
क्यों न प्रेम के
बीज बोया जाये
ऐसा कहते सुना
मैनें कि जो बोया
वहीं बीज पाया है
बस यही उद्देश्य कि
क्यों न प्रेम के बीज
बोकर पालू सुकून
प्रेम से उपजेंगे कई
पौधे लायेंगे ये बहार
न पनप पायेंगे छल
कपट फरेब मक्कारी
भरे अनैतिक बीज
प्रेम के अकेला बीज
बोकर मैनें पाया देखा
ख्वाब यत्र तत्र सर्वत्र
सुकून के जिंदगी सी
अलग रौनक दिखलाये
कुछ बीज फिर भी है
पहले से पांव तले पर
प्रेम के बीज के संग
पनप आये है फिर से
सोचता हूं हो निदान
इसका हो जाये अलग
थलग प्रेम के बीजों से
मूंसल मार,सूपे की उड़ान
चलने से निकल जायेंगे
सारे गुरुर बस यही निचोड़
इसका जोड़ प्रेम के बीज
देकर सहारा बना लेगा
खुशियों का घर द्वार
बस यही आरज़ू मेरी
क्यों न प्रेम के बीज
फिर से बोया जाये ।
नवीन कुमार भट्ट नीर