
बारिश बूॅऺद- सा,
फैल रहा है…
परेशां मजदूरों के गीत,
सुर में है; रोटी की आवाज़
और रोते-बिलखते आदिम स्वर।
फटे पैरों की बिवाई सा,
वस्त्र भी हैं तार-तार,
कंठ हैं सूखे;आॅऺखों में पानी की तरलता,
भींगा मन; तन चट्टानों सा जलता,
वेदना है जलती,पथ भी है कराहता।
काली रात के झींगुर सा,
जिसका आर्तनाद सुनाई तो देता है,
पर दिखाई किसी को नहीं देता,
उसकी धूमिल, चोटिल पीड़ा,
गुम हो जाते कहीं..।
किसी खंडहर की मानिंद,
सूना वजूद है उनका
जो डर के साए में,
जिए चले जा रहे हैं,
पानी में बहाए अवशेषों की तरह।
मुक्ति की आशाओं सी,
ये दुर्लभ पाॅऺचों तत्त्व
क्रूर बंदिशों में जकड़े भला,
कब तक सिसकते रहेंगे?
खुश्क गज़ीदा इन्सान हीं तो हैं।
#बबिता सिंह
वैशाली( बिहार)