वूमन आवाज’ का दूसरा अंक मेरे हाथों में है, और मैं सम्मोहित हो रही हूं

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madhuri mishra
वूमन आवाज’ का दूसरा अंक मेरे हाथों में है, और मैं सम्मोहित हो रही हूं उस के  आवरण पृष्ठ को देख कर।
  इतना अर्थपूर्ण और -सुन्दर  है  आवरण पृष्ठ कि नज़र हटाने का मन ही नहीं करता।
  मैं  शिखा जी से पूर्णत: सहमत हूं कि
 ”  एक स्त्री अपने हिस्से का आसमान स्वयं बुनती है।”
   मैं जैसे -जैसे पन्ने पलटती हूं, विचारों में डूबती जाती हूं, सभी रचनाओं का चयन विषय की विविधताओं को ध्यान में रखते हुये किया गया है। सभी कवितायें, कहानियां एवं आलेख -सुन्दर एवं प्रेरणा दायक हैं।
सब  रचनाओं के विषय में कहना तो संभव नहीं है, लेकिन  जिसने मेरे अन्तर्मन  को  छुआ, उसके विषय में  कुछ तो  कहूंगी ही।
सब से पहले—— ‘जीवन एक  प्रश्नपत्र’ प्रतिभा जी ने बहुत ही अच्छी बातें कही है,
“जरूरी नहीं समझती
हर प्रश्न  का उत्तर देना,…………………….
……………………………..अगर हर प्रश्न का
जबाब देती, तो शायद अब तक तुम्हारे साथ ना होती।”म
 जीवन के कटु सत्य को सरलता से बताने के लिये बधाई ।
‘स्वयं से संवाद’——- आरती जी ने कितनी-सुन्दर बात कही है-“कितना सुखद होता है अपने होने को महसूस करना और
प्यार करना खुद को।”
सच में जब तक आदमी अपने -आप से प्यार नहीं करे, समझे नहीं, वह दूसरे को भी नहीं समझ सकता।
‘जब शिक्षा की अलख जगेगी’——–
डॉ अमृता शुक्ला ने  एकदम सटीक बातें कही है- ”नये ज्ञान से होगा परिचय, क्या है त्याज्य क्या संचय।”।
अंजली खेर की  लघुकथा——–
‘एक निर्णय ऐसा भी ‘ आज की नारी  के साहस एवं स्वाभिमान को दर्शाती बहुत सशक्त  संदेश देती है। बधाई अंजली जी।
इसी तरह  ‘ लौ ‘ —– कथा के माध्यम से पूनम जी ने सार्थक संदेश दिया है।
अक्सर हम अपने आस-पास के  प्रतिभाओं को अनदेखा कर आगे बढ़ जाते हैं, जब कि थोड़ी सी सहायताऔर प्रोत्साहन उसके जीवन को बदल सकता है।
‘क्या, तुम नहीं जानती’——–इस कविता में  सुमन चौधरी कहती हैं कि “केवल युग बदला है मनुष्य का चरित्र नहीं। “
इस युग में तो भगवान भी नहीं आयेंगे रक्षा करने। नारी को अपनी रक्षा स्वयं ही करनी होगी । उसे सब तरह से सबला बनना  ही होगा।
कल्पना त्रिपाठी ने भी  ‘ वो कठिन दिन और स्त्रियां’ —–में  महिलाओं की स्थिति का बहुत सुन्दर वर्णन  किया है, साथ ही  आधुनिक नारियों की स्वीकारोक्ति भी स्पष्ट  है।
‘स्त्रीतत्व’ ——रचना में डॉ नीना  छिब्बर ने एक स्त्री के जीवन क्रम  को बहुत अच्छी तरह समझाया है,  लेकिन एक सत्य यह भी  है, कि  बूढ़ी मां सब कुछ समझते हुये भी न समझने का दिखावा करती है, शायद इसी में उसका सुख है।
‘सुनो’—– में डॉ भारती बर्मा जी  बड़े सधे और स्पष्ट शब्दों  में कहती हैं, कि जीवन में  सबको साथ ले कर चलने  में ही सुख और सार्थकता है, ये मत सोचो कि कौन  ज्यादा सफल या असफल रहा है, अपने दुखों को  सहने का सामर्थ्य स्वयं में रखो, तभी तो वे कहती हैं- “बहते आंसूओं को थामने-पोंछने
अपना हाथ अपना रूमाल स्वयं बनो।”
 लेकिन वे चेतावनी भी देती हैं कि- इतनी उन्मुक्त, दर्पयुक्त भी न बनो कि किसी अपने की उपेक्षा हो।
मीनाक्षी सुकुमारन ने भी —– ‘नारी हूं नारी ही कहलाऊं’ में  नारी मन की सहज, सरल इच्छा को बड़े -सुन्दर ढ़ंग से प्रस्तुत किया है, इसलिये तो कह उठी हैं- “है इच्छा तो बस इतनी भर नारी हूं  नारी ही समझी जाऊं।”
शुभ्रा झा  की लघुकथा——–‘ सुनि अठिलैहें लोग’ में भी बहुत ही गूढ़ अर्थ लिये हुये सार्थक संदेश छिपे हुये हैं।
वैसे तो कहते हैं कि दुख बांटने से घटता है, लेकिन कवि रहीम ये कहना चाहते हैं कि “सब को मत बतलाओ कुछ लोक ऐसे भी होते हैं, जो आप का दुख समझ नहीं पाते और उस का मजाक उड़ाते हैं”।
आज भी उनका ये कथन बिल्कुल सत्य एवं
प्रासंगिक है, कुछ स्त्रियां बात ही बात में  घर की समस्यायें दूसरों से साझा कर लेती हैं, लेकिन अक्सर इस के चलते  उनके सामने   शर्मनाक स्थिति आ जाती है,इसलिये इस से बचना ही उचित है।
नवनीता दुबे नूपुर ने —— बहुत  ही आशाजनक एवं समयानुकूल बातें कही है
“नहीं नहीं !अब सुलझ चुके समीकरण।।
नारी नहीं बेचारी। न दुखों की मारी।।”
राजकुमारी चौकसे जी —— भी बहुत ही सरल शब्दों में वय एवं पारिवारिक भूमिका के  अनुरूप बेटी का चित्रण किया है,  बेटी के हैं रूप अनेक,  हर रूप ने दिया सन्देश।
“बहन बन कर भाई के कलाई को सजाया।
पत्नी बनकर पति के बाम भागकोअपनाया।।
मां बन कर बच्चे को स्तनपान कराया।
यहीं उस की कर्जदारी है।
बेटी बगिया की फुलबारी है।।”
राजकुमारी जी के शब्दों से सहमत होते हुये, मैं भी ईश्वर से प्रार्थना करती हूं, कि सभी के आंगन की  बगिया में बेटियां हंसती खिल खिलाती रहे।
सभ कवितायें, कथाएं एवं आलेखों का चयन विषय वस्तु  की विविधताओं के आधार पर किया गया है।
मुझे लगता है कि विज्ञान, तकनीकी ज्ञान  से   संबधित एक-दो ऐसे  आलेख भी अगर  होता,  जिस में महिलाओं  की उपलब्धियों का , उनके योगदान का विस्तृत विवरण रहता तो ‘वूमन आवाज’ और मुखर तथा सशक्त होती।
अन्त में मैं सम्पादिका  ‘शिखा जैन ‘के साथ ही उनकी सभी  सहयोगियों का भी आभार मानती हूं, इतनी -सुन्दर और आकर्षक पत्रिका  हम सब तक पहुंचाने के लिये,और
हार्दिक शुभकामना  है कि ‘वूमेन आवाज’ निरन्तर  सशक्त एवं  आकर्षक रूप में बुलन्द
होती रहे।
#माधुरी मिश्रा,
जबलपुर 

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