स्पष्ट अभिव्यक्ति जब अपनी हो आशा,
सबसे सुलभ,सशक्त,सुन्दर लगे मातृभाषा।
गैर भारतीय भाषाएं बहुत ही भरमाएं,
शब्द प्रचुर मिले न अभिव्यक्ति लड़खड़ाए ।
पठन-पाठन, जपन-छापन,अपूर्ण प्रत्याशा,
अपनी संस्कृति न मिले, उड़ न सके आशा।
किस्से, कहानी, कविता की भाषाएं खान हैं,
विज्ञान,प्रौद्योगिकी का न अपना आसमान है।
भारतीय प्रतिभाएं ही इस क्षेत्र की अभिलाषा,
फिर भारतीय भाषाएं क्यों खाएं झांसा।
कब तक अनुवाद पर भाषाएं चलेंगी,
भाषाई बवंडर है,कब आंधी थमेगी।
विदेशी भाषाएं क्यों लगे खील-बताशा,
भारतीय भाषाएं क्यों देख रही तमाशा।
विज्ञान के लेखक मातृभाषा में जो लिखें,
प्रौद्योगिकी के कूट शब्द मातृभाषा में जो खिलें।
भारतीय भाषाओं के प्रति उभरे विश्व जिज्ञासा,
फिर माइक्रोसॉफ्ट यहीं धाए, मिल काम करे ‘नासा’।
#धीरेन्द्र सिंह
परिचय : धीरेन्द्र सिंह का मुंबई महानगर में रहते हुए हिन्दी के प्रति विद्यालय स्तर से ही आकर्षण बढ़ता-गहराता गया। यही वजह है कि,हिन्दी साहित्य ने आपको एक सोच ही नहीं दी,वरन व्यक्तित्व को एक आधार प्रदान किया है।इनके अनुसार अध्यापन करते-करते बैंकिंग में राजभाषा अधिकारी बन जाना आज तक आश्चर्यजनक परिर्वतन है। नौकरी के दौरान अनेक स्थानान्तरण ने देश में हिन्दी के विविध रूपों को समझने दियाहै तो राजभाषा हिन्दी के प्रति अपना योगदान देना अब इनकी आदत हो गई है। आपकी यही इच्छा है कि हिन्दी साहित्य की चलनी से राजभाषा रूपी चाँद को सँवरते हुए देखते रहें।