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टकटकी लगाकर मुझे वो देखती रही
बहाने से खिड़की में चाँद ढूँढती रही
आँखें कहीँ मिल न जाए उससे मेरी
सर उठता रहा उसकी आँखें झुकती रही
गली में मेरी आमद होते ही ये आलम
वो अपनी सहेलियों में घिरती रही
उससे दूर न होने का वस्ल किया मैंने
जब उसके घर से दूरी मेरी बढ़ती रही
सोचता हूँ कि कर दूँ फिर इज़हारे-इश्क़
पुराने दर्द की पीड़ जो रोज घटती रही
मुद्दतों बाद आज वाली ये घड़ी आती है
मेहताब हमारी आवारगी यूँहीं चलती रही
#मेहताब_पदमपुरी
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