पुस्तक समीक्षा- सींगवाले गधे (व्यंग्य)

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पुस्तक समीक्षा –
सींगवाले गधे (व्यंग्य)
लेखक – प्रेम जनमजेय
समीक्षक – डॉ. अखिलेश राव

देश के प्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रेम जनमजेय की पुस्तक “सींगवाले गधे” को देखते ही व्यंग्य के साथ हास्य उत्पन्न हुआ। मुहावरा पड़ा था ‘गधे के सिर पर सींग नहीं होते’ शीर्षक पढ़ते और आवरण पृष्ठ पर सिंग वाले गधे का चित्र देखते ही हास्य प्रस्फूटन स्वाभाविक था।
प्रथम पृष्ठ पर ही मेरी पगडंडी की तीसरी लाइन “मेरे लेखन का मार्ग किसी राजमार्ग जैसा सुशोभित सुगम फव्वारों से सुसज्जित सपाट मार्ग नहीं है। मेरे लेखन में अनेक मोड़ ऐसे ही हैं जैसे कि मेरे देश के हर वंचित के जीवन में है। व्यंग्य भी तो वंचित विधा ही है।“ लेखक ने अपनी इस विधा से बुद्धिमता और साहित्यिक सूझबूझ का परिचय करा दिया है।


शीर्षक रचना से ही व्यंग्य की बौछारें होने लगी “गधे में गधा ख़रीदने जा रहा हूँ, चलेंगे? एक–आध आपको भी दिलवा देता हूँ। बहुत ख़ूब” “हा हा हा श्री दुर्दशा देखी ना जाए” में नेताओं पर हाथ धो–धोकर थके लोग हाथ धोकर पीछे पड़ने लगे। सभ्य व्यंग्य सभ्य समाज पर। दो वैष्णववार्ता, कैसे किन के दिन फिरे, तू ना सुकरा हो गया राधे लाल। हर चुनाव में तेरे दिन बदलने वाले आते हैं और कुछ दिन के लिए सही तेरी झोली भर कर चले जाते हैं। राजनीति दलालों पर सीधा-सीधा व्यंग्य करता है। पूरी पुस्तक कोरोना से अछूती नहीं है सभी स्थलों पर कोरोना, क्वॉरेंटाइन, सेनीटाइज़र जैसे शब्दों का उपयोग समाज की पंगु मानसिकता को उजागर करते नज़र आते हैं। क्षेत्र कोई भी हो इस दौर में एक ही बहाना कोरोना कोरोना।
प्रभु बोर हो रहे हैं। मैं प्रभु संगरोधित हैं। धरती पर प्रभु के मंदिर और भक्त क्वॉरेंटाइन हैं। प्रभु क्षीर सागर संगरोधित हैं। प्रभु लक्ष्मी के साथ संगरोधित हैं। प्रभु लक्ष्मी के कारण संगरोधित हैं। उपरोक्त सभी में लेखक का कथातत्त्व समांतर चलता रहता है, साथ ही, कथा जाल में जनमजेय अपना काम कर जाते हैं। सभी व्यंग्य मेरा लाइनर, अथ पुरुष स्त्री संवाद, टेक सेर सावन, वसंत चुनाव लड़ रहा है, एक ये भी दीवाली है के साथ–साथ बधाई पद्मश्री तो आ गई हैं, लेकिन ‘वे अभी तक कुंवारे हैं’ में लेखक का लॉकडाउन, लॉकडाउन में लेखक समस्त रचनाएँ श्री जनमजेय को वर्तमान दौर व्यंग्य के सबसे चर्चित लेखक होने की पुष्टि करती नज़र आती हैं।
अविगत की गति में ये पंक्तियाँ –
“मैं आत्म चिंतन करता हूँ। क्या मैं खडूस हो गया हूँ?”उन्हें व्यंग्य का विश्वविद्यालय कहे जाने को सार्थकता प्रदान करता है।
लेखक की सभी रचनाएँ चुनाव लीला समाप्त, ये इश्क़ नहीं आसां, प्रवासियों का मौसम, बसंत की राजनीति, चौराहे पर इतिहास, मेंडक तुल रहे हैं, बेताकुल्फकार, यह हाथ मुझे दे दे, सुधरा छैला, बतासा पीवे, मन पंछी उड़ी उड़ी जाए, अर्थ क्रेडिट कार्ड महिमा।
लोग होली खेलने को सनद हैं और मैं होली खेलने से बच रहा हूँ। स्वयं को घर में बंद करके लोग होली से बचते हैं ये शायद मेरी तरह दूध के जले होते हैं। यहाँ आते–आते बुछरे तेज़ होने लगी हैं। मैं व्यंग्य की बरसात में भीगने लगा। यहाँ लेखक की पंक्ति में ‘ये व्यंग्य नहीं आसां बस इतना समझ लीजिए, शब्दों से वार करना शब्दों से ही समझाना है।’

#डॉ. अखिलेश राव,

इन्दौर, मध्यप्रदेश

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