शिक्षा की भाषा,दैनंदिन कार्यों में प्रयोग की भाषा,सरकारी काम-काज की भाषा के रूप में हिन्दी को उसका जायज गौरव दिलाने के लिए अनेक प्रबुद्ध,हिन्दीसेवी और हितैषी चिंतित हैं और कई तरह के प्रयास कर रहे हैं,जनमत तैयार कर रहे हैं। समकालीन साहित्य की युग-चेतना पर नजर दौड़ाएं तो यही दिखता है कि,समाज में व्याप्त विभिन्न विसंगतियों पर प्रहार करने और विद्रूपताओं को उघाड़ने के लिए साहित्य तत्पर है। इस काम को आगे बढ़ाने के लिए स्त्री-विमर्श,दलित-विमर्श,आदि
उल्लेखनीय है कि,गुप्त जी का समय यानी बीसवीं सदी के आरंभिक वर्ष आज की प्रचलित खड़ी बोली हिन्दी के लिए भी आरंभिक काल था। समर्थ भाषा की दृष्टि से हिन्दी के लिए यह एक संक्रमण का काल था। भारतेन्दु युग में शुरुआत हो चुकी थी,पर हिन्दी का नया उभरता रूप अभी भी ठीक से अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका था। सच कहें तो आज की हिन्दी आकार ले रही थी,या कहें रची जा रही थी। भाषा का प्रयोग पूरी तरह से रवां नहीं हो पाया था। इस नई चाल की हिन्दी के महनीय शिल्पी ‘सरस्वती’ पत्रिका के सम्पादक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने गुप्त जी को ब्रज भाषा की जगह खड़ी बोली हिन्दी में काव्य-रचना की सलाह दी और इस दिशा में प्रोत्साहित किया।
गुप्त जी के मन-मस्तिष्क में देश और संस्कृति के सरोकार गूँज रहे थे। तब तक की जो कविता थी ,उसमें प्रायः परम्परागत विषय ही लिए जा रहे थे। गुप्त जी ने राष्ट्र को केन्द्र में लेकर काव्य के माध्यम से भारतीय समाज को संबोधित करने का बीड़ा उठाया। उनके इस प्रयास को तब और स्वीकृति मिली ,जब १९३६ में कांग्रेस के अधिवेशन में महात्मा गांधी से उन्हें ‘राष्ट्र-कवि’ की संज्ञा प्राप्त हुई। एक आस्तिक वैष्णव परिवार में जन्मे और चिरगांव की ग्रामीण पृष्ठभूमि में पले-बढ़े गुप्त जी का बौद्धिक आधार मुख्यतः स्वाध्याय और निजी अनुभव ही था। औपचारिक शिक्षा कम होने पर भी गुप्त जी ने समाज,संस्कृति और भाषा के साथ एक दायित्वपूर्ण रिश्ता विकसित किया। बीसवीं सदी के आरम्भ से सदी के मध्य तक लगभग आधी सदी तक चलती उनकी विस्तृत काव्य यात्रा में उनकी लेखनी ने चालीस से अधिक काव्य कृतियाँ हिन्दी जगत को दीं। इतिवृत्तात्मक और पौराणिक सूत्रों को लेकर आगे बढ़ती उनकी काव्य-धारा सहज और सरल है। राष्ट्रवादी और मानवता की पुकार लगाती उनकी कविताएं छंदबद्ध होने के कारण पठनीय और गेय हैं। सरल शब्द योजना और सहज प्रवाह के साथ उनकी बहुतेरी कविताएं लोगों की जुबान पर चढ़ गई थी। उनकी कविता संस्कृति के साथ संवाद कराती-सी लगती हैं। उन्होंने उपेक्षित चरित्रों को लिया।यशोधरा,काबा और कर्बला,जयद्रथ बध,हिडिम्बा,किसान,पञ्चवटी,नहुष
गुप्त जी का मन देश की दशा को देखकर व्यथित हो उठता है,और समाधान ढूँढने चलता है। फिर गुप्त जी स्वयं यह प्रश्न उठाते हैं कि,‘क्या हमारा रोग ऐसा असाध्य हो गया है कि उसकी कोई चिकित्सा ही नहीं है’?,इस प्रश्न पर मनन करते हुए गुप्त जी यह मत स्थिर कर पाठक से साझा करते हैं:‘संसार में ऐसा काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके,परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता है। बिना उत्साह के उद्योग नहीं हो सकता। इसी उत्साह को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है।’ इस तरह के संकल्प के साथ गुप्त जी काव्य-रचना में प्रवृत्त होते हैं।
भारत-भारती काव्य के तीन खंड हैं अतीत,वर्तमान और भविष्यत्। बड़े विधि-विधान से गुप्त जी ने भारत की व्यापक सांस्कृतिक परम्परा की विभिन्न धाराओं का वैभव,अंग्रेजों के समय हुए उसके पराभव के विभिन्न आयाम और जो भी भविष्य में संभव है,उसके लिए आह्वान को रेखांकित किया है। उनकी खड़ी बोली हिन्दी के प्रसार की दृष्टि से प्रस्थान बिन्दु सरीखी तो है ही, उनकी प्रभावोत्पाक शैली में उठाए गए सवाल आज भी मन को मथ रहे हैं:हम कौन थे,क्या हो गए और क्या होंगे अभी ? हमें आज फिर इन प्रश्नों पर सोचना-विचारना होगा और इसी बहाने समाज को साहित्य से जोड़ना होगा। शायद ये सवाल हर पीढ़ी को अपने अपने देश काल में सोचना चाहिए।
(साभार-वैश्विक हिन्दी सम्मेलन, मुम्बई)
डॉ.गिरीश्वर मिश्र(कुलपति)