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वैविध्यमय भारत में भाषाई वैविध्यता विद्यमान है। दक्षिण भारत के तमिलनाडु और केरल को छोड़कर लगभग सभी रज्यों में लोग हिन्दी समझते हैं,लेकिन आजकल हिन्दी के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं।
देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग प्रांतीय भाषाएँ हैं। चाहे वह उत्तर भारत का भाग हो, या दक्षिण भारत का भाग हो। सभी प्रांतीय भाषाओं में प्रातीय संस्कृति भरी हुई है। प्रांतीय भाषाएँ कमजोर होने का मतलब है, भारतीय संस्कृति का अधपतन,इसलिए देश के सभी भागों की प्रांतीय भाषाओं का संरक्षण होना अनिवार्य है।
असमंजस की बात यह है कि, प्रांतीय भाषा संरक्षण की बात के साथ-साथ हिन्दी का विरोध कर रहे हैं। प्रांतीय भाषा संरक्षकों का आरोप है कि,हिन्दी भाषा से प्रांतीय भाषाएँ पतन होंगी, लेकिन मेरा मत है कि हिन्दी भाषा के मेल से प्रांतीय भाषाओं की समृध्दि होगी। जब तक हिन्दी है,तब तक प्रांतीय भाषा को कोई खतरा नहीं है। परिवर्तन संसार का नियम है। वैसे परिवर्तन हो सकता है न कि नाश,जैसे कि पहले संस्कृत भाषा प्रचलित थी। उस समय प्रांतीय भाषाएँ संस्कृत से प्रभावित थीं, लेकिन भाषाओं की अवनति नहीं हुई हैं। अगर किसी प्रांतीय भाषा की अवनति हो रही है तो वह है अंग्रेजी के प्रभाव से।
वर्तमान में सत्य को जानना जरूरी है। सत्य यह है कि,अगर हिन्दी का प्रभाव प्रांतीय भाषाओं पर हो रहा है तो वह देश की संस्कृति सम्मिलन है। हिन्दी द्वारा देश की संस्कृति हमारी प्रांतीय भाषाओं में मिलकर,प्रांतीय भाषाओं की शक्ति बढ़ाती है। प्रांतीय भाषाएँ समृद्ध होती हैं। प्रांतीय भाषाओं की संस्कृति पूरे देश में प्रसारित होती हैं। प्रांतीय संस्कृति देशी संस्कृति से घुलना-मिलना गुनाह है? इसे हिन्दी का विरोध करने वाले को ही उत्तर देना पड़ेगा।
प्रांतीय भाषा की जनता हिन्दी भाषा से लड़ रही हैं। इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दी भाषाई जनता भी वाद करेंगी। इस वक्त मुझे स्वतंत्रतापूर्व भारतीय इतिहास की याद आ रही है। भारतीय इतिहास में पढ़ते हैं कि अंग्रेजी लोग व्यापार करने भारत आए। उस वक्त भारत विविध राज्यों में बंटा हुआ था। प्रांतीय राजा अपने-अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे थे। तब अंग्रेज इन राजाओं के विवाद को समाप्त करने के प्रयास का खेल खेलते थे। इसके बदले में ईनाम लेते थे। समय साधक कभी चुप नहीं बैठते हैं। धीरे-धीरे राजाओं की कमजोरी को धागा बनाकर,अंग्रेज राजाओं की लगाम अपने हाथ में लेने लगे। अंत में इसका परिणाम यह हुआ कि,अंग्रेजों के हाथ में देश का शासन आ गया। भारत अंग्रेजों का गुलाम बन गया। फिर उन्हीं से छुटकारा पाने के लिए दो सौ सालों से अधिक लड़ना पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि,अखंड भारत चूर-चूर हो गया। अगर अंग्रेजी रोग लगने से पहले अखंड भारत की जनता ने इलाज ढूंढ लिया होता; तो भारत टूटता नहीं, पाकिस्तान का सिर दर्द नहीं होता।
आज प्रांतीय भाषिक हिन्दी भाषा को विरोध के जोश में,अंग्रेजी के महाद्वार अपने-आप खोल रहे हैं। इस वक्त मन में कुछ प्रश्न खटकते हैं। क्या अंग्रेजी में हमारी संस्कृति की गंध तिल भर छिपी है? आज ध्यान से प्रांतीय भाषाओं को, विशेषकर दक्षिण भारत की भाषाओं को सुन लीजिए। आधी अंग्रेजी आक्रमित कर चुकी है। क्या अंग्रेजी से प्रातीय भाषाओं का अस्तित्व संकट में नहीं है? दिल से सोचिए; दिल सौ प्रतिशत कहेगा कि अंग्रेजी से प्रांतीय भाषाओं का नाश हो रहा है। इसके लिए सरकारें पूर्व प्राथमिक शिक्षा से गड्डे खोद रही हैं। जनता इसे प्रगति मान रही हैं। हिन्दी विरोध करने वालों का एक ही मकसद हो सकता है कि,चाहे बाहर का व्यक्ति हमारे घर चलाए,लेकिन हमारे घर का सदस्य घर चलाना पसंद नहीं करते। यह स्वतंत्रता पूर्व अंग्रेजों के आगमन की याद कराता है। इसका परिणाम ऊपर व्यक्त कर चुका हूँ।
जनता को सोचना चाहिए कि, वास्तव में प्रांतीय भाषिकों का आंदोलन अंग्रेजी के खिलाफ होना चाहिए या हिन्दी के खिलाफ। आंदोलन स्वदेश के खिलाफ होना चाहिए या विदेश के! देश का हित अपनों से होता है या परायों से,आज नहीं सोचा तो फिर अंग्रेज एक बार हम पर राज करेंगे। आज देश को एक सूत्र में बांधने के लिए देश को एक ही राष्ट्र भाषा की आवश्यकता है। वह क्षमता हिन्दी मात्र की है, नहीं तो भाषा के नाम पर समय साधक,स्वार्थी फिर एक बार भारत की एकता के साथ खेलने का संभव साध्य करेंगे। भारत की एकता संकट में आने की संभावना है। देश के लिए हमें एक होने का संवहन माध्यम हिन्दी भाषा मात्र से ही साध्य है। इसी में देश का भला छिपा है।
जय हिन्द-जय हिन्दी।
#सुरेश जी पत्तार ‘सौरभ’
परिचय : सुरेश जी पत्तार ‘सौरभ’ बागलकोट (कर्नाटक) में रहते हैं। शिक्षा एमए,बीएड,एम.फिल. के साथ ही पी .एचडी.भी है। आप मूलतः हिन्दी के अध्यापक हैं और कविता-कहानी लिखना शौक है। नागार्जुन के काव्य में शोषित वर्ग सहित कई पत्रिकाओं में आलेख,कविताएँ,कहानी प्रकाशित हैं।
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