साहित्य और  समाज के रिश्ते

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शिक्षा की भाषा,दैनंदिन कार्यों में प्रयोग की भाषा,सरकारी काम-काज की भाषा के रूप में हिन्दी को उसका जायज गौरव दिलाने के लिए अनेक प्रबुद्ध,हिन्दीसेवी और हितैषी चिंतित हैं और कई तरह के प्रयास कर रहे हैं,जनमत तैयार कर रहे हैं। समकालीन साहित्य की युग-चेतना पर नजर दौड़ाएं तो यही दिखता है कि,समाज में व्याप्त विभिन्न विसंगतियों पर प्रहार करने और विद्रूपताओं को उघाड़ने के लिए साहित्य तत्पर है। इस काम को  आगे बढ़ाने के लिए स्त्री-विमर्श,दलित-विमर्श,आदिवासी विमर्श जैसे अनेक विमर्शों के माध्यम से हस्तक्षेप किया जा रहा है। इन सबमें  सामाजिक न्याय की गुहार लगाई जा रही है,ताकि अवसरों की समानता और समता समानता के मूल्यों को स्थापित किया जा सके। आज देश के कई राजनीतिक दल भी प्रकट रूप से इसी तरह के मसौदे के साथ काम कर रहे हैं। आजाद भारत में ‘स्वतंत्रता’ की जाँच-पड़ताल की जा रही है। साहित्य के क्षेत्र में परिवर्तनकामी और जीवंत रचनाकार यथार्थ,पीड़ा,प्रतिरोध और संत्रास को लेकर अनुभव और कल्पना के सहारे मुखर हो रहे हैं।इन सब प्रयासों में सोचने का परिप्रेक्ष्य आज बदला हुआ है। यह अस्वाभाविक भी नहीं है,क्योंकि आज जिस देश और काल में हम जी रहे हैं वही बदला हुआ है।अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य और राजनीतिक समीकरण बदला हुआ है। संचार की तकनीक और मीडिया के जाल ने हमारे ऐन्द्रिक अनुभव को दुनिया का विराट फैलाव दिया है। ऐसे में जब इस सप्ताह ‘दद्दा’ यानी राष्ट्रकवि श्रद्धेय मैथिलीशरण गुप्त की एक सौ इकतीसवीं जन्मतिथि पड़ी तो,उनके अवदान का भी स्मरण आया,इसलिए भी कि उनके सम्मुख भी एक साहित्यकार के रूप में अंग्रेजों के उपनिवेश बने हुए परतंत्र भारत की मुक्ति का प्रश्न खड़ा हुआ था। उन्हें राजनीतिक व्यवस्था की गुलामी और मानसिक गुलामी दोनों की ही काट सोचनी थी और साहित्य की भूमिका तय कर उसको इस काम में नियोजित भी करना था।

उल्लेखनीय है कि,गुप्त जी का समय यानी बीसवीं सदी के आरंभिक वर्ष आज की प्रचलित खड़ी बोली हिन्दी के लिए भी आरंभिक काल था। समर्थ भाषा की दृष्टि से हिन्दी के लिए यह एक संक्रमण का काल था। भारतेन्दु युग में शुरुआत हो चुकी थी,पर हिन्दी का नया उभरता रूप अभी भी ठीक से अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका  था। सच कहें तो आज की हिन्दी आकार ले रही थी,या कहें रची जा रही थी। भाषा का प्रयोग पूरी तरह से रवां नहीं हो पाया था। इस नई चाल की हिन्दी के महनीय शिल्पी ‘सरस्वती’ पत्रिका के सम्पादक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने गुप्त जी को ब्रज भाषा की जगह खड़ी बोली हिन्दी में काव्य-रचना की सलाह दी और इस दिशा में प्रोत्साहित किया।

गुप्त जी के मन-मस्तिष्क में देश और संस्कृति के सरोकार गूँज रहे थे। तब तक की जो कविता थी ,उसमें प्रायः परम्परागत विषय ही लिए जा रहे थे। गुप्त जी ने राष्ट्र को केन्द्र में लेकर काव्य के माध्यम से भारतीय समाज को संबोधित करने का बीड़ा उठाया। उनके इस प्रयास को तब और स्वीकृति मिली ,जब १९३६ में कांग्रेस के अधिवेशन में महात्मा गांधी से उन्हें ‘राष्ट्र-कवि’ की संज्ञा प्राप्त हुई। एक आस्तिक वैष्णव परिवार में जन्मे और चिरगांव की ग्रामीण पृष्ठभूमि में पले-बढ़े गुप्त जी का बौद्धिक आधार मुख्यतः स्वाध्याय और निजी अनुभव ही था। औपचारिक शिक्षा कम होने पर भी गुप्त जी ने समाज,संस्कृति और भाषा के साथ एक दायित्वपूर्ण रिश्ता विकसित किया। बीसवीं सदी के आरम्भ से सदी के मध्य तक लगभग आधी सदी तक चलती उनकी विस्तृत काव्य यात्रा में उनकी लेखनी ने चालीस से अधिक काव्य कृतियाँ हिन्दी जगत को दीं। इतिवृत्तात्मक और पौराणिक सूत्रों को लेकर आगे बढ़ती उनकी काव्य-धारा सहज और सरल है। राष्ट्रवादी और मानवता की पुकार लगाती उनकी कविताएं छंदबद्ध होने के कारण पठनीय और गेय हैं। सरल शब्द योजना और सहज प्रवाह के साथ उनकी बहुतेरी कविताएं लोगों की जुबान पर चढ़ गई थी। उनकी कविता संस्कृति के साथ संवाद कराती-सी लगती हैं। उन्होंने उपेक्षित चरित्रों को लिया।यशोधरा,काबा और कर्बला,जयद्रथ बध,हिडिम्बा,किसान,पञ्चवटी,नहुष,सैरंध्री,अजित,शकुंतला,शक्ति,न वैभव आदि खंड काव्य उनके व्यापक विषय विस्तार को स्पष्ट करते हैं। साकेत और जय भारत गुप्त जी के दो महाकाव्य हैं।संस्कृति और देश की चिंता की प्रखर अभिव्यक्ति उनकी प्रसिद्ध काव्य रचना ‘भारत-भारती’ में हुई, जो गाँव-शहर हर जगह लोकप्रिय हुई। उसका पहला संस्करण १०१४ में प्रकाशित हुआ था। उसकी प्रस्तावना जिसे लिखे  भी एक सौ पांच साल हो गए,आज भी प्रासंगिक है। गुप्त जी कहते हैं ‘यह बात मानी हुई है कि,भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अंतर है। अंतर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि,यह देश विद्या,कला-कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि,इन्हीं बातों का इसमें सोचनीय अभाव हो गया है, जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुंह ताक रही है।’

गुप्त जी का मन देश की दशा को देखकर व्यथित हो उठता है,और समाधान ढूँढने चलता है। फिर गुप्त जी स्वयं यह प्रश्न उठाते हैं कि,क्या हमारा रोग ऐसा असाध्य हो गया है कि उसकी कोई चिकित्सा ही नहीं है’?,इस प्रश्न पर मनन करते हुए गुप्त जी यह मत स्थिर कर पाठक से साझा करते हैं:संसार में ऐसा काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके,परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता है। बिना उत्साह के उद्योग नहीं हो सकता। इसी उत्साह को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है।’  इस तरह के संकल्प के साथ गुप्त जी काव्य-रचना में प्रवृत्त होते हैं।

भारत-भारती काव्य के तीन खंड हैं अतीत,वर्तमान और भविष्यत्। बड़े विधि-विधान से गुप्त जी ने भारत की व्यापक सांस्कृतिक परम्परा की विभिन्न धाराओं का वैभव,अंग्रेजों के समय हुए उसके पराभव के विभिन्न आयाम और जो भी भविष्य में संभव है,उसके लिए आह्वान को रेखांकित किया है। उनकी खड़ी बोली हिन्दी के प्रसार की दृष्टि से प्रस्थान बिन्दु सरीखी तो है ही, उनकी प्रभावोत्पाक शैली में उठाए गए सवाल आज भी मन को मथ रहे हैं:हम कौन थे,क्या हो गए और क्या होंगे अभी ? हमें आज फिर इन प्रश्नों पर सोचना-विचारना होगा और इसी बहाने समाज को साहित्य से जोड़ना होगा। शायद ये सवाल हर पीढ़ी को अपने अपने देश काल में सोचना चाहिए।

(साभार-वैश्विक हिन्दी सम्मेलन, मुम्बई)

      डॉ.गिरीश्वर मिश्र(कुलपति)

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