विडम्बना भी आत्महत्या कर ले

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विवाह के लिए
लड़की देखने वाले आ रहे…
सुनकर लड़की अंदर तक हर्षित
एक तरफ घर छूटने का दर्द
दूसरी तरफ़ पति प्रेम की ललक
फिल्मों के गानें तैरने लगे मन में
देह की हर इंद्रिय के द्वार से खुले
हर द्वार पर काल्पनिक पति..!
तभी एकाएक माँ ने चेताया
मंदिर आ गया आखें खोलो
वो सब लोग वहीं है..
साड़ी ठीक करो…
मंदिर पहुंचकर कुछ समझ पाती
कि दागे जाने लगे थे सवाल..
पहला सवाल…
तुम्हें खाना बनाना आता है?
न सपने पूछे? न पूछी पसंद
लड़की का पर्यायवाची
आज रसोई सा लगा…
मन हुआ खिन्न परन्तु प्रसन्न..
आखें खोज रहीं थीं पति
तभी कोई मूँछ पर ताव लिए
दाग दिया दूसरा सवाल
रसगुल्ले बना लेती हो?
मेरे परिवार को जोड़कर रखो तो?
लड़की ने हाँ में सिर हिलाया
आ रही थी दारू की बदबू
पूछा कि दारू की…?
वह बोलता कि ननद ने कहा
गंवार हो फ्रैंच डियोडेंट लगा
होने लगी नगदी जेवर की बातें
पांच लाख नगद, मोटरसाइकिल
लड़की ने किया मना माता-पिता को
सभी ने इसे रिवाज का नाम दे डाला
पुराने खेत का टुकड़ा बिका
तब जाकर अच्छा विवाह हुआ..
ससुराल पहुंचकर हो रही थीं बातें
रिश्तेदार बोले कम मिला दहेज़,
नाती होने पर, मांग लेना पच
धरो धैर्य! बहू को दबाकर रखो
मुंह दिखौनी की रस्म पूरी करो
कभी छोटी, कभी मोटी,
कभी काली, कभी विकलांग,
कभी बेरोजगार, कभी अनपढ़,
कभी जाहिल, कभी कुरूप
मुंह दिखौनी में दूर से आतीं
यह अपमानित जहरीलीं बातें
आवाज़ों को सोखकर,रही खामोश!
रात्रि शराब में तर पति का सवाल
मुझसे पहले कोई दूसरा तो नहीं?
लड़की बोली ‘आप प्रथम प्रेम’
दो बातों से पहले वह जमीन पर गिरा
मिला शराबी पति, देख मन रो पड़ा
हे! विडम्बना तू कर ले आत्महत्या
मेहंदी के हाथों ने स्व: को धुला
भारी लंहगा, भारी उपदेशों का बोझ
उतार, सादा साड़ी में गुमसुम बैठी रही
सारे सपने सारी उम्मीदें अश्रुरूप….
रातभर गश्त खा खाकर गिरतीं रहीं
सुबह हुई नाश्ता, फिर शौचालय सफाई
न जिंदगी में कभी रविवार आया
न जिंदगी ने असली प्रेम जाना
लग गयी इस बीच सरकारी नौकरी
छिड़ गयी ट्रांसफर सैलरी में जंग
मायके पैसे मत देना, ‘मैं’ की ठनी
सैलरी शकरूपी जंग में छूटा मायका
फिर नाती न होकर नातिन हुई
पूरे परिवार में पच की इच्छा पची
सभी का रोष हो गया था दूना
गर्भावस्था से लेकर पैदा तक
न दर्द पूछा न आह जानी
बस फोन पर क्या पैदा हुआ?
पति की दारू की दुर्गंध सी धूमिल
नित्य अतृप्त वासना को झेलकर
खुमारी दबा, सुबह चार बजे जागना
सफाई आदि, भोजन बनाती रही
शाम थकी आकर न पूछा हाल
पूछा तो बस शाम को क्या बनेगा?
जैसे जीवन से निचोड़
लिया गया हो बूंद- बूंद जीवन
भोजनालय से शौचालय तक
बस जिंदगी से जूझती रही
वो परिवार की नाव को बनाती,
खेवती, उबारती, नींव से
सामंजस्य बैठाती रही
वह स्व: की नींव से घिसती,
घुलती, रिसती रही, रिसती रही
खुद के रिसाव से खुद को सीती रही
अतत:, रिसाव के धागे भी पड़े कम
बढ़ गया था इतना ज्यादा जख्म़
वो जर्जर जिस़्म जमीन पर पड़ा
फिर कर दिया गया अग्नि को अर्पण
देवर बोला इनकी नौकरी मुझे मिले?
बातें आसपास भोजन की होने लगीं
तेहरवीं कब है? अकेले मर्द का क्या?
भोजन के लिए दूसरा व्याह जरूरी है?
हे! विडम्बना तू कर ले आज आत्महत्या
भोजन के नाम पर प्रथम ‘प्रेम’ नदारद

#आकांक्षा सक्सेना

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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