ग्रीष्म का ये रूप भीषण
लोग हुए हैं सब व्याकुल
सूरज की तो अपनी तपन
जल बिन हैं कंठ -कंठ आकुल
मचा है –
चहुँ ओर हाहाकार
जल बिन है सब बेकार।
ताप रवि का सहने को
फिर भी सक्षम हैं सारे
किन्तु गिरते भू जल स्तर से
फिर रहे मारे-मारे ।
आज यदि ये हाल हैं
तो सोचो,
कल क्या होगा …?
स्वार्थ भरे मन से हमने
प्रकृति से खिलवाड़ किया
गगनचुम्बी अट्टालिकाओं और
कंक्रीट के जाल से
वसुधा को अपनी पाट दिया ।
सुविधा के लिए अपनी
काट रहे हैं हम नित्य ही वन
बदले में इसके करके
रश्म अदाई पौधारोपण ।
नहीं बचेगा , इससे कुछ भी
खो देंगे हम चैन – अमन ।
तपन से गर्मी की तो
फिर भी बच लेंगे हम
मगर सूखती धरती को
देना होगा जीवन ।
आने वाले संकटों का
नहीं खींचता मैं कोई खाका
जानता हूँ सिर्फ इतना
जल का है जीवन से नाता ।
कोई न कोई जतन कर
सह लेंगे हम हर अभाव।
सह लेंगे ग्रीष्म का ताप
और ठंड की ठिठुरन भी
मगर कम होती वर्षा का
करना होगा कोई उपाय।
नहीं किया यदि हमने
अंबर के जल का संचय
बूंद-बूंद के लिए तरस कर
खोना पड़ेगा प्राण अपने ।
वक्त अभी भी है
सम्हलने का हम सबके पास
प्रकृति को बचाने
पौधा लगायें और पालें
उसे अपने आस-पास ।
नही करेगी फिर व्याकुल
तपन ग्रीष्म की हमको
और न ही होगा उसका
फिर यह भीषण रूप
पर जरूरी है
इसके लिये बदलें हम
प्रकृति का बिगड़ा स्वरूप ।
तो आइए हम सब
मिलकर यह ठानें
जुट जायेंगे
जंगल और जल बचाने।
#देवेंन्द्र सोनी, इटारसी