भाषा और संस्कृति का नाता अनान्योश्रित

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 डॉ. मनोहर भण्डारी……..

मातृभाषा किसी व्यक्ति,समाज,संस्कृति या राष्ट्र की पहचान होती है। वास्तव में भाषा एक संस्कृति है, उसके भीतर भावनाएं, विचार  और सदियों की जीवन पध्दति समाहित होती है। मातृभाषा ही परम्पराओं और संस्कृति से जोड़े रखने की एकमात्र कड़ी है। राम-राम या प्रणाम आदि सम्बोधन व्यक्ति को व्यक्ति से तथा समष्टि से जोड़ने वाली सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां हैं। उदाहरण के लिए प्रथम सम्बोधन के समय हम हाथ मिलाकर `गुड मार्निंग` नहीं करते हैं,बल्कि हाथों को जोड़कर राम या अन्य भगवान का नामोच्चारण करते हैं। यह नामोच्चारण एक तरफ हमें मर्यादा अथवा सम्बन्धित भगवान की विशेषता के कारण अर्जित युग-युगान्तकारी ख्याति की याद दिलाता है,तो दूसरी तरफ राम जैसे शब्दों का उच्चारण हमारी अन्त:स्रावी ग्रंथियों यानी योग की भाषा में चक्रों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। हाथ मिलाकर हम रोगकारी जीवाणुओं के विनिमय से भी बच जाते हैं। हाल ही में `स्वाइन फ्लू` से अपने नागरिकों को बचाने के लिए ओबामा दम्पति ने हाथ मिलाने से रोकने हेतु मुठ्ठी भिड़ाने (फिस्ट बम्प) का अभियान चलाया था। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने `फिस्ट बम्प` से भी दस प्रतिशत रोगाणुओं के विनिमय का खतरा बताया था,यानी हाथ जोड़ना स्वत: ही श्रेष्ठ सिद्ध हो चुका है।

पहले घर के बाहर स्वस्तिक बनाते थे,और `सुस्वागतम्` लिखा होता था और अब `कुत्तों से सावधान।` बोविस और उनके साथी वैज्ञानिक ने अध्ययन के बाद सिद्ध किया कि स्वस्तिक से सर्वाधिक सकारात्मक ऊर्जा निकलती है और यह विश्व की समस्त धार्मिक या अन्य आकृतियों के मुकाबले अनेक गुना ऊर्जा देने वाली आकृति है,जिससे एक मिलियन बोविस ईकाई की ऊर्जा निकलती है। इसी तरह पहले हमारे साथ कुछ अनपेक्षित घटित हो जाता था तो हम भगवान का नाम (हाय राम, या हे भगवान आदि) लेते थे। इस तरह हमारी अपेक्षा परमात्मा की कृपा पाने की होती थी,ताकि परमात्मा को याद दिला सकें कि,तेरी कृपा की जरूरत है,जबकि इन दिनों नई पीढ़ी ऐसे अवसरों पर `ओह शिट` अर्थात् मानव मल को याद करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो तत्कालीन अनपेक्षित स्थिति में उनकी अपेक्षा विष्ठा से मदद की हो गई है। भारतीय परम्पराओं के अनुसार तो विकट या संकट की घड़ी में भगवान के नाम की तरह अशुभ वस्तु का स्मरण अनिष्ट को आमन्त्रित करने जैसा माना जाता है। विदेशों में सुबह के नमस्कार के लिए`गुड मॉर्निंग` शब्द का उपयोग होता है। वास्तव में यह शब्द एक तरह से शुभकामना है कि,आपको आज सूर्य के दर्शन हो जाएं,क्योंकि कई देशों में सूर्य भगवान साल में केवल १५०-२०० दिन ही दिखाई देते हैं। इस कारण वहां के लगभग  २० प्रतिशत  नागरिक सर्दियों में सीजनल अफेक्टिव डिसआर्डर(सेड) से ग्रस्त हो जाते हैं। हम पर तो सूर्य भगवान लगभग हर दिन ही कृपा करते हैं। हमारी मार्निंग तो उस दृष्टि से वैसे ही हर दिन गुड होती है। हाथ जोड़ने,नमन और झुकने की अपनी वैज्ञानिकता है। अर्थात् एक भाषा के नष्ट होने का अर्थ संस्कृति,विचार और एक जीवन पद्धति का मर जाना होता है,इसलिए भाषा को बचाना बहुत जरूरी है। इसे फौरी तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए।

भारतीय भाषाओं की वैज्ञानिकता

फ्लोरिडा स्थित विश्वविद्यालय ने बताया था कि,देवनागरी ऐसी भाषा है,जिसमें जीभ के सभी स्नायुओं का उपयोग होता है,रक्त संचार बढ़ता है,मस्तिष्क शान्त,(माइंड रिलेक्स),मस्तिष्क की बेहतर क्रियाशीलता (बेटर फंक्शनिंग ऑफ़ ब्रेन) और स्फूर्ति। इसके अतिरिक्त रोगरोधक शक्ति का विकास यानी बीमारियों से बचाव भी और रोग हो जाए तो उनसे रक्षा भी।

 

आत्मीयता बनाम आवश्यकता और उपयोगिता नेशनल ब्रेन सेन्टर में सम्पन्न एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार `हिन्दी या भारतीय भाषाएं पढ़ते और लिखते समय मस्तिष्क के दोनों तरफ के गोलार्द्ध सक्रिय होते हैं,जबकि अंगरेजी पढ़ते समय केवल बांया ही जागता है।` यह वैज्ञानिक मत है कि  बांया मस्तिष्क तर्क, विश्लेषण,खण्ड-खण्ड दृष्टि और गणित से सम्बध्द है और दांया आत्मीयता,भावना,संवेदना,कला,दया,ममता,करुणा,संगीत,काव्य,वात्सल्य और वस्तु को समग्रता से देखने आदि का प्रतिनिधित्व करता है। उक्त अध्ययन के प्रकाश में यह कहा जा सकता है कि,हिन्दी या भारतीय भाषा पढ़ने वाले व्यक्ति का विकास संतुलित रूप से होगा,इसकी सम्भावना अधिक रहती है। यह बात सौ प्रतिशत सही है कि,तर्क और गणित यानी आवश्यकता और उपयोगिता प्रधान व्यक्ति दया,ममता, करुणा आदि गुणों की दृष्टि से उतना सम्पन्न नहीं रहेगा। अंगरेजी भाषा से बांया मस्तिष्क ज्यादा सक्रिय और विकसित होता है अथवा नहीं,इस बात का निर्णय दो-तीन उदाहरणों से आप तय कर सकेंगे। अंगरेजी भाषा वाले देशों में पति-पत्नी के बीच तलाक की नौबत जरा-जरा-सी बातों के कारण आ जाती है। ऐसी छोटी-छोटी बात कि,विश्वास ही नहीं हो पाता है। कुछ साल पहले अखबार में खबर पढ़ी थी कि, अमेरिकी दम्पति के बीच टूथपेस्ट ज्यादा लगाने का विवाद इतना बढ़ा कि तलाक हो गया था। वैसे भी वहां विवाह तो बड़ी बात है,प्रेम और मित्रता तक तर्क और गणित यानी आवश्यकता और उपयोगिता के आधार पर होते हैं तथा इसीलिए ये पवित्र सम्बन्ध भी ज्यादा लम्बे नहीं चल पाते हैं। अमेरिका जैसे देशों में मां-बाप अपनी सन्तानों को १४-१५ साल की उम्र में आत्मनिर्भर होने के लिए कहने लगते हैं। कहीं-कहीं तो घर से ही निकाल दिया जाता है,जबकि भारतीय मां-बाप अपने बच्चों को सुशिक्षित करने के बाद ही कमाने का आग्रह करते हैं,चाहे वे तीस साल के हो जाएं। मेडिकल के विद्यार्थी तो ३०-३२ साल की उम्र के पहले जीविकोपार्जन लायक नहीं हो पाते हैं। जहां तक अपने लाड़लों को घर से निकालने का प्रश्न है,वह तो सामान्यतया भारत में असम्भव है। भारत में भी अंगरेजी माध्यम से पढ़े बच्चे,बड़े होकर(तर्क और गणित को ध्यान में रखते हुए) मां-बाप को पैसा तो भेज देते हैं,पर बेटों से श्रवणकुमार जैसे एक प्रतिशत आत्मीयता के लिए मां-बाप मरते दम तक तरसते रहते हैं। आजकल तो विवाह का आधार आवश्यकता और उपयोगिता के आधार पर होने लगा है कि,पति या पत्नी की शिक्षा-दीक्षा एक-दूसरे के व्यवसाय के अनुकूल होगी या नहीं। दाम्पत्य जीवन में यदि आवश्यकता और उपयोगिता का सिद्धान्त हावी होगा तो,फिर दम्पति में परस्पर आत्मीयता का अविर्भाव भला कैसे होगा? बोया हुआ आवश्यकता और उपयोगिता का बीज ही तो फलीभूत होगा। कहीं-कहीं तो `वापरो और फेंको(यूज एंड थ्रो)` का सूत्र काम करने लगा है। मैं तो उक्त वैज्ञानिक अध्ययन को सौ प्रतिशत सही मानता हूँ,और मां-बाप को घर से बाहर करने की घटनाओं के पीछे अंगरेजी भाषा के हाथ को तर्क और गणित के आधार पर सही मानता हूं। फिर चाहे रेमंड कम्पनी के मालिक का मामला हो या फिर आशा साहनी के कंकाल की ही बात क्यों न हो। सोचिए न…क्या श्रवणकुमार के देश का एक बेटा अपनी अकेली रह रही ममतामयी माता की खैर-खबर साल-डेढ़ साल तक क्यों नहीं ले रहा था। हालांकि,इतनी घोर वीभत्स और अनपेक्षित घटनाएं अपवाद हो सकती हैं,परन्तु माँ-बाप को जमीन-जायदाद और धन के लिए मार डालने का सिलसिला तो भारत में भी शुरू हो चुका है।

 

भाषा और मनोविज्ञान 

अभी तक हुए अध्ययनों के आधार पर मनोवैज्ञानिकों की यह स्पष्ट मान्यता है कि,सम्प्रेषण की भाषा वही होना चाहिए,जिस भाषा में वह सोचता और चिन्तन-मनन करता है। वे मानते हैं कि,इससे संप्रेषणीयता सटीक और सहज तो होती ही है,साथ-साथ व्यक्ति की ग्रहण क्षमता और कार्य क्षमता भी अधिक होती है। महात्मा गांधी स्मृति मेडिकल कॉलेज,इन्दौर में सम्पन्न एक सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि,विश्विद्यालयीन परीक्षाओं में प्रावीण्य में आने वाले विद्यार्थियों में उन विद्यार्थियों का वर्चस्व रहता है,जिनकी मेडिकल में प्रवेश के पूर्व पढ़ाई हिन्दी माध्यम से हुई थी। `भारत रत्न` स्व.डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम की स्पष्ट मान्यता थी कि,मातृभाषा में शिक्षा सर्वोत्तम परिणामदायी होती है। उन्होंने १९ जनवरी २०११ को नागपुर के धर्मपीठ  विज्ञान कॉलेज की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर कहा था कि मैंने अपनी दसवीं तक की पढ़ाई अपनी मातृभाषा में ही की थी। उन्होंने श्रोताओं को सलाह दी थी कि,यदि बच्चों में रचनात्मकता का विकास करना है और उनकी ग्रहण क्षमता (ग्रास्पिंग पॉवर) विकसित करना चाहते हैं तो उसे मातृभाषा में ही पढ़ाना चाहिए। पाकिस्तान की प्राध्यापक  इरफ़ाना मल्लाह का कहना है कि,मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने से बच्चों की रचनात्मक क्षमताओं में वृद्धि होती है,जबकि दूसरी भाषाओं में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों की यह क्षमता सीमित हो जाती है। उनका कहना है कि जो बच्चे विदेशी भाषाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं,वह अपने इतिहास और सभ्यता से दूर हो जाते हैं।

मातृभाषा श्रेष्ठ क्यों?

मातृभाषा सर्वश्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि,मातृभाषा विद्यार्थी को आत्मविश्वासी और योग्य बनाती है। मातृभाषा में पढ़ाई से कक्षाओं में शिक्षक-विद्यार्थी एवं विद्यार्थी-विद्यार्थी के मध्य पारस्परिक ज्ञान का विनिमय ज्यादा और अधिक प्रभावी होता है। अनेक अध्ययनों और अब तक सरकार द्वारा बिठाए गए भाषाई आयोगों के निष्कर्षों से ज्ञात हुआ है कि,`हिन्दी` अथवा `मातृभाषा` में पढ़ रहे विद्यार्थी ज्यादा जिज्ञासु और आत्मविश्वासी होते हैं। शोध अध्ययनों और व्यक्तिगत अनुभवों में भी यह बात सामने आई है कि,मातृभाषा से दूर करने पर या अंगरेजी थोपने से विद्यार्थियों के ज्ञानार्जन पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

वास्तव में बच्चों में भाषाई और व्याकरण सम्बन्धी समझ जन्मजात होती है। वे शब्दों के अर्थ भी जानते हैं,अर्थात् सहज और स्वाभाविक व्याकरण उनकी जन्मजात(आनुवांशिक) संवेदनशीलता का संकेत देती है। जिस तरह तैराकी सिखाए बिना ही व्यक्ति को पानी में कूदने को कह दिया जाए,तो वह तैर नहीं सकता है,ठीक वैसे ही यदि विद्यार्थियों को ऐसी भाषा में निर्देश या उपदेश दिए जाएं जो उनकी समझ में न आती हो,तो वे विषय को ठीक से नहीं समझ पाएंगे।

ख्यातिलब्ध विद्वानों का कहना है कि,ऐसे बच्चे जो अपनी पैदाइशी भाषा में शिक्षा नहीं ग्रहण करते हैं,उन्हें सीखने में ढेर सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है और उनमें बीच में ही पढ़ाई या शाला छोड़ने की दर भी ज्यादा होती है।

यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि,मातृभाषा में शिक्षा से बच्चे भी ज्यादा संवादात्मक रुख अपनाते हैं और सवाल-जवाब करने में दिलचस्पी लेते हैं। जो बच्चे अपनी मातृभाषा में ठोस आधार लेकर आते हैं,वे दूसरी भाषा में बेहतर योग्यता प्राप्त करते हैं,क्योंकि जो भी बच्चों ने अपने घर में अपनी मातृभाषा में सीखा है वह ज्ञान,वे अवधारणाएं तथा कौशल अन्य भाषा में सहज ही सीख जाते हैं,अर्थात् मातृभाषा के उपयोग को रोकना बच्चे के विकास में कदापि सहायक नहीं होता है,बल्कि कालान्तर में वह बच्चे के समग्र विकास में बाधा या अभिशाप सिद्ध हो सकता हैशिक्षण संस्थानों द्वारा किसी भी बच्चे को मातृभाषा को ठुकराने के लिए बाध्य करने से बच्चों को यह संदेश भी अपने-आप ही चला जाता है कि,अपनी भाषा के साथ-साथ अपनी संस्कृति भी संस्थान के बाहर छोड़ कर आना है इसके कारण बच्चे अपनी अस्मिता और संस्कारों का कुछ हिस्सा भी धीरे-धीरे बाहर छोड़ने लगते हैं भाषा विज्ञानियों का मत है कि,इसीलिए मातृभाषा में शिक्षा तथा उसका सम्मान संस्कृति की अस्मिता बचाए रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा नहीं है कि,हमें विदेशी भाषाएं नहीं सीखनी चाहिए,अवश्य सीखनी चाहिए,लेकिन उसे एक उपयोगी विदेशी भाषा की तरह ही सीखना चाहिए

मातृभाषा में पढाएं-हिलेरी क्लिंटन

बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देने का समर्थन करते हुए अमेरिका की तत्कालीन विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने अपने भारत प्रवास में कहा था कि,अमेरिका में इस मुद्दे पर बहस जारी है। हिलेरी,जेवियर कॉलेज के विद्यार्थियों के साथ खास पारस्परिक संवाद-सत्र में हिस्सा लेने आई थीं। शिक्षा के माध्यम पर हिलेरी का कहना था, न्यूयॉर्क सिटी में प्रमुख स्कूल स्पैनिश,चाइनीज,रशियन भाषा के हैं। समाज का बड़ा हिस्सा कहता है कि बच्चों को उन्हीं की भाषा में पढ़ाया जाए, लेकिन दिक्कत यह है कि न्यूयॉर्क सिटी के स्कूलों में एक से अधिक भाषा जानने वाले शिक्षक ज्यादा नहीं हैं। अमेरिका में शिक्षा की चुनौतियों पर हिलेरी का कहना था कि अमेरिका में शिक्षा पर काफी पैसा खर्च होता है,लेकिन हम उन बच्चों के लिए कुछ नहीं कर पाते हैं जो पीछे रह जाते हैं। वहां बहुत ज्यादा असमानता है। उन्होंने कहा था कि भारत में तकनीकी शिक्षा दुनिया में सबसे श्रेष्ठ है।

मातृभाषा परम्परा की धरोहर

प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक श्यामाचरण दुबे ने कहा था कि `शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य परम्परा की धरोहर को एक पीढ़ी से दूसरी तक पहुंचाना है। इस प्रक्रिया में परम्परा का सृजनात्मक मूल्यांकन भी शामिल होता है,लेकिन क्या हमारी शिक्षा संस्थाएं भारतीय परम्परा की तलाश कर रही हैं ?`  ख्यात साहित्यकार प्रभु जोशी का कहना है कि,एक तरफ तो ताजमहल और लाल किले जैसी राष्ट्रीय धरोहर की एक भी ईंट तोड़ने पर अपराध कायम हो जाता है,तो दूसरी तरफ भाषा जैसी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक धरोहर को पूरी तरह नष्ट किया जा रहा है  और हम चुप हैं। और तो और हम भी उसमें सम्मिलित हो चुके हैं। यह हमारी आत्महीनता की पराकाष्ठा है।

मातृभाषा और मानव विकास

मानव विकास के क्रम में भाषा का एक विशिष्ट अधिकार  है,उसकी अधिमान्यता है और वरीयता है। व्यक्ति जो भाषा अपने परिवार में बोलता है,जिस भाषा में अपने संदेशों को संप्रेषित करता है अथवा जो भाषा स्थानीय समुदाय में प्रभावशाली होती है,उसमें अगर कोई अनुदेश या उपदेश दिया जाता है तो उसके कई फायदे होते हैं। मानव मस्तिष्क मातृभाषा में दिए गए संदेश को ग्रहण करने के प्रति काफी संवेदनशील होता है।

मातृभाषा में शिक्षा न देना क्रूरता

चीन ने यह शैक्षिक अवधारणा भी पूरी तरह मान ली है कि, प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए और ऐसा न करना बच्चों के साथ मानसिक क्रूरता है। मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते हुए बच्चे अन्य भाषा आनन्दपूर्वक सीखें तो यह सर्वथा न्यायसंगत तथा उचित होगा। लगभग सात दशक के अनुभव के बाद भी हमारी शिक्षा व्यवस्था में अनेक कमियां बनी हुई हैं, जिनका निराकरण केवल दृढ़ इच्छाशक्ति से ही संभव है।

भारत में राजभाषा को कुएं में धकेलने का षड्यन्त्र 

हमारे देश में हिन्दी को येन-केन प्रकरेण जबान और चलन से गायब करने की जोरदार साजिश चल रही है और हम पूरी तरह बेखबर हैंI इसके समानान्तर अंगरेजी को भारत की मातृभाषा और राष्ट्रभाषा बना दिया जाए,इसकी पुरजोर कोशिशें अनेक स्तर और विविध आयामी तरीकों से निरन्तर की जा रही है। दुनिया के अन्य देशों में उनकी अपनी मातृभाषा की क्या स्थिति है,मातृभाषा के संरक्षण,उसकी समृध्दि के लिए कहां-क्या हो रहा है,इसका अध्ययन किए बिना ही हिन्दी को राष्ट्र से निर्वासित कर कूड़ेदान में फेंकने का काम निर्बाध गति से चुपचाप चल रहा हैI टीवी चैनल्स और अखबार बहुत ही तेज गति से पढ़ने-लिखने और बोलचाल में हिन्दी के सरल शब्दों को चुपचाप हाशिए पर डालकर अंगरेजी के शब्दों को भारत के आम नागरिक के दिलो-दिमाग में डालने में निरन्तर सफल होते जा रहे हैं। यह बहुत ही गम्भीर चिन्तन-मनन का विषय है और कुछ सार्थक तथा ठोस रणनीति की अनिवार्यता का स्पष्ट सन्देश और संकेत देता हैI सरकारों से लेकर कार्पोरेट और कार्पोरेट-हितसाधक अखबार,उसके प्रवक्ता बनकर लिखने वाले सबके सब इस जुगत में हैं कि,मातृभाषा शब्द ही भारतीय मानस और बुध्दि से बाहर हो जाए।

ज्ञान नहीं,अज्ञान की ओर अग्रसर 

तमाम बाल मनोवैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, विद्वानों की गुहार को दरकिनार कर सरकारों ने कक्षा एक से अंग्रेजी पढ़ाना शुरू कर दिया,जबकि यह सिध्द हो चुका है कि मातृभाषा में शिक्षा बालक के उन्मुक्त विकास में ज्यादा कारगर होती है। वैसे भी अलग-अलग आर्थिक परिवेश के बालकों में विषय को ग्रहण करने की क्षमता समान नहीं होती है। उनके लिए अंगरेजी में पढ़ाए जाने पर और भी अधिक कठिनाई होती है,जिनका पूरा परिवेश ही अंगरेजी भाषामय हो,ऐसे परिवार देश में बहुत कम हैंI  यह बात सभी जानते हैं और साक्षी भी हैं कि हिन्दी अथवा मातृभाषा के माध्यम से जब पढाया जाता है तो बालकों के चेहरे प्रफुल्लित दिखाई देते हैं।

अपनी भाषा अपना स्वाभिमान

रुमानिया,डेनमार्क,मिश्र जैसे पिछड़े देश तक अपनी भाषा में शिक्षा देने को राष्ट्रीय गौरव मानते हैंl स्पेन और लातिन अमेरिका के ज्यादातर देशों मे स्पेनिश भाषा में शिक्षा देते हैंl जापान और जर्मनी जैसे छोटे-छोटे देश अपनी भाषा में शिक्षा देकर तकनीकी और गैर तकनीकी क्षेत्रों में दुनिया के सिरमौर बने हुए हैं। रुस,चीन,फ्रांस आदि सब देशों में उच्च शिक्षा भी अपनी मातृभाषा में दी जाती है, तथा अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण कर इन देशों के नागरिक अपने देश को शक्तिशाली बना रहे हैं। नए-नए आविष्कार कर रहे हैं, लेकिन दुनिया को ज्ञान-विज्ञान,गणित,योग,आध्यात्म देकर जगदगुरु कहलाने वाले देश के बुद्धि सम्पन्न नागरिक विदेशी भाषा पढ़कर कोई आविष्कार करना तो दूर की बात,कालिदास की तरह अपनी संस्कृति सभ्यता का ही नाश करने में जुटे हुए हैं। यक्ष प्रश्न यह है कि,जब दुनियाभर के देश अपनी मातृभाषा में शिक्षा देकर अपने देश को शक्तिशाली बना रहे हैं,तो भारत में ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? देश के युवकों को उनकी मातृभाषा में उच्च तकनीकी,विज्ञान और चिकित्सा शिक्षा देने की व्यवस्था आजादी से अब तक नहीं की गई और न ही इस दिशा में आशा की कोई किरण दिखाई दे रही है।  यानी हम अपनी जमीन खोने और अपनी जड़ों को नष्ट करने के लिए उतावले हो रहे हैं।

हमारे देश के नागरिकों को यह बताया जाना चाहिए कि स्पेन,पुर्तगाल,फ़्रांस,इटली,जर्मनी,हालैंड,रूस,चीन,जापान,अरब देश आदि में शिक्षा का माध्यम अंगरेजी नहीं है। इन देशों में प्रति ५-७ लाख व्यक्तियों में से एकाध ही टूटी-फूटी अंगरेजी जानता है। अर्थात् वहाँ सबने अपनी-अपनी भाषा के माध्यम से प्रगति की है और वे विश्व में किसी से पीछे नहीं हैं। अंगरेजी की अनिवार्यता के कारण क्या हमारी प्रतिभा कुंठित नहीं हो रही है? अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा था कि अमेरिका के प्राथमिक विद्यालयों में हिन्दी और अरबी पढ़ाना शुरू करना चाहिए,क्योंकि इन भाषाओं को न जानने के कारण वहां के लोग क्या सोच रहे हैं,हम समझ नहीं पाते हैं। अंग्रेज,अंग्रेजी तथा अंग्रेजियत के समक्ष अपने को हीनतम मानने की हमारी प्रवृत्ति सदियों पुरानी है,लेकिन व्यवस्था ने अभी भी उसे बनाए रखा है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अनेक देश स्वतंत्र हुए थे तथा इनमें से अनेक ने अभूतपूर्व प्रगति की है। उसके पूर्व चीन,सोवियत संघ और जापान के उदाहरण हैं। जिस भी देश ने अपनी भाषा को महत्व दिया वह अंग्रेजी के कारण पीछे नहीं रहा। रूस ने जब अपना पहला अंतरिक्ष यान `स्पूतनिक` अंतरिक्ष में भेजा था,तब अमेरिका में तहलका मच गया था। उस समय रूस में विज्ञान और तकनीक के शोध-पत्र केवल रूसी भाषा में प्रकाशित होते थे। पश्चिमी देशों को स्वयं उनके अनुवाद तथा प्रकाशन का उत्तरदायित्व लेना पड़ा। चीन की वैज्ञानिक प्रगति कभी भी अंगरेजी भाषा पर निर्भर नहीं रही है।

अस्तु, अंगरेजी को अपनाकर और उसको राष्ट्रीय तथा राजकीय स्तर पर बढ़ावा देने का सीधा-सीधा अर्थ यही है कि हम अंग्रेजी के व्यावसायिक मोह में पतंगों की तरह आत्मघात कर रहे हैंI राष्ट्र,संस्कृति और अपनी अस्मिता के लिए कटिबद्ध महानुभावों से करबद्ध निवेदन है कि,आपसी मतभेदों को दरकिनार कर अपनी भाषा को बचाने के लिए जी-जान से ठोस,सार्थक और सफल प्रयास करेंI अभी नहीं,तो कभी नहीं…(साभार-वैश्विक हिन्दी सम्मेलन)

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संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।