न केवल साहित्य समाज का दर्पण होता है बल्कि समाज की दिशा और मानक भी साहित्य द्वारा ही निर्धारित होता है। इसके साथ ही यह कठोर सत्य भी स्वीकार करना होगा कि समाज के प्रभाव से साहित्य अछूता नहीं रह सकता। वैश्विक संस्कृतियों के घालमेल ने उपभोक्तावाद के चंगुल में मानवतावाद को तड़पने के लिए सौंप दिया है। अवसरवाद को कौशल के रूप में परिभाषित किया जाने लगा है। सामाजिक मूल्य अवनति की ओर निरन्तर अग्रसर है। मानव और पशुओं में फर्क मात्र शारीरिक संरचना में रह गया है। ऐसे में लेखनी द्वारा विद्रोह होना स्वाभाविक और आवश्यक भी है।
भारत में क्रान्ति का अग्रदूत सदैव गुजरात रहा है चाहे क्रान्ति किसी भी संदर्भ में हो। भारतीय समाज में मानवीय मूल्यों के उत्तरोत्तर पतन ने अहमदाबाद, गुजरात के ग़ज़लकार श्री विजय तिवारी के मानस को झकझोरकर रख दिया। हाथों में लेखनी गहकर श्री तिवारी ने 121 पृष्ठीय ‘आका बदल रहे हैं’ रच डाला। ‘आका बदल रहे हैं’ का दो आशय निकाला जा सकता है। एक अर्थ यह कि हम अपनी जरूरतों के अनुसार अपने आका बदल रहे हैं और दूसरा यह कि समय के सापेक्ष आका खुद को बदल रहे हैं। इन दोनों ही अर्थों में अवसरवाद की सड़ांध है। कलमकार ने बहुचर्चित ग़ज़ल विधा का चयन किया है। ग़ज़ल विधा मूलत: अरबी में औरत के साहचर्य में पली-बढ़ी थी। उर्दू से होते हुए हिंदी में आई और दुश्यन्त कुमार, गोपाल दास नीरज, आलोक श्रीवास्तव और विजय तिवारी जैसे लोगों ने इसे व्यापक बनाते हुए समाज के हर मुद्दों से जोड़ दिया। ग़ज़ल को गीतिका या सजल का कलेवर प्रदान किया।
आका बदल रहे हैं का रचनाकार जर्जर व्यवस्था पर कभी चोट करता है तो कभी असम्भव को सम्भव बनाने की कागजी नीति पर व्यंग्य करता है। भारतीय संस्कार के वशीभूत माँ से सर्व मंगल हेतु विनय करता है तो खोटी नीयत पर भरपूर प्रहार भी। रामराज्य की संकल्पना का भूतलीकरण करने हेतु बेचैन भी हो जाता है। उहापोह की स्थिति में भी धैर्य नहीं खोता वरन प्रयास जारी रखता है। ग़ज़ल में इश्क की चर्चा स्वाभाविक है किन्तु ग़ज़लकार ने इसे मात्र एक औपचारिकता मानकर निभाया है। मूल विषय प्यार से आगे बढ़कर जीवन की चुनौतियों से दो-दो हाथ करना है।
अत्यन्त मनोरम मुखपृष्ठ से सुसज्जित यह द्वितीय संस्करण बरबस ही चित्ताकर्षण करने में समर्थ है। विषय की विविधता से रोचकता सदैव कायम है। उर्दू के मोह से शायर अनुरक्त नहीं है। यदा-कदा आवश्यकतानुसार सामान्य बोलचाल के शब्द स्वत: आकर यथास्थान व्यवस्थित हो गए हैं। चमत्कार के चक्कर में दुरूह बनाने की बिमारी से रचनाकार पूर्णत: मुक्त है।
माँ की बंदना से आगे बढ़ती हुई पुस्तक इश्क के समंदर में गोते खाती हुई युवापीढ़ी का आह्वान करती है। रामराज्य का आह्वान करती है और फिर जीवन की न केवल प्राकृतिक बल्कि मानव निर्मित विषमताओं (कैक्टस) को ललकारती हुई सर्वे भवन्तु सुखिन: के सुखद स्वप्न को साकार करने हेतु कर्मभूमि में उतर जाती है। परिवर्तन की आस और आत्मनिर्भरता के लिए युवा पीढ़ी का आह्वान करता है शायर-
“बागडोर अब देश की तू थाम ले ऐ नौजवां,बूढ़ी उंगली को पकड़कर तू चलेगा कब तलक।मार पंजा शेर सा भाषा यही समझेगा वो,भैंस के आगे यूँ ही गीता पढ़ेगा कब तलक।”
शीर्षक को सार्थकता प्रदान करने का हुनर इस शायर की विशेषता है। व्यंग्य और सीख से चोली और दामन सा साहचर्य बनाये हुए हैं। हर व्यंग्य का उद्देश्य सीख है। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ और देश-दुनिया से बेखबर रहने को चरितार्थ करती हुई पंक्तियाँ देखें-
“फिर इक सुहाना सपना हमको दिखा रहे हैं,सुई की नोंक पर वो हाथी बैठा रहे हैं।जीवन के खंडहरों की ईटें गिर रही हैं,ऐसे समय में भी वो मल्हार गा रहे हैं।”
समय की नब्ज को टटोले बिना कोई कलमकार टिकाऊ नहीं हो सकता। ‘आका बदल रहे हैं’ के रचनाकार श्री विजय तिवारी जी एक सुलझे हुए आक्रामक कलमकार हैं। कब और कहाँ कितनी चोट करनी है जिससे परिस्थिति को सुगमता और सहजता से अपने अनुकूल बनाया जा सके, ठीक से आता है। वर्तमान परिवेश को समझने और व्यंग्य में निहित सीख को आत्मसात कर अमलीजामा पहनाने से नि:संदेह ही समाज को उचित दिशा मिलेगी। पाठकों के दिल के किसी कोने में स्थान पाना ही इस कृति का लक्ष्य है। आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध पाठक सुखद सानिध्य का सुअवसर अवश्य देंगे।
समीक्ष्य कृति: आका बदल रहे हैंसंस्करण- द्वितीयप्रकाशक- सेतु प्रकाशन अहमदाबाद,गुजरात
समीक्षक: डॉ अवधेश कुमार अवध संपादक, समीक्षक व अभियंतामेघालय