ये खामोशी

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ये तूफान के पहले की
शांति है या
आंधी के बाद का सन्नाटा?
हकीकत चाहे जो भी हो
लेकिन उम्मीद जो तुमने
जगाई,
उसके बाद सन्नाटे
का ये आलम ऐसा लगता
है जैसे मंजिल तो मिली
पर चैन नहीं,
पूछो अपने
आपसे कि यहाँ  बैचेन
कौन नहीं।
जंग समाप्त होने के बाद
लड़ाकों का अपने-अपने
काम में मसरूफ हो
जाना लाजमी है।
लेकिन उन तमाशबीनों का क्या,
जिन्हें इस तरह के
तमाशे की आदत
पड़ चुकी है।
जो उम्मीदें तुमने जगाई थी
उनके हकीकत में तब्दील
होने के लिए जरूरी है
तुम्हारा हरकत में आना।
सिर्फ सिंह गर्जना से
कुछ नहीं होगा।
जो कुछ तुमने कहा था
उसे सच करके
दिखाना होगा।
सब्जबाग जो तुमने
दिखाए थे,उनके हकीकत
में तब्दील होने का समय
आ गया है।
सिर्फ सीरत से बात
नहीं बनती,
सूरत भी
बदली-बदली-सी
दिखनी चाहिए।
नहीं तो फर्क ही
क्या शेष रह जाएगा
तुममें और किसी ओर में।
माना कि सबकुछ
जायज है सियासत
और जंग में,
लेकिन
भरोसा देकर भूल जाना
कभी उसूल नहीं रहा
दिल की दुनिया का।
हमारा क्या हम तो
अपने हिस्से की वफा
तुम्हें दे चुके हैं।
तय तुम्हें  करना है कि
तुमने जो भरोसा दिया था
वो दिमाग से निकला
शातिर सियासी शिगूफा
था,
या दिल का दिल
से किया सच्चा वादा ?

————#डॉ. देवेन्द्र जोशी

परिचय : डाॅ.देवेन्द्र जोशी गत 38 वर्षों से हिन्दी पत्रकार के साथ ही कविता, लेख,व्यंग्य और रिपोर्ताज आदि लिखने में सक्रिय हैं। कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है। लोकप्रिय हिन्दी लेखन इनका प्रिय शौक है। आप उज्जैन(मध्यप्रदेश ) में रहते हैं।

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