष्कार के साथ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने प्रचलित विधाओं के अलावा विविध सामयिक तथा विज्ञान-विषयक निबंध, संस्मरण, आत्मकथा, पत्रकारिता आदि विषयों पर लिखने की प्रेरणा दी थी । समीक्षा विधा में विविध शैलियों का भी प्रवर्त्तन किया गया था; जैसे-विश्लेषणात्मक गवेषणात्मक निर्णयात्मक शैलियाँ । इस युग में अनुवाद का भी काम बढ़-चढ़कर हुआ। छायावाद को मध्यवर्गीय चेतना का विद्रोह कहा जाता है । काव्य-विधा में ही नहीं, अपितु गद्य-विधाओं में भी विद्रोह की वह छटा द्रष्टव्य है । भाषा में लाक्षणिक और कलात्मक शब्दावली को प्रश्रय मिला था । गद्य-साहित्य में जीवन के अंतद्वंद्वों की मनोवैज्ञानिक परख का स्वागत हुआ ।
समीक्षा-विधा में रचनाओं के मूल्यांकन में कवि के दृष्टिकोण और वातावरण को भी मान्यता प्राप्त हुई । रेडियो-नाटकों तथा भाव-चित्रों का पर्याप्त विकास हुआ । ये विशेषताएँ महादेवी, प्रसाद, चतुरसेन शास्त्री, पं. बेचन शर्मा ‘उग्र’, राम कुमार वर्मा, नंददुलारे वाजपेयी, वियोगी हरि तथा रायकृष्ण दास की गद्य-कृतियों में प्रस्कुटित है ।
हिन्दी साहित्य में गद्य का प्रारंभ जितना सरल था, आज उसकी गति उतनी ही तीव्र और जटिल है । उसकी अभिव्यक्ति में इतना विस्तार हुआ है कि स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा बनने की उसकी अर्हता सर्वाधिक सुनिश्चित है ।
हिंदी गद्य की विधाएँ –
१. नाट्य एकांकी विधा
२. आलोचना
३. साक्षात्कार
४. आत्मकथा, जीवनी
५. संस्मरण
६. उपन्यास
७. समाचार लेखन
८. व्यंग्य
९. इतिहास
१०. कहानी
११. निबन्ध
१२. अनुवाद
१३. यात्रावृतांत
१४. डायरी
१५. पत्र
आदि
आख़िर इतने रास्ते होने के बावजूद भी हिन्दी गद्य लेखन में लोगों की रूचि क्यों नहीं हो पाती उसका कारण स्पष्ट है कि लोगों में गद्य के महत्व को समझा ही नहीं, यदि बाजार की बात करें तो हिन्दी कविता से ज्यादा हिन्दी गद्य का वृहद बाजार है| वर्तमान काल में भारत विश्व का दूसरा बड़ा बाजार है इसी कारण हिन्दी भाषा को विश्व में बड़ी नजर से देखा जाने लगा है, हर एक मल्टी नेशनल कम्पनियाँ अपने उत्पाद को भारत में बेचना चाहती है उसके लिए उन कंपनियों को भारतीय भाषाओँ में ही पाने उत्पाद और संस्थान के बारे में लोगो तक पहुंचाना होगा, इसीलिए वो लोग अंकरूपण ( डिजीटल ) दुनिया में घटकों (कंटेंट) की उपलब्धता के लिए हिन्दी लेखकों और पत्रकारों की तरफ टकटकी लगाए वे देखते हैं, पर कई बार तो विकल्प उपलब्ध कम मिलते है |
अंग्रेजी लेखक बोनामी डाब्री (Bonamy Dobree) के अनुसार सारा अच्छा जीवित गद्य प्रयोगात्मक होता है। उपन्यास गद्य की इस क्षमता का पूरा उपयोग कर सकता है। ऐसे प्रयोग इंग्लैंड की अपेक्षा अमरीका में अधिक हुए हैं और विंढम लिविस, हेमिंग्वे, स्टीन, फाकनर, ऐंडर्सन इत्यादि ने अपने प्रयोगों के द्वारा अंग्रेजी गद्य को नया रक्त दिया है। गद्य में तेजी से केंचुल बदलने की शक्ति का अनुमान हिन्दी गद्य के तेज विकास से भी किया जा सकता है, हालाँकि उसका इतिहास बहुत पुराना नहीं। भविष्य में गद्य के विकास की और संकेत करते हुए एक अंग्रेज आलोचक मिडिलटन मरी ने लिखा है: गद्य की विस्तार सीमा अनंत है और शायद कविता की उपेक्षा उसकी संभावनाओं की कम खोज हुई है।
आलेख लेखन से सृजक के मन के सारे तंतु खुल कर सृजन होता हैं, जिसमें कविता की तरह ही भावों को गुथना होता है| तात्कालिक और समसामयिक विषयों पर भी लिखने के कारण रचनाकारों का जुड़ाव भाषा और राष्ट्रिय मुद्दों के साथ वैश्विक मुद्दों के साथ समाज, चिंतन, संस्कृति और समय से जुड़ते हैं|
हिन्दी गद्य लेखन पर कई लोग इतना संदेह करते है इसी के लिए महाभारत में एक जगह भीष्म पितामह कहते हैं, ‘ये किंतु और परंतु ही तो हस्तिनापुर के दुर्भाग्य का कारण है वत्स.’ | बेशक कितना किन्तु परन्तु करते हैं हिन्दी में लिखने-पढ़ने से पैसा कमाया जा सकता है मगर इसके साथ ही उसमें कई किंतु और परंतु जुड़े हुए हैं| पिछले कुछ समय में देश के लगभग सभी मीडिया हाउस अपनी हिन्दी की वेबसाइट्स लेकर आए हैं| कुछ साल पहले तक लंबे ओपिनियन आर्टिकल सिर्फ अंग्रेज़ी में ही पढ़ने को मिलते थे| अब ये स्थिति काफी हद तक बदल गई है| इस तरह की वेबसाइट्स ने हिन्दी जानने वालों के लिए अच्छे मौके पैदा किए हैं| लेकिन इस तरह के लेखन के इच्छुक लोगों को दो बातें याद रखनी चाहिए| ये क्षेत्र नया तो है लेकिन इसमें अभी गिनती के मौके हैं| आगे इस क्षेत्र में जब संभावनाएं बढ़ेंगी तब बढ़ेंगी लेकिन फिलहाल ये कुछ हज़ार लोगों को मौका देने वाली इंडस्ट्री ही है|
दूसरी बात ये कि इस क्षेत्र में तरक्की के लिए हिन्दी लिखना आना दूसरी शर्त है| पहली शर्त है अपने विषय पर पकड़ होना. आपने जिन भी लोगों इस तरह की किसी भी वेबसाइट पर लिखते देखा होगा, वे सब अपने-अपने क्षेत्र की अच्छी समझ रखते हैं| अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे, राजनीति, खेल, सिनेमा और फेमिनिज़्म जैसे मुद्दों पर रोज बात करने के लिए कई सालों की तैयारी अनुभव या लगातार पढ़ते या बात करते रहने की ज़रूरत पड़ती है| जो नए लोग भी इसमें आने के इच्छुक हों उन्हें भी इन सारी बातों के लिए तैयार रहना चाहिए, ये याद रखते हुए कि किसी वेबसाइट के लिए ओपिनियन आर्टिकल लिखना फेसबुक पर पोस्ट करने से बिलकुल अलग है| हिन्दी के लेखकों को गद्य के क्षेत्र में अपने हाथ जमाना चाहिए ताकि हिन्दी लेखन प्रशस्त हो और साथ ही बेहतरीन आय का स्त्रोत भी बन सकता है |
#डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’
परिचय : डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ इन्दौर (म.प्र.) से खबर हलचल न्यूज के सम्पादक हैं, और पत्रकार होने के साथ-साथ शायर और स्तंभकार भी हैं। श्री जैन ने आंचलिक पत्रकारों पर ‘मेरे आंचलिक पत्रकार’ एवं साझा काव्य संग्रह ‘मातृभाषा एक युगमंच’ आदि पुस्तक भी लिखी है। अविचल ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में स्त्री की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा है। इन्होंने आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता का आधार आंचलिक पत्रकारिता को ही ज़्यादा लिखा है। यह मध्यप्रदेश के धार जिले की कुक्षी तहसील में पले-बढ़े और इंदौर को अपना कर्म क्षेत्र बनाया है। बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (कम्प्यूटर साइंस) करने के बाद एमबीए और एम.जे.की डिग्री हासिल की एवं ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियों’ पर शोध किया है। कई पत्रकार संगठनों में राष्ट्रीय स्तर की ज़िम्मेदारियों से नवाज़े जा चुके अर्पण जैन ‘अविचल’ भारत के २१ राज्यों में अपनी टीम का संचालन कर रहे हैं। पत्रकारों के लिए बनाया गया भारत का पहला सोशल नेटवर्क और पत्रकारिता का विकीपीडिया (www.IndianReporters.com) भी जैन द्वारा ही संचालित किया जा रहा है।