परसाईं-प्रेमी से मुलाक़ात

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santosh trivedi
वे परसाईं जी के सबसे बड़े प्रेमी हैं, और परसाईं-प्रसाद बाँटने वाले इकलौते वितरक भी।जब भी वक्तव्य देते हैं,परसाईं से नीचे नहीं उतरते।आशय यह कि,परसाईं पूरी तरह उनके मुँह लग चुके हैं। इस बात को वे कई बार साबित भी कर चुके हैं। उनके पास परसाईं के हाथ की लिखी एक चिट हमने भी देखी है। वे उसे हमेशा अपने पास रखते हैं। जब भी किसी विमर्श में हल्के पड़ने लगते हैं,चिट आगे कर देते हैं। इससे उनके विरोधी चित्त हो जाते हैं। परसाईं के नाम से शहर में जितनी गोष्ठियाँ होती हैं,उनके व्याख्यान की गठरी तैयार रहती है। वे बस इत्ता करते हैं कि, नियत समय पर जाकर वही गठरी श्रोताओं के सामने पटक देते हैं। श्रोता पहले से ही अधमरे होते हैं। कोई प्रतिकार नहीं कर पाते। श्रद्धाभाव से उनसे धुल लेने में ही भलाई समझते हैं। उनके पास परसाईं नाम की ऐसी अचूक मिसाइल है,जिससे वह कोई भी सभा ध्वस्त कर देते हैं।
इस बार सभा से पहले हमें उनके दर्शन करने का सौभाग्य मिल गया।समकालीन व्यंग्य-लेखकों का एक गैंग पहले से ही उनको घेरे में लिए हुए था। हमें परसाईं तक पहुँचना था,इसलिए उनसे मिलना ज़रूरी था।किसी तरह उनके बनाए चक्रव्यूह को भेदकर हम उनके चरणों तक पहुँच गए। उस समय भी वे पारम्परिक परसाईं-मुद्रा में बैठे थे। नई पीढ़ी के होनहारों को तीस साल पहले का एक संस्मरण सुना रहे थे। हमें देखते ही उनका आशीर्वादी-हस्त स्वतः उठ गया। हमने भी माहौल की नजाकत समझते हुए अपने नाकारा कर उनके चरणों में समर्पित कर दिए।
वे मुस्कुराने लगे। हमने उनकी मुस्कराहट को साहित्यिक-प्रेम समझकर आत्मसात कर लिया। उस समय हमारे पास और कोई चारा नहीं था और न ही आसपास दूसरा वरिष्ठ कि इसका बुरा मानता। हमें अपने कब्जे में पाते ही वे शुरू हो गए-तुमसे बड़ी निराशा हुई है। नई पीढ़ी इसी तरह करती रही तो व्यंग्य की दशा स्थिर ही रहनी है। तुम लोग न किसी को पढ़ते हो और न व्यंग्य समझते हो।ऐसा कब तक चलेगा ? ज्यादा दिनों तक मैं इंतज़ार नहीं कर सकता। इतना सुनते ही हमें होश लौट आया।पूछा-‘गुरुदेव,हम निरंतर परसाईं को पढ़ते हैं। उन्हें समझ भी रहे हैं,फिर भी कोई चूक रह गई हो तो मार्गदर्शन करें।’
अब वे मुखर हो चुके थे। तुम लोग घुइयाँ लिखते-पढ़ते हो। परसाईं के बाद तुम्हें कुछ दिखता ही नहीं ! वे तो लिखकर चले गए और उन्हें समझने,समझाने की जिम्मेदारी हमने बकायदा निभा भी ली। अब हमें समझो और आगे दूसरों को समझाओ। आखिर हम परसाईं के बारे में तुम्हें समझा रहे हैं ना ? ‘
‘ पर गुरुदेव,परसाईं के लेखन और आचरण का सिलेबस एक ही था।इसलिए उन्हें समझने में आसानी है।हमने तो उन्हें पढ़कर अब तक यही समझा है।’
‘तुम परसाईं को जानते हो या मैं ?पिछले कई सालों से उन पर हजारों व्याख्यान दे चुका हूँ। मेरी मजबूत पकड़ है। परसाईं को नहीं छोड़ा तो तुम किस खेत की जड़ हो ? लिखता तो मैं भी निरंतर हूँ। रही बात आचरण की,इसके लिए किसी आह्वान की ज़रूरत नहीं,वे मेरे पास भी हैं। अभी-अभी तुमने छुए भी हैं। दरअसल, दिक्कत तुम्हारी नहीं,इस पीढ़ी की है।इसके पास न विचार हैं न शिष्टाचार।विचार नहीं तो कोई बात नहीं,हमने भी तो इत्ते साल यूँ ही काट दिए,पर वत्स,शिष्टाचार मत भूलो। हमारी उमर हो रही है। ऊपर जाकर परसाईं जी को क्या मुँह दिखाऊंगा ! हमसे यही कहेंगे कि हमने उन्हें बार-बार याद करके उनका स्वर्ग में जीना हराम किया ही,हमारी नई पीढ़ी भी यही कायरता दिखा रही है। इसलिए कह रहा हूँ कि, तुम लोग अब आगे बढ़ो और हमें उठा लो। कल ही हमारी फलाने वरिष्ठ से टेलीफोन पर बात हो रही थी। दो मिनट की वार्ता में हम दोनों इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि नई पीढ़ी से कोई उम्मीद नहीं। यह तो अच्छा हुआ कि,परसाईं के बाद हम लोगों ने उन्हें उठा लिया,पर यह उठावनी यहीं रुकनी नहीं चाहिए। तुम लोग अपने हाथ और कंधे मजबूत रखो। कभी भी किसी को स्वर्णिम अवसर मिल सकता है। उसी के नाम अगला इतिहास होगा।’ उनके अन्दर का भरा पड़ा साहित्यकार आखिर फूट ही गया।
हमने धीमे से भी प्रतिवाद नहीं किया।मन ही मन में कहने लगा-पिछले कुछ समय से हमें भी अब अहसास हो रहा है कि हम जड़ हैं। जहाँ पाँच साल पहले खड़े थे,आज भी वहीँ है। यहाँ तक कि गोष्ठी में एक छोटी-सी जगह भी नहीं घेर पाए। क्या करें,लिखने से अधिक समय समझने में जाया हो जाता है। जिसको समझने लगता हूँ,वह हमें ग़लत साबित कर देता है।हमें फिर से पूरा होमवर्क करना पड़ता है।आज भी व्यक्ति और प्रवृत्ति को समझने में असमर्थ हूँ। इसीलिए यहाँ आया था,अब जा रहा हूँ।’
मुलाकाती-समय समाप्त हो चुका था। हमारी दुविधा और बढ़ गई थी।हमें अब व्यंग्य की नहीं,अपनी चिंता सताने लगी थी।
इस बीच हमने उनकी गैंग की ओर देखा। वे सब मंच की व्यवस्था में जुट चुके थे। वहीँ से थोड़ी देर में आदरणीय को परसाईं-स्मृति व्याख्यान पर बोलना था। हमने उन्हें आखिरी बार नज़र भर के देखा।साहित्य के एक बड़े मौके से हम हाथ धो चुके थे। एक बड़े अपराध-बोध के साथ हम गोष्ठी-स्थल के बाहर निकल आए।

              #संतोष त्रिवेदी

 

परिचय : पैतृक स्थान दूलापुर(रायबरेली) में संतोष त्रिवेदी की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई हुई है। इसके बाद फ़तेहपुर से आईटीआई की ट्रेनिंग तथा बी.एड.(छिवलहा से)किया। कुछ दिन दल्ली-राजहरा(छत्तीसगढ़) में भी निवास किया। रायबरेली के चम्पतपुर (मनाखेड़ा) में अध्यापन कार्य करने के बाद 1994 से दिल्ली में अध्यापक हैं। ‘जनसत्ता’ का वर्षों तक नियमित पाठक रहकर आपने काफ़ी दिनों तक ‘चौपाल’ भी जमाई।आपकी हर संवेदनशील मुद्दे पर अपनी तरह से कहने की आदत है। आप २०१२ से सतत व्यंग्य लिख रहे हैं। कई अख़बारों-पत्रिकाओं में आपकी रचना(व्यंग्य) प्रकाशित हुई हैं।

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