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पंचतत्व ही है,
हर जीव का
जीवन का
आधार अस्तित्व है।
पंच तत्वों से ही
जीवन का निर्माण,
सभी का होता है।
जीवन का अन्त भी
पंच तत्वों में होता है।
बच्चे जब पैदा होते हैं,
घर-परिवार में सभी को,
खुशियाँ देकर हंसाते हैं।
पंच तत्वों को पाकर,
हंसी-खुशी जीते हैं।
बड़े होकर दुनिया की,
मोह-माया में भूल जाते हैं।
अपने-पराए के लालच में,
फंसकर भटक जाते हैं।
बस तेरे-मेरे का आपस,
में भेदभाव करते हैं।
तेरा-मेरा का भेदभाव,
इन्सान को भटका देता है
भगवान से दूर कर देता है।
पापों की गठरी का बोझ
इकट्ठा कर लेता है,
सुख पाकर सब कुछ
भूलकर राह भटक जाता है।
दुख पाकर रोता है,
चीखता है चिल्लाता है।
जब तक समझता है,
बहुत देर हो जाती है।
जीवन का अन्त हो जाता है,
पंच तत्व में विलीन
कर दिया जाता है।
जीवन का अंतिम सत्य,
यही है,वह भी पा जाता है।
मोह-माया सबकुछ,
यहीं पर धरा रह जाता है॥
#अनन्तराम चौबे
परिचय : अनन्तराम चौबे मध्यप्रदेश के जबलपुर में रहते हैं। इस कविता को इन्होंने अपनी माँ के दुनिया से जाने के दो दिन पहले लिखा था।लेखन के क्षेत्र में आपका नाम सक्रिय और पहचान का मोहताज नहीं है। इनकी रचनाएँ समाचार पत्रों में प्रकाशित होती रहती हैं।साथ ही मंचों से भी कविताएँ पढ़ते हैं।श्री चौबे का साहित्य सफरनामा देखें तो,1952 में जन्मे हैं।बड़ी देवरी कला(सागर, म. प्र.) से रेलवे सुरक्षा बल (जबलपुर) और यहाँ से फरवरी 2012 मे आपने लेखन क्षेत्र में प्रवेश किया है।लेखन में अब तक हास्य व्यंग्य, कविता, कहानी, उपन्यास के साथ ही बुन्देली कविता-गीत भी लिखे हैं। दैनिक अखबारों-पत्रिकाओं में भी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। काव्य संग्रह ‘मौसम के रंग’ प्रकाशित हो चुका है तो,दो काव्य संग्रह शीघ्र ही प्रकाशित होंगे। जबलपुर विश्वविद्यालय ने भीआपको सम्मानित किया है।
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Wed Jan 10 , 2018
राजपथों ने दिया भरोसा तोड़ दिया है, पगडंडी लाचार करे भी तो आखिर क्या। ऊजड़ होते गाँव सूखते खलिहानों में, जीवन की उम्मीद ढूँढती बूढ़ी नज़रें कभी मना करती थी उनके गाँवों में जो, दीवाली वो ईद ढूँढती बूढ़ी नज़रें पास नहीं बुधिया चाचा के रुपया-पैसा, ऊपर से बीमार,करे भी […]
*दोहा मंजरी
हैप्पी हिंदी डे चला,डे नाइट कल खूब।
चुल्लू भर पानी लिए,मरी शर्म से डूब।।
बैनर लेकर हाथ में,बोले बरखुर्दार।
हिंदी पढ़ना मस्ट है,इससे कर लो प्यार।
डेली हिंदी बोलिए,विदाउट हेज़िटेट।
हिंदी को देते रहें,रेसपेक्ट औ वेट।।
आज अभी से कीजिए,हिंदी में हर काम।
लिखना अब आरंभ हो,हिंदी में शुभ नाम।।
रोज़ी पिंकी फेयरी,ऐन ट्विंकल जॉन।
मूक बने सुनते रहे,आज सभी फरमान।।
जान रहे थे वे सभी,लाख लगा ले जोर।
मिलने वाली है नहीं,इन बातों को ठौर।।
भारत में जबतक रहे,अंग्रेजी खुश हाल।
गलने वाली है नहीं,यहाँ किसी की दाल।।
*ममता बनर्जी “मंजरी”*
दोहा मंजरी
जिस घर में होता नहीं,नारी का सम्मान।
कैसे रह सकते भला,उस घर में भगवान।।
कहलाती नारी सदा, अपने घर की शान।
बिन नारी के घर लगे,दुखमय नर्क समान।।
नारी अपनी कोख से, जनती है सन्तान।
प्रसव पीर सहकर कठिन,बनती मात महान।।
बन बेटी मुंडेर पर,करती है किलकार।
बहना बन संसार में,खूब लुटाती प्यार।।
बन जाती है प्रेयसी,थाम प्रणय की डोर।
बधू बनी ससुराल में,पा लेती है ठौर।।
किन्तु दुःख होता बहुत,सुन नारी का हाल।
जब समाज समझे यथा,नारी है जंजाल।।
मारी जाती कोख में,कन्या भ्रूण हजार।
चलते इनके अंग में,तेजधार हथियार।।
बलात्कार व्यवहार से,नारी होती जार।
कोस-कोस कर भाग्य को,रोती खुद से हार।।
झोंकी जाती आग में,धन की खातिर रोज।
कौन बसा मुजरिम यहाँ,चलो करें हम खोज।।
ममता कहती मत बनो,मानव तुम हैवान।
नारी से मिलती हमें,इस जग में पहचान।।
नारी को पूजो सदा,मत करना अपमान।
नारी को देते रहो, खूब मान- सम्मान।।
*ममता बनर्जी “मंजरी”*