उठने लगे सवाल : समकालीन यथार्थ का सजीव चित्रण

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पुस्तक परिचय ……………..
पुस्तक का नाम : उठने लगे सवाल
विधा : दोहा
लेखक : राजपाल सिंह गुलिया
प्रकाशक : अयन प्रकाशन 1/20, महरौली, नई दिल्ली – 110030
प्रथम संस्करण : 2018
पृष्ठ संख्या : 96
मूल्य : 200 रुपये

श्री राजपाल सिंह गुलिया का दोहा संग्रह “उठने लगे सवाल”
अपने समय का दर्पण है जिसमें युगीन विसंगतियाँ पूरी गहराई के साथ दिखाई देती हैं। श्री गुलिया मानवीय संवेदनाओं के कुशल चितेरे हैं और इस दोहा संग्रह में भी उन्होंने समकालीन परिदृश्य का मानवीय दृष्टिकोण से सुन्दर चित्रण किया है। श्री गुलिया में सैनिक अनुशासन और आदर्श शिक्षक के जो संस्कार हैं वे उनकी रचनाओं में भी झलकते हैं। समाज को अनुशासित और संस्कारित करना उनका और उनके सृजन कर्म का ध्येय रहा है। वे शब्दों के सच्चे साधक हैं और साहित्य के माध्यम से जनकल्याण की आराधना में संलग्न हैं।
श्री गुलिया एक स्पष्टवादी रचनाकार हैं जिनकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं है। अपने मन की बात को वे बेझिझक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। अभिव्यक्ति के लिए उन्हें भाषाई अलंकरणों की आवश्यकता नहीं है। वे अपने हृदय के उद्गारों को आमजन की भाषा में अभिव्यक्त करने की क्षमता रखते हैं। समाज में व्याप्त विसंगतियों और घटना चक्र पर उनकी निरन्तर दृष्टि रहती है। वे व्यवस्था और सत्ता के जनविरोधी काम परसवालउठाते हैं। उनके मन का यही आक्रोश और अनुशासित विद्रोह प्रस्तुत दोहा संग्रह का केन्द्रीय विषय रहा है। वर्तमान युग में नैतिक पतन और सम्बन्धों में आई गिरावट के सन्दर्भ में कवि का कथन है –
“रिश्तों ने जब जब किया, पगड़ी का अपमान।
गर्वित किस्मत पर हुआ, तब तब निस्संतान।।”
कवि के कथन में नवीनता एवं मौलिकता है। आँखों देखेे सच को उसने अपने ही ढंग से स्पष्टता एवं निर्भीकता के साथ कहा है। किसानों की दुर्दशा पर यह दोहा दृष्टव्य है –
“बेचा उसने खेत को, लुटा दिए सब दाम।
आकर लेबर चौक पर, खोज रहा अब काम।।”
कवि मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत है। उसका यही यत्न रहता है कि उसके कारण किसी का नुकसान नहीं हो। कवि जड़ पदार्थों के साथ भी अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है। चाकू और पत्थर के रूपक के माध्यम से कवि कहता है –
“जिस दिन चाकू ने किया, यहाँ जीव संहार।
पत्थर पछताया बहुत, नाहक दे दी धार।।”
समाज का नैतिक पतन कवि की चिन्ता का विषय है। समाज में आए अधोगामी परिवर्तन को दर्शाता यह दोहा प्रस्तुत है –
“दिल से आज दिमाग ने, पूछा अजब सवाल।
बता पराई जेब से , कैसे खींचें माल।।”
कवि ने लोक प्रचलित मुहावरों का अनायास प्रयोग कर दोहों को प्रभावोत्पादक बनाया है। उदाहरण दृष्टव्य है –
“दौलत के बदले लगा, बिकने जब इंसाफ।
सच्चाई का हो गया, तभी सूपड़ा साफ।।”
अलंकारों के प्रयोग से भाषा में चमत्कार उत्पन्न करना कवि का लक्ष्य नहीं है। फिर भी कुछ अलंकार सहज रूप से ही उनके दोहों में आ गए हैं। वृत्यानुप्रास का यह उदाहरण उल्लेखनीय है जिसमें ‘ख’ अक्षर की सुन्दर आवृत्ति हुई है –
” इस बंगले को देखकर, मत हो तू हैरान।
इसकी खातिर खेत ने, खो दी है पहचान।। ”
आम आदमी की पीड़ा को शब्द देता यह दोहा कितना मर्मस्पर्शी है –
” रहा पूछता देर तक , जोड़े दोनों हाथ।
यहाँ पिसेगा कब तलक, घुन गेहूँ के साथ।। ”
कवि के अनुसार वर्तमान समय में जीवनदान ही सबसे बड़ा दान है –
” बहस चली जब दान पर, कही एक ने बात।
देना जीवनदान ही, सबसे बड़ी जकात।। ”
जीवनदाता वृद्ध जन भी अब नव पीढ़ी को भार लगने लगे हैं। जगह-जगह खुलते वृद्धाश्रम इसके प्रमाण हैं। पारिवारिक सम्बन्धों में आए इस क्षरण को यह दोहा यथार्थ अभिव्यक्ति प्रदान करता है –
” जिनकी खातिर काट दी, आँखों में ही रात।
दिखा रहे अब आँख वो, भूल गए सब बात।।”
कवि का लक्ष्य निर्भीकता से सच्चाई को जनमानस के सामने लाना रहा है। वर्तमान के साथ ही ऐतिहासिक तथ्य पर भी कवि की दृष्टि रही है –
“मिलती कुर्सी झूठ से, मिले झूठ से प्रीत।
धर्मराज ने झूठ से, युद्ध लिया था जीत।।”
वस्तुतः गागर में सागर भरता गुलिया जी का प्रत्येक दोहा युगीन सत्य का यथार्थ चित्रण करता है। यह अपने समय की विसंगतियों, विद्रूपताओं का सच्चा दस्तावेज है। गुलिया जी के दोहे हृदय से निकले सच्चे उद्गार हैं जो पाठक के मन पर सीधा असर करते हैं। दोहों की विकास यात्रा में इस दोहा संग्रह का महत्वपूर्ण स्थान होगा। हिन्दी साहित्य जगत में यह कृति निश्चित रूप से अपना स्थान बनाएगी। सुन्दर सृजन के लिए गुलिया जी निश्चित ही बधाई के पात्र हैं।
                #सुरेश चन्द्र “सर्वहारा”

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One thought on “उठने लगे सवाल : समकालीन यथार्थ का सजीव चित्रण

  1. बहुत सुंदर सार्थक समीक्षा ..आप दोनों को हार्दिक बधाई

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