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‘माँ,इतना कुछ क्यों दे रही हो! कहीं जाते वक्त इतना कुछ खाकर जाना संभव नहीं है।’ माँ कुछ बोले,उससे पहले ही पिताजी जवाब दे देते हैं,-‘यात्रा में निकलने से पूर्व कुछ खाकर निकलना चाहिए। इतनी दूर जाना है,क्या पता रास्ते में गाड़ी रुकेगी या नहीं,इसलिए कुछ खा लो। तुमने टेबलेट बेग में रख ली या नहीं,पानी की बोतल! बेल पत्ता ले लो, जाते समय इसे हाथ में लेकर गणेश जी का स्मरण करना,यात्रा सफल होगी।’
जब घर से कहीं यात्रा के लिए निकलती थी,माँ-पिताजी ऐसे ही बोलते और कहते, ‘सावधान वाणी ! यात्रा हमेशा बारह बजे से पूर्व करना,दिन को सामने रखकर यात्रा करना उचित है।’ यात्रा के दौरान क्या-क्या ध्यान रखना चाहिए,वगैरह वगैरह…। सच में तब यात्रा में निकलने की अलग ही खुशी थी,लेकिन शादी के बाद घर में रहे लोगों को कोई तकलीफ न हो…ऐसे ही बहुत कुछ ध्यान रखते रखते खुद बिना खाए ही निकल जाना पड़ता है।
कभी हम बस में यात्रा करते समय देखते हैं,बहुत-सी अनचाही समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जैसे ड्राइवर ठीक बस नहीं चला रहा है या यात्री को उठाने के लिए जगह-जगह पर गाड़ी रोकना। कभी-कभी तो हमारे पास ऐसे लोग बैठ जाते हैं जिन्हें दूसरों के बारे में ख्याल ही नही रहता,भाड़ा क्या दे दिया जैसे गाड़ी अपने बाप-दादा की जागीर है। आजकल तो बस वाले ऐसे होते हैं कि आपको जहां जाना है वहाँ तक ले जाएंगे ,बोलकर आधे रास्ते में ही दूसरी गाड़ी में भेज देते हैं। मतलब छोटी हो या लम्बी हम जैसी भी यात्रा करें,यात्रा सुखद होने पर अच्छा लगता है। साथ में यात्रा करने वाला अगर सही हो,तब तो बात ही निराली है।
जैसे भ्रमण हो या यात्रा,सुख-दुख का सम्मिश्रण होेता है,वैसे ही हमारे जन्म से मृत्यु तक की यात्रा भी सुख-दुख का समाहार है। जीवन यात्रा के पहले चरण यानि बचपन और दूसरा चरण यानि यौवन ऐसा है,जैसे हमने किसी सुन्दर स्थान देखने के लिए यात्रा की हो,लेकिन जब हम घर लौटते हैं तब बुढ़ापे की तरह थकान…लाचार हो जाते हैं। लोग कहते है कि अंतिम यात्रा की यात्रा ही सबसे सुखद यात्रा है। बात तो सही है,क्योंकि उस समय माया-मोह त्याग कर आत्मा शरीर त्याग कर देता है। दुख,सुख,वेदना आदि तो केवल शरीर के लिए है और एक बात,अंतिम यात्रा तो चार कंधों पर होती है।
यात्रा तो हम उसे भी मानते हैं जब कोई खास कार्य प्रारंभ करते हैं,इसलिए हमें ध्यान रखना है,जो भी हम यात्रा करें , प्रस्तुति सही ढंग से हो और अपरिहार्य चीज़,सोच आदि से और सुखद हो सकती है। तब जीवन की अंतिम यात्रा भी सुखद एवं सार्थक हो सकती है।
#वाणी बरठाकुर ‘विभा’
परिचय:श्रीमती वाणी बरठाकुर का साहित्यिक उपनाम-विभा है। आपका जन्म-११ फरवरी और जन्म स्थान-तेजपुर(असम) है। वर्तमान में शहर तेजपुर(शोणितपुर,असम) में ही रहती हैं। असम राज्य की श्रीमती बरठाकुर की शिक्षा-स्नातकोत्तर अध्ययनरत (हिन्दी),प्रवीण (हिंदी) और रत्न (चित्रकला)है। आपका कार्यक्षेत्र-तेजपुर ही है। लेखन विधा-लेख, लघुकथा,बाल कहानी,साक्षात्कार, एकांकी आदि हैं। काव्य में अतुकांत- तुकांत,वर्ण पिरामिड, हाइकु, सायली और छंद में कुछ प्रयास करती हैं। प्रकाशन में आपके खाते में काव्य साझा संग्रह-वृन्दा ,आतुर शब्द,पूर्वोत्तर के काव्य यात्रा और कुञ्ज निनाद हैं। आपकी रचनाएँ कई पत्र-पत्रिका में सक्रियता से आती रहती हैं। एक पुस्तक-मनर जयेइ जय’ भी आ चुकी है। आपको सम्मान-सारस्वत सम्मान(कलकत्ता),सृजन सम्मान ( तेजपुर), महाराज डाॅ.कृष्ण जैन स्मृति सम्मान (शिलांग)सहित सरस्वती सम्मान (दिल्ली )आदि हासिल है। आपके लेखन का उद्देश्य-एक भाषा के लोग दूसरे भाषा तथा संस्कृति को जानें,पहचान बढ़े और इसी से भारतवर्ष के लोगों के बीच एकता बनाए रखना है।
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