जब कभी जाता हूँ श्मसान,
दिखते हैं दिन में कुछ अपने।
कुछ बहुत ख़ास से लोग,
कुछ प्यारे नाते-रिश्तेदार,
कुछ मेरे पुराने दोस्त-यार,
पर नज़र आता नहीं वर्तमान।
चिता से उठती हुई लौ-लपटें,
चिता में डलता हुआ घी-कपूर,
और चंदन की लकड़ी के टुकड़े,
सब बताते हैं अनेकता में एकता।
उठता हुआ धुआँ छा जाता है,
कोहरा बनकर मन मस्तिष्क पर,
और इकट्ठा कर देता है यादों की धुँध,
फिर अकेले जूझता हूँ उन यादों से।
कुरेदती हैं वे यादें कल को,
आज और आने वाले कल को,
झकजोर देती हैं अन्तस् को,
और आलिंगन होता है वर्तमान से।
क्योंकि श्मसान में वैराग्य नहीं होता,
देवताओं का स्तुतिगान होता है,
उत्सव होता है मृत्यु का,
जाने वाला ले जाता है अपने साथ
बिता हुआ कल, आज और कल।
इसलिए श्मसान पुण्य भूमि है।
मनुष्य को करवाते हैं मनुष्यता बोध,
और आलिंगन जीवन के स्थायी सुख से।
प्रभुमिलन स्थल से लौटना ,
होता है बेहद कठिन, दुरूह,
इसीलिए श्मशान ज़िंदाबाद थे,
ज़िंदाबाद हैं और रहेंगे सदा
ज़िंदाबाद।
#डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
इन्दौर, मध्यप्रदेश