गांव की पगडंडि

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गांव की पगडंडियों पर चलकर
खड़ंजे से होते हुए
मुख्य मार्ग तक आते आते
जो शहर को जाता है
फिर मुड़ जाती हैं मेरी कविताएं
गांव की ओर ……
जहाँ मजदूर है किसान है
भोर है बिहान है
दुनिया है जहान है
धान है पिसान है
दाने-दाने की मोहताजी है , बूंद-बूंद की प्यास है
घोर नैराश्य में भी जीवन की आस है ।
इसमें बनावटी खुशबू नहीं
बड़े-बड़े डिब्बों में बंद ब्रांडेड कंपनियों के इत्र की
जो महका सके तन बदन
इसमें सजावट का सामान नहीं
जो लगा सके चार चाँद
मेरी कविता में,
माथे की लकीरें हैं!
पाँव की बिवाई है !
अम्मा की मर्ज है !
बापू की दवाई है !
भूख है गरीबी है लाचारी है ।
कविता के शब्दों की जिंदगी से यारी है ।
बच्चों की सी भाषा
और दादी नानी सी कहानियां
सामर्थ्य का जीवन
और शहीदों की जवानियाँ
यहाँ शिल्प नहीं भाव मिलेगा
चालाकियां नहीं आदमी का स्वभाव मिलेगा
यहाँ चमकता हुआ शहर नहीं उजड़ा हुआ गांव है
यहां वातानुकूलित कमरे की मौज नहीं नीम की छांव है।
#दिवाकर

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