विपक्षीय विरोध के ढीले कलपुर्जे

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विपक्षीय विरोध के ढीले कलपुर्जे

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यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है, मातृभाषा.कॉम का नहीं।

घर से चौराहे तक, गली से गलियारे तक, झोपड़ी से महलों तक, किसान से कुबेर तक, संसद से सड़्क तक, सत्ता की चकाचौंध के बीच चूल्हे की अधजली लकड़ियाँ, एक अदद किसान के घर पर रखे गर्म तवे से उठने वाली भाषा का विलाप, बैंक के एटीएम के बाहर लाइन में खड़े बुजुर्ग की उबकाई लेती अनुभव की किताब और न जाने तमाम संकीर्ण पहलुओं के बीच आज एक ही नाम की गूँज उठना, संयोग से आज़ादी के बाद तीसरे गुजराती की पारी की शुरुआत है |

भारत कोई भूमि का टुकड़ा नहीं, बल्कि एक संपूर्ण प्रभुतासंपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है| इसमें संसदीय प्रणाली की सरकार है, और गणराज्य उस संविधान की व्यवस्थाओं के अनुसार प्रशासित होता है जो 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किया गया और 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ।

किसी लोकतंत्र में जनता के लिए जनता द्वारा ही चुनी हुई सरकार चलाने के मायने हैं| कभी बहुमत तो कभी अल्पमत में जोड़-तोड़ वाले गठबंधन से, जिसे भी जनादेश मिलता है, सच्चे अर्थों में लोकतंत्र में वही सत्ता का अधिकारी होता है| और उस जनादेश प्राप्त सरकार पर भी नज़रें लगाए बैठने के लिए बतौर जनता के हितैषी विपक्ष को माना जाता है |

विधायिका में विपक्ष के नेता के पद का अत्यधिक सार्वजनिक महत्व है। इसका महत्व संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष को दी गई मुख्य भूमिका से उद्धत होता है। विपक्ष के नेता का कार्य वस्तुत: अत्यधिक कठिन है क्योंकि उन्हें आलोचना करनी पड़ती है, गलती इंगित करनी पड़ती है और ऐसे वैकल्पिक प्रस्तावों-नीतियों को प्रस्तुत करना पड़ता है जिन्हें लागू करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार उन्हें संसद और देश के प्रति एक विशेष सामाजिक जिम्मेवारी निभानी होती है।
राज्य सभा में वर्ष 1969 तक वास्तविक अर्थ में विपक्ष का कोई नेता नहीं होता था। उस समय तक सर्वाधिक सदस्यों वाली विपक्षी पार्टी के नेता को बिना किसी औपचारिक मान्यता, दर्जा या विशेषाधिकार दिए विपक्षी नेता मानने की प्रथा थी। विपक्ष के नेता के पद को संसद में विपक्षी नेता वेतन और भत्ता अधिनियम, 1977 द्वारा अधिकारिक मान्यता दी गई। चूँकि देश, सत्ता के केन्द्र के बंद लिफाफे से आए तारीफों के पुलिन्दों को ही सहर्ष स्वीकार नहीं करता | कबीर दास जी के अनुसार जिस तरह हर इंसान को निंदक नियरे राखिये की तर्ज पर अपनी कमियां बताने की हिम्मत रखने वाले को सुनने का धैर्य होना चाहिए, वैसे ही एक आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ताधारी पक्ष को भी विपक्ष को सुनने और उसके साथ संवाद का रास्ता खुला रखना चाहिए|

एक दशक के कांग्रेसी राज के बाद 26 मई 2014 को सत्ता में आई बीजेपी को अपना दर्शन और नीतियां लेकर जनता के बीच आने का जनादेश मिला था| सरकार को दो साल हो गए हैं, इस अवधि में कांग्रेस ने लोकसभा में विपक्ष की भूमिका तो निभाई किन्तु उस भूमिका का संपूर्ण निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं|

सही मायने में तो साल 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद जब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को मौका मिला तो उन्होने विपक्ष का नेता बनना तक स्वीकार नहीं किया था| यक़ीनन लोकतंत्र के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के लिए उस करारी हार को स्वीकारना बेहद मुश्किल दिख रहा था| ऐसा लगता है मानो ब्रिटिश राज से मुक्ति के बाद से आजाद भारत में ज्यादातर समय केंद्र की सत्ता संभालने वाली कांग्रेस विपक्ष की भूमिका ही भूल चुकी हो |

यूपीए 1 और यूपीए 2 के दौरान कांग्रेस ने बीजेपी समेत तमाम छोटी विपक्षी पार्टियों को नजरअंदाज कर ऐसे कई फैसले लिए थे, जिन पर बहस और खुलासों की महती आवश्यकता थी,  हालांकि कई बार बीजेपी ने ही विपक्ष के विरोध के अधिकार के नाम पर सदन में इतना हंगामा किया कि कई जरूरी मुद्दों पर सार्थक बहस होने ही नहीं दी थी| वही व्यवहार दो सालों में कांग्रेस ने भी सत्ताधारी दल के विरोध के नाम पर दिखाया है|

सत्ता में आने वाला दल सैकड़ों राजनीतिक प्रपंचों और जोड़-घटाव के अलावा जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के दबाव में काम करता है| वहीं विपक्ष के पास सरकार के विरोध के अलावा अपनी खुद की कमियों का मूल्यांकन करने और उन्हें सुधारने का मौका होता है, लेकिन मोदी के सत्ता में आने से पहले जहां देश के एक दर्जन राज्यों में कांग्रेस शासित या कांग्रेस समर्थित सरकारें थीं, वहीं इन दो सालों में वह घट कर आधी रह गई हैं |

विपक्ष का काम अविश्वास प्रस्ताव, काम रोको प्रस्ताव, निंदा प्रस्ताव तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि सरकार की ग़लतियों का तार्किक और संवैधानिक विरोध दर्शाना तथा सरकार को सही मार्ग दिखना भी होता है |

जिस समय देश में सत्तासीन सरकार ने जनता के बीच नोटबंदी के एक नए मुद्दे को पर फैंक कर पूरे पखवाड़े में सुर्खियाँ बटोर ली, वहीं केन्द्र के विपक्षी दल अभी भी मुद्दों की राजनीति को छोड़कर गैर ज़रूरी बहस को अमलीजामा पहनाने में लगे हुए हैं | फिलहाल की स्थिति में कांग्रेस स्वयं के 45 सांसदों के साथ विपक्षी की भूमिका में बैठी ज़रूर है किन्तु अपरिपक्व राजनीति का अध्याय भी वही बुन रही है| लस्त-पस्त होता विपक्ष का ‘हाथ’ जनता में एक यह संदेश भी प्रचारित कर रहा है क़ि कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व का संकट गहरा रहा है| हालांकि, शीर्ष नेतृत्व का संकट तो स्वयं बनाया हुआ कल्पित पात्र ही प्रतीत हो रहा है | भारतीय लोकतंत्र को कमजोर करने में उसी कांग्रेस का हाथ नजर आ रहा है जो कभी ‘कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ’ का नारा देती थी | गाँधी- नेहरू परिवार में ही उलझी हुई कांग्रेस बतौर विपक्षी दल अपने नेता को ही जनता का चहेता बनाने में असफल होती नज़र आ रही है|

हाल ही में आए उपचुनावों के नतीजों ने राष्ट्रीय परिदृश्य में तो कांग्रेस को कमजोर कर दिया है| जनता का भरोसा जीतने की हर संभव कोशिश करने का वादा करने वाली कांग्रेस किसी भी दिशा में ठोस कदम उठाने में असक्षम ही साबित हो रही है | पुराने कांग्रेसी भी गांधी-नेहरू वंश की परिवारवाद वाली पार्टी में किसी ‘गांधी’ के बिना पार्टी के बिखर जाने का खतरा देखते हैं| वहीं सोनिया-राहुल के नेतृत्व में भरोसा खो रहे कई कांग्रेसी, पार्टी में आत्ममंथन नहीं कायाकल्प की जरूरत पर बयान दे रहे हैं| अब तो मजबूत होने के बजाए पार्टी को जोड़कर रखने वाली ‘गांधी’ नाम की रस्सी भी गल रही है|

अगले साल उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर काफी पहले से एक्शन में  दिखती कांग्रेस ने हाल ही में चुनावी गणित के पुरोधा बनकर उभरे प्रशांत किशोर की सेवाएं लेने का फैसला किया | केंद्र में मोदी तो, बिहार में नीतीश कुमार की जीत का श्रेय पाने वाले चुनावी अभियान रचने वाले किशोर शायद अधिक से अधिक यूपी में कांग्रेस को बहुत बुरी हार का मुंह देखने से बचा सकें, लेकिन जीत का लक्ष्य तो तब तक दूर का ढोल ही रहेगा जब तक सोनिया गांधी के नेतृत्व वाला दल सचमुच के योग्य ज़मीनी नेता पैदा नहीं करेगा| हालांकि, भाजपा के पास भी मोदी के बाद उतना सशक्त कोई दूसरा नेता नहीं है जो नेतृत्व की कमान संभाल सके, लेकिन कांग्रेस के सामने तो नेतृत्व का ही संकट है| जनता के विकास में कांग्रेस का जो ‘हाथ’ कई दशक तक रहा है, आज वो ही अपना चेहरा खोता दिख रहा है|

वर्तमान में नोटबंदी पर कांग्रेस का खोखला और अपरिपक्व विरोध कांग्रेस को गर्त में डाल रहा है | जहाँ कांग्रेस को नोटबंदी के पहले और बाद की अव्यवस्थाओं और वैकल्पिक उपायों पर सरकार को घेरना था, वहीं कांग्रेस ने नोटबंदी को ही ग़लत ठहरा कर जनता के बीच तमाम  कालेधन को लाने के विरोधियों में खुद को शामिल कर लिया |

दरअसल, हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी मज़बूती हमारी आज़ादी की लड़ाई में निहित है, जब महात्मा गांधी ने अहिंसा के ज़रिए सत्ता यानी आज़ादी हासिल करने का मंत्र दिया। हमने बिना हथियार उठाए, बिना कोई नरसंहार किए आज़ादी हासिल की और यही हमारे देश की जनता के खून में भी है। आज तमाम तकलीफ़ें सहकर भी जनता अगर सड़क पर नहीं उतरी है, तो इसके पीछे उसी बापू की सीख ही है, जो हमार नोटों पर मौजूद हैं।

जरा सोचिए..! यदि आज़ादी हमने हथियारबंद लड़ाई लड़कर हासिल की होती तो आज का भारत आज के जितना सहनशील कभी होता? नोटबंदी का बुरा असर अभी कम नहीं हुआ है, खासकर ग्रामीण भारत में इससे होने वाली तकलीफ़ें अभी और बढ़ सकती हैं। यक़ीनन देश की जनता कतार में है, सड़क पर नहीं, इसके लिए भारत की जनता को एक सलाम तो बनता ही है। उसी दौर में कांग्रेस का इस तरह का व्यवहार जनता के बीच अपनी साख पर ख़तरा ही पैदा कर रहा है|आख़िर जनता के बीच चेहरे रंगीन नहीं, बल्कि जो है वही जाते हैं| जनता आईना है , वहाँ तो कम से कम अपने प्रासंगिक और पुश्तैनी प्रतिष्ठा को ही लेकर जाना बेहतर होता है |

कालेधन और नोटबंदी के दौर में कांग्रेस की स्थिति को देखते हुए जनता की तरफ से एक शेर है-

गर चिरागों की हिफ़ाज़त फिर इन्हें सौंपी गई,

तो रोशनी के शहर में बस अंधेरा ही रह जाएगा…

आख़िर देश के सबसे पुराने दल पर इस तरह का संकट आना गंभीर ही नहीं, वरन गंभीरतम चिंता की स्थिति में डाल रहा है| कांग्रेस संगठन के वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं को चाहिए कि अपने राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ बैठकर चिंतन और मनन करें | संगठन का संवैधानिक ढाँचा चापलूसों से नहीं, बल्कि कर्मठ और परिपक्व योद्धाओं से पूर्ण करना चाहिए, भले ही फिर वो युवा हों|ढाल की भूमिका से बच कर मुद्दों की राजनीति करते हुए देश की जनता को विश्वास के साथ विकल्प अर्पण करना होगा, ताकि जनमानस में कांग्रेस के प्रति फिर से भरोसे की बयार लौट आए | मजबूत विपक्ष ही कल की सत्ता का पुरोधा बन जाता है, जैसा मोदी के रूप में बीजेपी को मौका मिला | जनता के बीच कांग्रेस के प्रति उम्मीद जागे और फिर ‘कांग्रेस के अच्छे दिन लौट आएँ …’

 

— अर्पण जैन ‘अविचल’

पत्रकार एवं स्तंभकार

09893877455

Arpan455@gmail.com

 

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संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।