कैसे मिली दूसरी पारी? 

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kamlesh
क्या ज़्यादा कीचड़ उछलने के कारण ही ज़्यादा खिला कमल? दरअसल बीजेपी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन द्वारा सत्ता में पुनर्वापसी के कारणों को राजनीतिक पंडित अलग-अलग तरह से समझने की कोशिश कर रहे हैं। जहाँ कुछ  इसका कारण मोदी लहर को मानते हैं, वहीं ऐसे भी कम नहीं हैं, जो दिशाहीन विपक्ष और ‘सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद’ के उभार को इसका प्रमुख कारण मानते हैं।
दरअसल इसका कारण भारतीय जनमानस का मूल स्वभाव ही है। यहाँ की जनता सकारात्मकता को तुरंत पहचान लेती है। यहाँ समस्या उठाने वाले नहीं, समाधान देने वालों की जय होती है। इस
पूरे चुनाव में विपक्ष बहुत आक्रामक था, पर समाधान देता नहीं दिख सका। दूसरी तरफ़ सत्तारूढ दल द्वारा स्वच्छता अभियान, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं को खूब प्रचारित किया गया। कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं सकारात्मकता का अभाव और मोदी का अंध-विरोध विपक्ष को उल्टा पड़ गया।
एक और तथ्य यह है कि जनता ऐसे लोगों को पसंद करती है जो उनके जैसा हो और उनके लिए सोचता हो। राजनीतिक जीवन में यहाँ अहंकारी या आक्रामक नेता लम्बी पारी नहीं खेल पाते। इतिहास उठा कर देख लीजिए सबसे अधिक लहर सहानुभूति की ही चली है। निरंकुशता को जहाँ सिरे से नकारा गया है, वहीं जब जनता को यह लगा है कि उनके नायक को लोग सता रहे हैं, या उनको कोई कीमत चुकानी पड़ी है, तब जनता ने भरपूर प्यार दिया है।
इंदिरा जी की हत्या, राजीव जी की हत्या आदि के बाद जनता ने पार्टी को सहानुभूति की लहर में ज़्यादा वोट दिया। सहानुभूति की लहर पर सवार होकर कई सरकारें बन गईं और आक्रामकता और अति आत्मविश्वास ने कई सरकारों को सत्ताच्युत कर दिया।
कुछ साल पहले अरविंद केजरीवाल ने जब जनता के सामने कहा कि कांग्रेस से मिलकर उन्होंने ग़लती की थी, उन्हें माफ कर दें तो परिणाम क्या हुआ? तमाम मोदी लहर के बावजूद जनता ने 70 में 67 सीटें दी। लेकिन, जब उन्हीं केजरीवाल ने आक्रामकता और शातिर राजनेता के तिकड़मों का सहारा लेना शुरू किया, तो जनता की वह सहानुभूति जाती रही।
मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि इसबार यह सहानुभूति मोदी के साथ थी। जनता को ऐसा लगा कि सभी विपक्षी मिलकर उसके प्रधानसेवक के ख़िलाफ़ हैं, तो इसका मतलब यह है कि प्रधानसेवक सच्चा है।
वस्तुतः,  हताशा में ऐसी-ऐसी विरोधी पार्टियाँ एक हो गईं कि विपक्ष की विश्वसनीयता ही ख़तरे में आ गई। 22 दलों के गठबंधन को सत्तारूढ़ दल यह दिखाने में सफल रहा कि मज़बूरी में सब एक हुए हैं जिसका कोई एक सर्वमान्य नेता तक नहीं है।  इसका एक मतलब तो यह निकला कि विपक्ष हताश है जबकि सत्ता ने बहुत काम किया है। इससे कहीं न कहीं,  जनता के अंदर मोदी और बीजेपी के लिए सहानुभूति ही उत्पन्न हुई। विपक्ष जितने भी आरोप लगाता रहा, मोदी उसे ही सहारा बनाकर जनता की सहानुभूति बटोरते रहे ।
हाँ, सरकार के सभी निर्णयों से जनता ख़ुश थी, ऐसा नहीं था, पर कम से कम लोगों को लगा कि मोदी की नीयत अच्छी है। साथ ही, यह नैरेटिव भी सेट हुआ कि मोदी को सताया जा रहा है। एक कुशल वक्ता के रूप में मोदी आमजन को यह समझाने में सफल रहे कि वे आमजनों की दिनरात चिंता करते रहते हैं, यह तो विपक्ष के लोग हैं, जो उन पर कीचड़ उछाल रहे हैं। “जितना कीचड़ उछालोगे, कमल उतना ही खिलेगा” का नारा इसी रणनीति का हिस्सा था।
राफेल मामले में चौकीदार चोर है कहकर जो विषैले बाण छोड़े गए, उसका जवाब जनता से “मैं भी चौकीदार” कहलाकर दिया गया। इसका फ़ायदा यह हुआ कि यह मूल प्रश्न ही जाता रहा। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राहुल गांधी को जो फ़टकार लगी, उससे तो यह मुद्दा गौण ही हो गया।
धार्मिक मान्यताओं के प्रदर्शन से भी बहुसंख्यक जनता तक यह संदेश गया कि प्रधानसेवक भारतीय संस्कृति के सच्चे नायक हैं। और यह सच है कि मोदी ने दिखाया कि उनमें कितनी उर्जा है। संवाद की कला में माहिर बिना आराम किए वे हर मौके का फ़ायदा उठाते रहे।
और सबसे महत्त्वपूर्ण बात कि बालाकोट हमला और सरहद पर आक्रामक नीति ने लोगों को यह आश्वस्त किया कि इस सरकार में देश की सीमाएँ सुरक्षित हैं। इस मुद्दे पर सरकार का विरोध करना विपक्ष की सबसे बड़ी भूल हुई। कुल-मिलाकर स्थिति यह हो गई कि बीजेपी देश-प्रेम का पर्याय बनती नज़र आई जिसका चुनाव में इसे बहुत फ़ायदा हुआ और कई आंतरिक मुद्दे गौण हो गए।
#कमलेश कमल

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