तीस-पैंतीस

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suresh sourabh

    ‘न तेल आए। न राशन लाए । न सब्जी लाए। अब बच्चे क्या खायेंगे।’
‘अरे भाग्यवान तुझे कैसे समझाऊं। आज मुख्यमंत्री आए थे। सारे शहर की सड़कें आम आदमी के लिए बंद थीं। सारे वाहन बंद थे।
‘फिर सारा दिन किया क्या।’
‘आटो खड़ा करके इंतजार करता रहा अब रास्ते खुले तब खुलें। आंखें पथरा गईं यही करते-करते तब शाम को रास्ते खुले। फिर जाम की झाम में यही तीस-पैंतीस पैदा हुए। ऊपर की जेब से निकाल कर पत्नी के हाथों पर रूपये धरते हुए।, “अब इन्हीं से कुछ मंगा लो। दिमाग खराब हो गया जाम में।”
‘जहर ही मंगा कर सब को खिला दो और क्या मिलेगा तीस-पैंतीस में। फिर चाहे कोई मंत्री मरे या मुख्यमंत्री ,शाम को पेट के लिए रोना तो न होगा।’
पति नम आंखों से शून्य में ताकने लगा और वे तुड़े मुडे़ तीस-पैंतीस लिए पत्नी बराबर रास्ता बंद करने वालो को कोसे जा रही थी।

सुरेश सौरभ 
लखीमपुर खीरी

matruadmin

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