कोई देख न ले

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इस बात का डर है,
वो कहीं रूठ न जायेंI
नाजुक से है अरमान मेरे,
कही टूट न जायें।।

फूलों से भी नाजुक है,
उनके होठों की नरमी I
सूरज झुलस जाये,
ऐसी सांसों की गरमी I
इस हुस्न की मस्ती को,
कोई लूट न जायें I
इस बात का डर है,
वो कहीँ रूठ न जायें I।

चलते है तो नदियों की,
अदा साथ लेके वो।
घर मेरा बहा देते है,
बस मुस्कारा के वो I
लहरों में कही साथ,
मेरा छूट न जायें I
इस बात का डर है,
वो कहीं रूठ न जायें I।

छतपे गये थे सुबह ,
तो दीदार कर लिया I
मिलने को कहा शामको,
तो इनकार कर दिया I
ये सिलसिला भी फिरसे,
कहीं टूट न जायें।
इस बात का डर है,
वो कहीं रूठ न जायें I।

क्या गारंटी है की फिरसे,
कही वो रूठ न जाएं।
मिलने का बोल कर
कही भूल न जाये।
हम बैठे रहे बाग़ में,
उनका इंतजार करके।
वो आये तो मिलने पर
देखकर हमें चले गये।।
उन्हें डर था इस बात का,
की कोई हमें देख न लेI।

जय जिनेन्द्र देव
संजय जैन “बीना” मुंबई

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