विदेशों में राष्ट्रभाषा की प्रभुविष्णुता

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नीदरलैंड देश में ग्रीष्मावकाश को `समर वैकेंसी` और ग्रीष्म समय को ‘समर टाइद’ कहते हैं क्योंकि इस भाषा में समय के लिए `टाइद` शब्द का प्रयोग होता है। ग्रीष्म ऋतु के शुरू होते ही ग्रीष्म समय और अवकाश का खुमार यहां के जीवन में शुमार हो जाता है। उसका एक कारण यह भी है कि,यूरोपीय धरती पर ग्रीष्म का प्रकोप प्रचंड नहीं होता है। फूलों-फलों के साथ हरियाली अपने चरम सौंदर्य के साथ लहराती रहती है। २० से ३० डिग्री के बीच दिन का तापमान रहता है और रात में १० डिग्री के आसपास तापमान में गिरावट आती है,साथ ही सूर्यास्त भी रात्रि ९ बजे के बाद ही होता हैl बादल भी जब-तब आकाश में क्रीड़ा करने चले आते हैं। लुभावनी ऋतु की धूप-छांव आनंददायी होती है,जिससे सैलानी होने का यह अवकाश इस समय जीवन के भुजपाश में और अधिक विस्तार ले लेता है। ऐसे समय में यूरोपीय देशों के महत्वपूर्ण शहरों,समुद्र तटों और पर्वतीय अंचलों में ग्रीष्मकालीन महोत्सव आयोजित होते हैं। जंगलों और पहाड़ों के आसपास के गांवों के प्राकृतिक वैभव में जीने- खेलने के लिए यूरोपीय परिवार अपने कैंपर्स और केरेफिन लेकर पहुंच जाते हैं। मनोरंजन और आनन्द का टेन्ट खुल जाता है। सब कुछ मनोरम मादकता में तब्दील होने लगता है। यूरोप के समुद्रतटीय गांवों और शहरों की जैसे बांछें ही खिल जाती है। रेस्तरां की काया टेरेस के रूप में सड़कों तक पसर आती है। ऐसे में राष्ट्र भाषाओं के वैभव का वर्चस्व देखते ही बनता है। गहरे अर्थों में महसूस होता है कि राष्ट्रभाषा ही राष्ट्र होती है और उसकी शक्ति जिसे एक व्यक्ति में,एक बच्चे से लेकर रोलेटर चलाकर रेंगते हुए वृद्धों में महसूस की जा सकती है।
दरअसल `राष्ट्रभाषा` से ही राष्ट्र की पहचान बनती है और उसी से उस देश के नागरिकों की अस्मिता बनती है, क्योंकि देश-भाषा में ही देश का प्रतिनिधित्व होता है। जिस तरह से भाषा से देश की पहचान होती है,उसी तरह देश से भाषा की पहचान बनती है। दोनों में समाहित होने का संबंध है।
भाषा में संस्कृति के स्रोत अनुस्यूत (पिरोए) रहते हैं, जिसमें हमारे राष्ट्र की अभिव्यक्ति के सूत्र समाहित होते हैं। हम सबकी आकांक्षाओं के स्वप्न भाषा में ही अपनी आंखें खोलते हैं। किसी भी दूसरे देश की वास्तविक नागरिकता उस देश की भाषा के जानकार होने पर ही संभव होती है। यही कारण है कि किसी भी दूसरे देश की संस्कृति को जीने और जीतने का सुख उस देश की भाषा सीखने पर ही संभव हो पाता है। यूरोप के जर्मनी,फ्रांस, इटली,स्पेन,पुर्तगाल,नार्वे,डेनमार्क और पोलैंड जैसे देशों की अपनी राष्ट्रभाषा है। उन्हीं भाषाओं में इन देशों का राजकाज और शिक्षा-संस्कृति संचालित होती है। यद्यपि, इन देशों में विश्व के कई देशों के धर्म,जाति,संप्रदाय और संस्कृति के लोग रह रहे हैं,पर वह उसी देश की राष्ट्रभाषा को अपनाए हुए अपना जीवन-जीविका जीते हैं,इसलिए वह राष्ट्र भी अपने राष्ट्र परिवार के नागरिक की तरह उन्हें अपनाए रहता है। नीदरलैंड सहित यूरोप के किसी भी देश में जीविका और जीवन में अंग्रेजी का कोई प्रवेश नहीं है। कोई अख़बार और पत्रिका अंग्रेजी में प्रकाशित नहीं होती है। सड़क,बस,रेल यात्रा की सारी सूचनाएं उस देश की अपनी राष्ट्रभाषा में लिखी रहती हैं। दरअसल अंग्रेजी प्रवेश न होने के कारण ही यूरोपीय,कैरिबियाई और लातिन अमेरिकी देशों की अपनी भाषाएं और उनका सांस्कृतिक चरित्र बचा हुआ है। राष्ट्रभाषा के वजूद से ही राष्ट्र के एकत्व की छवि बनती है। भाषा के दर्पण में संगठित राष्ट्र का दैदीप्यमान स्वरूप उभरता है। होटल रेस्तरां के स्वागत कक्ष में पहुंचते ही उस देश का ही नागरिक यदि यात्री के रूप में अपने देश की भाषा में संवाद करता है,तो स्वागत डेस्क की बाला के चेहरे में अपरिचय के बावजूद मुस्कुराहट थिरकने लगती है और उसकी मुस्कुराहट को देखते ही आगंतुक यायावर की थकान भी बगैर प्रयास के उतर जाती हैl इस तरह नाम और अजनबी लोगों के बीच भी राष्ट्र-भाषा अपनी तरह से आत्मीय रिश्ता रच देती है जो बिल्कुल ही सहज ढंग से घटित होता है और अनपेक्षित रहता हैl ऐसी ही मनोरम स्थितियां यूरोपीय देशों के रेस्तरां में घटित होती हैं, लेकिन यूरोपीय देशों में यदि दूसरे देश,जाति,धर्म, संस्कृति और समाज के लोग रहते हैं तो वे उस देश की राष्ट्रभाषा को अपनाए ही हुए हैं तो,उस राष्ट्र परिवार के सदस्य के अपने तरीके होते हैं। ऐसे में यात्रा के सुख में करिश्माई आनंद के चमत्कार की अनुभूति होती है। ऐसा लगता है कि,राष्ट्रभाषा में सच्ची जादुई शक्ति होती हैl हर देश की भाषा में ईश्वरीय शक्ति होती है और सच्चे अर्थों में वह किसी भी भाषा के समानांतर प्रभावशाली भी होती हैl तभी तो यूरोपीय कैरिबियाई देश-द्वीप और लातिन अमेरिकी देशों में रहने वाले नागरिक फिर वह नीग्रो, पाकिस्तानी,या किसी भी देश,जाति,धर्म के ही क्यों न हों,लेकिन यदि वह उस देश का पासपोर्टधारी है और उस देश की राष्ट्रभाषा को अपने जीवन में अपनाए हुए संवाद करता है तो उसे वहां की सुरक्षा,संरक्षण और अपनापन स्वत: ही हासिल है।
साथ ही यात्राओं के दौरान मेरा यह भी अनुभव रहा है कि,जिस देश में व्यक्ति वास करता है यदि वहां की भाषा को ही अनवरत अपने जीवन में प्रयोग में लाता है तो फिर वह किसी भी देश,जाति,धर्म,समाज और संस्कृति का विस्थापित व्यक्ति होने के बावजूद उसे उस देश द्वारा सम्मान और आत्मीयता प्राप्त होती है। वस्तुतः,राष्ट्रभाषा के समक्ष रंग,जाति और धर्म का कोई भेद कारगर नहीं हो पाता है। आनुवांशिक सूत्र पर आधारित ये सारे भेद भी राष्ट्रभाषा प्रयोग के अवसरों पर भी बेअसर हो जाते हैं। या यूं मानें कि,राष्ट्रभाषा भवन में आते ही सारे भेद स्वत: तिरोहित हो जाते हैं। कुछ भी दूसरे होने से पहले वे उस राष्ट्र के होते हैं,जहां की भाषा वे बोलते और लिखते हैं। गंभीरता से सोचा जाए तो आधुनिक समय में राष्ट्रभाषा ही ऐसी पारसमणि है,जो सबको एक असर और चमक में रंग देती है और उसके आचरण से उस देश की राष्ट्रभाषा की संस्कृति की सुगंध आने लगती हैl गंभीर अर्थों में भाषा ही संस्कृति है,संस्कृति को हम भाषा द्वारा पहचानते और अपनाते हैं।
हॉलैंड देश में सूरीनामी हिन्दुस्तानियों द्वारा डच भाषा अपनाए होने के कारण वे डच हैं,लेकिन हिन्दी भाषा परिवार की सूरीनामी हिन्दी (हिन्दुस्तानी) अपनाए होने के कारण वे भारतीय भी हैं। उन्हें भाषा की ओर से दोनों देशों की नागरिकता प्राप्त है और दोनों ही देश उन्हें अपना-अपना नागरिक मानते हैं। इस तरह राजनीतिक, सामाजिक और देश के घर पर डच भाषा अपनाए होने के कारण नीदरलैंड देश की नागरिकता तो हासिल है ही, साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर हिन्दुस्तानी भाषी होने के कारण उन्हें भारतीय होने का गौरव भी प्राप्त है,क्योंकि उनके घर,परिवार,धर्म,संस्कृति और जीवन की भाषा हिन्दुस्तानी है और वे हिन्दुस्तानी के रूप में ही जाने पहचाने जाते हैं। वस्तुतः पूरे विश्व में हिन्दुस्तानी और हिन्दी भाषा परिवार की बोली बोलने वाले नागरिकों की भाषा के कारण हिन्दुस्तानी और भारतीय होने की पहचान है। यूरोपीय, कैरीबियाई और लातिन अमेरिकी देशों में भाषा को लेकर कोई छल-कपट नहीं है। इसलिए भाषा को लेकर दोगले चरित्र के लोग इन देशों में नहीं हैं,जबकि भारत और विश्व के अन्य देशों में भारतीय लोग मंचों,मीडिया,पत्रकारों और कैमरा तक तो स्वयं को राष्ट्रभाषा हिन्दी तक से जुड़े रहते हैं,लेकिन उनके प्रभाव से हटते ही अंग्रेजी या अपनी अन्य भाषाओं में संवाद करने लगते हैं। जिस तरह से पात्र अपने चरित्र अनुसार संवाद बोलता है,वैसे ही ये राष्ट्रभाषा हिन्दी को मात्र मंच और मीडिया के अवसरों पर उपयोग में लाते हैं। नीदरलैंड सहित यूरोप के किसी भी देश की राष्ट्रभाषा को लेकर कोई दिवस भी नहीं है। राष्ट्रभाषा सप्ताह और पखवाड़े का तो कोई सवाल ही नहीं है। न ही किसी भी भाग में इसका कोई पद या अधिकारी ही है। एशिया में भी भारत के अलावा शायद ही ऐसा कोई देश हो जहां अंग्रेजी भाषा का जानलेवा वर्चस्व हो जिससे राष्ट्रभाषा और प्रदेश भाषाओं के प्राण संकट में पड़ जाते हों। अंग्रेजी भाषा से होने वाले नुकसान को यूरोप के भाषाविद् ठीक से पहचानते हैं,इसलिए अपनी भाषा- संस्कृति की रक्षा निमित्त अंग्रेजी और अंग्रेजीयत से कोसों दूर रहते हैं।
इंग्लैंड,स्कॉटलैंड,आयरलैंड,दक्षिण अफ्रीका,अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया,ब्रिटिश गयाना,त्रिनिदाद एंड टोबैगो आदि देशों के अलावा अन्य देशों में अंग्रेजी का प्रभाव नहीं के बराबर है,इसलिए भारत का अधिकतर बुद्धिजीवी वर्ग इन्हीं देशों में अपना प्रभुत्व बनाने के लिए प्रयत्नशील रहता है। उन देशों में बसने के लिए भाषा और संस्कृति का संघर्ष भी नहीं है,लेकिन जापान हो या चीन, इंडोनेशिया हो या थाईलैंड,बर्मा हो या फिजी,यूरोप हो या रूस,कैरिबियाई देश हों या दक्षिण अमेरिका के देश, ब्राजील,बेनेजुएला,फ्रेंच गयाना,अर्जेंटीना,चिली आदि इन सभी देशों की अपनी राष्ट्रभाषा है। वे अपने देश की राष्ट्रभाषा में ही जीते हैं। उसी में उनकी शिक्षा होती है। उसी में यह नौकरी करते हैं। उनकी भाषा घर से लेकर कार्यालय तक उनके साथ रहती है। उसी भाषा में वे नाचते-गाते और उत्सव मनाते हैं और उसी में सपने भी देखते हैं।
अतः स्पष्ट है कि,राष्ट्र की एक भाषा ही पूरे राष्ट्र को एक संस्कृति प्रदान करती है और उसी के बल पर पूरे देश को एकरूपता में पिरोती है,जिसके आधार पर राष्ट्र विश्व में अन्य देशों के साथ आंखें मिलाता है। वस्तुतः,राष्ट्रभाषा राष्ट्र से नागरिकों को इस सीमा तक आबद्ध करती है कि नागरिक गहरे अर्थों में राष्ट्र का जामा पहन लेता है और वह उसके जीवन की पहचान बन जाता है। राष्ट्र के नाम से ही राष्ट्रभाषा का नाम निर्मित हो जाता है। उदाहरण के लिए स्पेन की स्पेनिश,फ्रांस की फ्रेंच,जर्मनी की जर्मन रूस की रशियन। स्थिति यह है कि,राष्ट्र भाषा से ही राष्ट्र की पहचान होती है। यही कारण है कि,एक समय में हिन्दुस्तान राष्ट्र की भाषा हिन्दुस्तानी थी,और डेढ़ सौ साल पहले जीविका निमित्त हिन्दुस्तान से दूसरे देशों में पहुंचाए गए हिन्दुस्तानियों की अपनी संवाद भाषा आज भी हिन्दुस्तानी ही है,लेकिन हिन्दुस्तान ने अपना नाम `इंडिया` रखकर अपनी राष्ट्रभाषा की पहचान भी खो दी है।
इन देशों की राष्ट्रभाषा एक होने का दूसरा सकारात्मक परिणाम यह भी देखने को मिलता है कि,यहां की उपभोग की समस्त सामग्री फिर वह चाहे तकनीकी हो या सुपर मार्केट की हो,उन सब पर सारी सूचनाएं उस देश की राष्ट्रभाषा में ही अंकित होती है,जिस देश में वे बिकती हैं। यहां तक कि,होम्योपैथिक औषधियां जिनके वैश्विक स्तर पर एक ही नाम है लेकिन उनके संदर्भ में सारी सूचनाएं जिस देश में वे बिकती है,उसी भाषा में लिखी होती हैं। उसी तरह से नीविया,डोव जैसी कॉस्मेटिक क्रीम तथा जिलेट क्रीम और ब्लेड के साथ भाषा का व्यापारिक रिश्ता है। व्यापार तो उपयोगकर्ताओं के बीच में ही होता है,इसलिए उन्हीं की भाषा में होना अनिवार्य और आवश्यक भी है।
इस तरह से एक राष्ट्रभाषा से सिर्फ राष्ट्र की संस्कृति को ही एक पहचान नहीं मिलती है,अपितु उस राष्ट्र की वस्तुओं के व्यापार की भी उस राष्ट्र के भीतर विश्वसनीय पहचान बनती है। राष्ट्र की भाषा का आना जिस तरह से व्यक्ति की शक्ति होता है,उसी तरह से राष्ट्र की भी अक्षत शक्ति होती है इसलिए अक्षय भी। राष्ट्रभाषा के व्यवहार में आते ही उसमें वह जादुई शक्ति का संचरण प्रारंभ हो जाता है कि पूरा राष्ट्र एक होने लगता है,सारे भेद गिरने लगते हैं और राष्ट्रभाषा के अपनाने और बोलने में व्यक्ति उस देश के समभाव का अपना आत्मीय आदमी हो जाता है। उसे उस देश के सारे अधिकार मिल जाते हैं। वह देश उसका अपना हो जाता है और वह देश का होता है। राष्ट्रभाषा ही अपने राष्ट्र की और उसकी सीमाओं की वास्तविक पहरेदार है। सैनिक यदि हथियारों द्वारा सरहदों पर सीमा की रक्षा करता है,तो राष्ट्रभाषा राष्ट्र के भीतर अंतरंग और आंतरिक शक्ति की रक्षा करती है। साथ ही देश के भीतर संस्कृति के अंदर आने वाली दरारों से देश को बचाए रखती है। विदेशों में वहां के नागरिकों द्वारा अपनाए जाने के कारण ही राष्ट्रभाषाएं अपने देश की अस्मिता और शक्ति को संरक्षित किए हुए हैं,फिर वे चाहे फ्रांस हो,जर्मन या नीदरलैंड। (साभार-वैश्विक हिन्दी सम्मेलन)

            #प्रो. पुष्पिता अवस्थी

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संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।