नारी जागरण का सफर..

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sudha

वैसे तो अठारहवीं सदी से ही महिलाओं की दीन-हीन दया को लेकर कुछ सुधारवादी लोगों ने चिंता व्यक्त करना शुरु कर दी थी,पर चार लोगों की आवाजे इतने बड़े देश में कौन सुनता है,पर उन्होंने स्त्री मन के किसी कोने में यह आशा जगा दी थी कि, तुम भी इस संसार का हिस्सा हो, तुम भी अपना जीवन रखती हो..हां, तुम भी जीवित हो। उसके बाद सन् १९७५ में अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष का एलान हुआ,तब पहली बार महिलाओं को लगा कि हम महिलाओं का इस संसार में कुछ अस्तित्व है। अब हमारे भी दिन बदलेंगे। उसी समय मथुरा का सती कांड हुआ था। हमारे पत्रकार भाइयों ने इसे जोर-शोर से अपनी हेडलाइन बनाकर तवज्जो देते हुए हमारे देश के सोए हुए इंसानों को जगाने का काम किया। उनका यह सहयोग उस समय बहुत सराहनीय रहा। उसके बाद ऐसा लगा, मानो उनको एक नया मुद्दा मिल गया। हर अखबार में जोर-शोर के साथ इससे जुड़ी खबरों को छापा जाने लगा। सच कहा जाए तो,नारी जाग्रति की लहर में उस समय उनका सहयोग मील का पत्थर था। वही एक साधन था कि, नारी को पता चलता था कि नारी आंदोलन के तहत क्या-क्या हो रहा है? कहां पर कौन-सा दमनकारी चक्र चलाया जा रहा है। इस कार्य के लिए उन पत्रकार भाइयों की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। समाज में जो पढ़ी-लिखी चिंतनशील महिलाएं थीं,उन्होंने स्त्री की अशिक्षा,अंध विश्वास,बाल विवाह और दहेज प्रथा आदि को लेकर अपने-अपने विचार अखबारों तक पहुंचाए। नारी की दशा सुधारने के लिए एक नारी वर्ग तैयार होने लगा। नारी विमर्श की बातें होने लगी। कविता कहानी में नारी के वर्तमान स्वरुप,उसके दर्द पर चर्चा होने लगी। जो महिलाएं नौकरी आदि में कार्यरत थीं,उन्होंने भी इस जागरुकता का हिस्सा बनकर नारियों को जगाने का कार्य किया। इस सब कार्यों से जागरुक नारियों के मन में आत्मविश्वास जागा था। उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इस देश का नेतृत्व कर रहीं थी। उनसे नारी समाज को काफी आशाएं थीं। हालांकि, उन्होंने स्त्री जाति के लिए कोई ठोस कानून नहीं बनाया था,पर कहते हैं कि आशा से आसमान टंगा होता है, वह इस नारी प्रताड़ित देश की महिला प्रधान मंत्री थीं। बस यही सब महिलाओं के लिए गौरव की बात थी। उसके बाद राजीव गांधी ने शाहबानो कांड और सती प्रथा पर एक माह बाद चुप्पी तोड़ी थी,पर वह केवल औपचारिकता ही थी। उन्होंने वही रवैया अपनाया कि-‘सांप मरे न लाठी टूटे। धीरे-धीरे महिलाओं में जागरुकता आई,नारी उत्थान की बातें होने लगीं थी और उन्होने अपने को संगठित करके दल बनाना आरंभ कर दिया। कुछ नारी प्रधान पत्रिकाओं में स्त्री की बदलती हालत और उसके उत्थान की कहानियां लेख आदि बहुतायत से छपने लगे। इन माध्यम से इन्होंने जाग्रति लाने में बहुत सहयोग किया। अब तक चार-पांच सालों के इस दौर में यानि कि अस्सी के दशक में राजनीतिक दलों को भी यह समझ में आने लगा कि,आने वाले समय में ये नारियां विश्व मानचित्र पर एक ताकत बनके आने वाली हैं, इसलिए उन्होंने इन महिलाओं के दलों को समर्थन देकर उनकी हमदर्दी बटोरने की कोशिश की ओर वह सफल भी रहे। कांग्रेस,भारतीय जनता पार्टी व कुछ अन्य ने अपना महिला प्रकोष्ठ ही बना डाला। अब नारी को राजनीति में भी प्रवेश मिल गया,पर वह अभी केवल उन पुरुषों के हाथ की कठपुतली मात्र थी,किंतु उसकी कल्पना को पंख मिल गए थे। वह अपने अस्तित्व के महत्व को पहचान गई थी। वह नीले आसमान को सिर उठाकर निहारने लगी थी। उसकी उंचाई का अनुमान लगाने लगी थी। उसे यह समझ आ गया था कि,घर के चौका-चूल्हा से बाहर भी एक दुनिया है,जो इस अंदर की दुनिया से बहुत सुन्दर है। यही वो समय था,जब हमारे पड़ौसी देश पाकिस्तान,बंगलादेश में महिलाएं सत्ता सम्हाल रही थीं। अस्सी के दशक में महिलाओं की साक्षरता पर ध्यान दिया जाने लगा,बालिकाओं को स्कूल भेजने पर जोर दिया जाने लगा।महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति भी समाज में जागरुकता आई। जच्चा-बच्चा के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाने लगे। नब्बे के दशक तक यह सभी अभियान तेजी पकड़ने लगे। इन दिनों महिलाएं नौकरी करने के लिए भी बहुत उत्सुक होने लगी।हालांकि,अभी भी महिलाओं को अपने घरवालों से बहुत संघर्ष करके ही बाहर निकलना पड़ रहा था। हाँ, यहां पर एक बात बहुत ध्यान देने की है कि,इनमें सबसे अधिक फाायदा उच्च वर्ग की महिलाओं को ही हुआ। वह वेबाक तरीके से घर के बाहर आई, क्योंकि यह तबका पढ़ा-लिखा और पैसों से भरपूर होता है। उसे अपने निजी खर्च के लिए किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता है। राजनीति में भी ऐसे ही उच्च वर्ग की महिलाओं का बोलबाला हो गया। यह महिलाओं का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि,राजनीतिक उच्च पदों पर आज भी उनकी भागीदारी न के बराबर है। अब ये महिलाएं समझदार हो गई थी। नब्बे के दशक में वह अपने अधिकारों की मांग करने लगीं थी। वह हर क्षेत्र में अपनी भागीदारी चाहती थीं,अब पूर्व तथाकथित सत्ता के पक्षधरों को उनसे भय होने लगा कि, अभी तक तो वह ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ का राग अलापते रहे हैं, अब उसे इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे दें..! अगर सत्ता के अधिकार महिलाओं के हाथ में आ गए तो, फिर उनका अस्तित्व कम हो जाएगा। वह उनकी बराबरी से बैठ कर निर्णय लेने लगेगीं,यह बात उन्हें मंजूर नहीं थी। उन्हें अपना सिंहासन हिलता हुआ दिखाई देने लगा,इसलिए राजनेताओं ने एक सोची-समझी चाल के तहत कानून बनाया और महिलाओं को वर्ग भेद और जातिवाद के आधार पर बांटने का प्रयास किया। ग्रामसभा आदि में महिलाओं को आरक्षण देकर,उन्हें प्रधान का पद दे दिया गया,क्योंकि वो सारे लोग ये बात अच्छी तरह से जानते थे कि ये पिछड़े वर्ग की महिलाएं अंगूठा छाप,अनपढ़ होगी। इस प्रकार सत्ता पुरुष वर्ग के हाथों में ही रहेगी। इस समाज को तो कठपुतली चाहिए थी,जिसे वह अपने तरीके से नचा सके और इस प्रकार उनका मकसद पूरा हो गया। कहने को तो महिला प्रधान बन जाती थी,पर वह घर से बाहर भी नहीं निकलती थी। उसके गांव में क्या हो रहा है, उसकी उसे खबर ही नहीं होती थी। वह जब किसी कागज पर अंगूठा लगाती थी, तभी उसे अहसास होता था कि अरे! मैं तो प्रधान हूं। सन् ९३-९४ में ये हाल था कि,जब भी तहसील या ब्लॉक स्तर पर बैठक होती तो उसमें उनके पति ही भागीदारी करते थे। वह प्रधानपति कहलाते थे। वही बीडीओ, एसडीएम और कलेक्टर से मिलकर फाइलें चेक कराते थे। किसी भी महिला प्रधान को उस बैठक में आने की अनुमति नहीं थी। फिर कुछ महिला संगठनों ने आवाज उठाई कि, चयनित महिलाओं को बैठक में आना चाहिए, तो जिस दिन बैठक होती थी, उस दिन वह सभी लंबा-सा घूंघट निकालकर आतीं थी। उनके पति बाजू से बैठकर उनकी रखवाली करते थे। किसी भी बात पर कुछ भी पूछने पर वह वही कहती थी, जो उनके पति चाहते थे। वह अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र नहीं थी। इस बात के लिए वह खुसर-पुसर करके अपना विरोध जताने लगी। तब कुछ स्वंयसेवी महिला संस्थाओं ने उनके पतियों को बाहर बैठने के लिए मजबूर किया और इस प्रकार फिर नारा बुलंद हुआ कि,पति बाहर बैठें,वह कक्ष में अकेली ही आएँ। कई जगह पर इस बात को लेकर भारी विवाद हुआ। अंत में वह अकेली ही कक्ष में आने लगी। अब अकेली आने पर उसे ही सवालों के जवाब देना पड़ते थे,इसलिए उसे भी गांवदारी,समाज और कानून की कुछ कुछ जानकारी होने लगी। इस प्रकार यह सत्ताधारी समाज उन कमजोर नारियों के कंधे पर बंदूक रखकर निशाना साधकर अपना उल्लू सीधा कर रहा है। नए-नए प्रलोभन देकर उन्हें भ्रमित कर रहा है,उन्हें वास्तविक स्वतंत्रता कहीं नहीं है। अगर वह आवाज उठाती हैं,तो भंवरी देवी, शाहबानो की तरह उनकी आवाज हमेशा के लिए बंद कर दी जाती है। इन स्वार्थपूर्ण चालों से सबसे बड़ा नुकसान मध्यम वर्गीय नारी का हुआ, क्योंकि न तो वह गरीबी रेखा के नीचे आती है, न ही आरक्षण के कोटे में, न ही इस वर्ग की पहुंच उपर तक है। उसके पास इतना पैसा भी नहीं है कि, वह उसके दम पर अपनी पहुंच बना सके, इसलिए यह मध्यमवर्गीय समाज की नारी उपेक्षित रह गई और आज भी उपेक्षित है। आज भी वह अपने संघर्ष के बल पर अपनी पहचान बनाने में लगी हुई है।
‘यही वो महत्वपूर्ण तबका है,जो समाज के उच्च और निम्न वर्ग के बीच में रहकर,यानि कबीर के दो पाटों के बीच पिसकर भी इस समाज का संतुलन बनाए हुए है। इन्हीं मध्यम वर्गीय नारियों के कारण ही आज हमारी संस्कृति,संस्कार,त्योहार, परम्परा,रिश्ते-परिवारवाद और ये समाज भी सुरक्षित हैं,क्योंकि अभी इसने अपनी मर्यादा नहीं त्यागी है। आज भी वो अपनी इज्जत को ओढ़े- बिछाए बैठी है।’ आज भी वह दूसरे दो तबकों की तरह स्वतंत्र नहीं है। आज भी उसके उपर समाज और परिवार की इज्जत का बोझ है, क्योंकि बड़े लोग कुछ भी करें उन पर कोई उंगली नहीं उठा सकता है। वह जो भी करते हैं, वही रिवाज और परम्परा बन जाता है,’क्योंकि समरथ को नहीं दोष गुसाईं।’ और छोटे तबके के लोगों की इज्जत की परिभाषा बहुत सीमित होती है। उनका तो यही जुमला है कि ‘यहां नहीं,तो कहीं और सही’। समाज का आदर्श तो इसी मध्यम वर्ग को बनना पड़ता है,इसलिए हर तरह से यही वर्ग सबसे ज्यादा उपेक्षित है। उसी वर्ग की नारी को सबसे ज्यादा सहना पड़ रहा है। आज भी इस वर्ग की महिलाएं पति की ज्यादतियां सहने को मजबूर हैं, वह हर दिन प्रताड़ित हो रही हैं,रोते- रोते उनके आंसू भी सूख गए हैं। बदन पर मार के नीले निशान हैं,पर कोर्ट में जा कर तलाक नहीं ले सकती हैं,क्योंकि ऐसा करने पर उनके बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। उनका परिवार समाज में बदनाम हो जाएगा। आज भी दहेज की बलि चढ़ना,कोख में ही बच्ची को मरवा देना,विधवा होने पर पुर्नविवाह न करना,अपने ही परिवार के मर्दों की हवस का शिकार बनना..ये सब कुछ वह चुपचाप सह रही हैं। वह अपने मायके में भी जाकर अपना अधिकार नहीं जता सकती,क्योंकि वहां पर इज्जत की चादर आड़े आ जाती है। आज भी मध्यम वर्गीय स्त्री दोयम दर्जे की पायदान पर है। आज भी बेटी होने पर घर में मायूसी छा जाती है, दो दिन तक खाना नहीं बनता है। बेटी की मां को बहुत कुछ सुनना-सहना पड़ता है। ‘वह सदियों से अपमान के घूंट पीती आ रही है। अपनी बेबसी पर आंसू बहाती रही है। उसका वजूद किसी अंधेरे में जलती शमा की तरह धीरे-धीरे पिघल रहा है,पर वह अब परीक्षा देते देते थक गई है।’ उसके अंदर की नारी अब करवटें लेने लगी है। उसके अंतर की पीड़ा अब असहनीय हो गई है। उसके घावों से रिसता लहू अब जम गया है। आंखों के आंसू सूखने लगे हैं। ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी..’ नहीं! नहीं! अब वह अबला बनकर नहीं,सबला बन कर जीना चाहती है। उसे समझ आ गया है कि उसकी दशा कोई नहीं बदलेगा,उसे स्वंय ही अपना अस्तित्व पहचानना होगा। अब वह गीता के कर्मयोग का पाठ पढ़ना सीख गई है। उसने भी अर्जुन की तरह अपना असमंजस ईश्वर को समर्पित करके उनके कहे वाक्य को अपना लिया है- ‘तस्मोद्योगाय युजुस्व योगः कर्मसु कौषलम्(गीता-२.५०’..अर्थात् ! तू युक्ति एवं विचारपूर्वक कार्य करने वाली ‘कर्मयोगी’ बन जा। कहने को समाज में बदलाव आया है,नारी उत्थान हो रहा है,पर नहीं अभी यह सब केवल ओर केवल ३० प्रतिशत ही है। आाज भी सत्तर प्रतिशत नारियां अपनी किस्मत पर आंसू बहा रही हैं। आने वाले कल में अपनी बच्ची का भविप्य तलाश रही हैं। उसे आज पहली बार अपने देवी होने वाली छवि पर दुःख हो रहा है,क्योंकि इस घोर कलयुग में तो सभी देवी प्रतिमाएं पत्थर की हैं। वह पत्थर की होकर पूजित नहीं होना चाहती? नहीं वह अब और नहीं सहना चाहती?अब वह मुखर होना चाहती है। उस प्रतिमा के अंदर की नारी जाग चुकी है। वह अपनी उस देवीय छवि से बाहर आकर नारी बनकर जीना चाहती है। वह अपने अंदर के अहसास,उमंग, अरमान,आकांक्षा महसूस करना चाहती है,उन्हें पूरा करना चाहती है। अभी तक वह माॅं,बहन,बेटी और पत्नी बनकर दूसरों के लिए जीती रही है,अब वह नारी बनकर स्वंय अपने लिए भी जीना चाहती है? वह कुछ करना चाहती है? वह समाज को बताना चाहती है कि,मैं भी आपकी ही तरह जीती जागती इंसान हूं। मेरे अंदर भी दिल,दिमाग और दिवास्वप्न हैं। मैं भी बहुत कुछ करना चाहती हूं, मुझे मेरी पहचान बनाने दो मैं भी आपकी तरह इंसान हूं। मुझे अपनी राह चुनने का हक दो, मैं भी उस नदी की तरह अपने किनारे खुद तलाश लूंगी। नहीं-नहीं, सागर में जाकर मैं अपना अस्तित्व नहीं मिटाउंगी। नर्मदा की तरह उल्टा बहकर अपना मुकाम स्वंय बनाउंगी, मुझे मेरी पहचान बनाने दो।

       #डॉ.सुधा चौहान ‘राज

परिचय: डॉ.सुधा चौहान ‘राज का जन्म दमोह (म.प्र) में हुआ है| आपने मनोविज्ञान व दर्शन शास्त्र से स्नातक सहित इतिहास और संस्कृत से स्नातकोत्तर, वेदाचार और सनातन  कर्मशास्त्र में डिप्लोमा हासिल किया है| तीस साल से महिलाओं एवं बालक-बालिकाओं के परामर्श का अनुभव है| ‘बाल गीता’, सर्वोच्च सफलता के सात कदम’,उपन्यास ‘महोबा’,’दुर्गासप्तसती हिन्दी काव्य खंड’, बाल कहानी संग्रह ‘मित्रता की ताकत, खरगोश की चतुराई, कविता संग्रह’ और ’उपन्यास’ आदि प्रकाशित हुए हैं| विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होती हैं| आकाशवाणी से भी लगातार प्रसारण जारी है| २ फिल्मों में पटकथा लेखन भी किया है। आपकी पुस्तक ‘बालगीता’ एवं ‘सर्वोच्च सफलता के सात कदम का’ अंग्रेजी में अनुवाद सेन फ्रांसिसको (अमेरिका) में हुआ है। इंदौर निवासी डॉ. चौहान को  ‘बाल गीता’ के लिए पदक से सम्मानित किया गया है| ऐसे ही ’हिन्दी सेवा सम्मान’,‘नारी चेतना की आवाज’ सहित ‘कृति सुमन सम्मान’ आदि भी प्राप्त हुए हैं| आपको ‘विद्यावाचस्पति’ की उपाधि भी मिली है| वर्तमान में आप गीता इंटरनेशनल सोसायटी की राष्ट्रीय अघ्यक्ष व  इंदौर लेखिका संघ की कार्यकारिणी सदस्य हैं|  फिल्म राइटर्स एसोसिएशन  बाम्बे’ की भी सदस्य  हैं|

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संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।