तब तक शायद बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ था। बचपन के बैक बाल मन में भारी कौतूहल और जिज्ञासा का केंद्र होते थे। अपने क्षेत्र में बैंक का बोर्ड देख मैं सोच में पड़ जाता था कि आखिर यह है क्या बला। बैंकों की सारी प्रक्रिया मुझे अबूझ और रहस्यमय लगती। समझ बढ़ने पर जब मुझे पता लगा कि इसमें लोग अपने रुपये जमा करते हैं तो मैं सोचता कि आखिर रुपये जमा करने के बाद उनका होता क्या होगा। भवन में रुपये कहां रखे जाते होंगे। पहले जमा रख कर बाद में वही रुपये यदि ग्राहक को लौटा दे तो फिर बैंकों को इससे क्या फायदा होता होगा। इस बीच मेरे मोहल्ले के पास नया बैंक खुला पंजाब नेशनल बैंक। पहले मुझे लगा शायद यह पंजाबियों का बैंक होगा। लेकिन धीरे – धीरे बात मेरी समझ में आती गई। छात्र जीवन में बैंक में खाता खुलवाना और समय – समय पर रुपये जमा करना और निकालना मुझे सुखद लगता था। बैंकों से मिलने वाले हस्तलिखित पास बुक को मैं काफी सहेज कर रखता था। उसमें जमा – निकासी के विवरण को देखना मेरे लिए सुखद अनुभव होता था।तब तक बैंकों ने कॉरपोरेट लुक अख्तियार नहीं किया था। बैंकों की सीढ़ियां तब काफी घुमावदार हुआ करती थी और प्रवेश द्वार पर मोटी जंजीर के साथ पीतल का मोटा ताला लटका रहता था। लेकिन बैंकों का दायरा बढ़ने के साथ ही वहां का बोझिल माहौल, कर्मचारियों की ठसक और अहंकारपूर्ण आचरण से मेरा बैंकों से मोहभंग होने लगा और जल्द ही मैने बैंकों से दूरी बनानी शुरू कर दी। लेकिन कालांतर में बेटी की उच्च शिक्षा के लिए जरूरी लोन को मुझे फिर न चाहते हुए भी एक बैंक के शरणागत होना पड़ा। प्रक्रिया की शुरूआत में ही मुझे यह पहाड़ जैसी चुनौती महसूस होने लगी। संबल था तो बस कलमकार होने के चलते कुछ जान पहचान का। लेकिन जल्द ही मेरे पांव उखड़ने लगे। क्योंकि बैंक कर्मी एक – एक कागजात की इस प्रकार की जांच कर रहे थे मानो सीबीआइ के समक्ष खड़ा कोई अपराधी हूं। हर कागजात को शक की निगाह से देखना और बाल की खाल निकालने की बैककर्मियों की आदत से मैं जल्द ही परेशान हो गया । बीच में कई बार मैने लोन मिलने की उम्मीद ही छोड़ दी। बैंक अधिकारियों के नाज – नखरे से परेशान होकर अंतिम कोशिश के तौर पर मैने संबंधित बैंक के क्षेत्रीय प्रबंधक को फोन लगाया और लोन मिलने में हो रही परेशानी का जिक्र किया। फोन पर तो उन्होंने ज्यादा गर्मजोशी नहीं दिखाई, लेकिन शायद उनसे बातचीत का ही असर था कि अड़ियल रवैये वाले अधिकारियों के तेवर अचानक ढीले पड़े और जल्द ही मेरा ऋण आवेदन मंजूर हो गया। शुरूआती कुछ किश्तें मिलने में भी ज्यादा परेशानी नहीं हुई। लेकिन इस बीच अधिकारियों के बदलते ही फिर परेशानी शुरू हो गई। आय – व्यय का संपूर्ण विवरण संलग्न रहने के बावजूद नए प्रबंधक ने ब्याज और किश्तों का भुगतान तत्काल शुरू करने के लिए मुझ पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। मैने समझाने की बहुत कोशिश की और शैक्षणिक ऋण के नियमों का भी हवाला दिया, लेकिन प्रबंधक सूदखोर महाजन की तरह मेरे सिर पर सवार होने की कोशिश करने लगा…। क्या पता आज के संदर्भ में यह संभव हो पाता या नहीं लेकिन तत्कालीन अहिंदी भाषी वित्त मंत्री को सादे कागज पर लिखे शिकायती पत्र का ऐसा असर हुआ कि बैंक अधिकारी म्यूं – म्यूं करने लगे और उन्होंने मुझसे कागजों पर यह भी लिखवा लिया कि मुझे बैंक से कोई शिकायत नहीं है। हालांकि वित्त मंत्री की हनक का असर ज्यादा दिन कायम नहीं रह सका। प्रबंधक व अधिकारियों के तबादले के बाद कार्यभार संभालने वाले नए लोगों की टीम ने सामान्य ऋण पर अत्यधिक सख्ती बरतनी शुरू की जिसे देखकर मुझे उन किसानों स्मरण हो आया जिन्होंने बैंकों की जोर – जबरदस्ती के चलते आत्महत्या कर ली। समझना मुश्किल नहीं कि उन किसानों पर आखिर क्या बीतती होगी जो खेती करने के लिए बैंकों से लोन लेने को मजबूर रहते हैं , लेकिन लागत न निकलने पर वसूली का दबाव सहन न कर पाने के चलते जान देने का विकल्प ही उनके समक्ष शेष रहता है। मेरे मामले में भी बैंक से लोन शिक्षा के लिए लिया गया था। जिसे अदा करने में समय लगना स्वाभाविक और पहले से तय था। लेकिन बैंक अधिकारी कुछ सुनने को तैयार नहीं होते। लिहाजा हजारों करोड़ के बैंक घोटाले के मद्देनजर अपने अनुभव के आधार पर दावे से कह सकता हूं कि राशि के बड़े हिस्से की बंदरबांट ऊपर से नीचे तक हुई होगी। वर्ना इतनी मोटी रकम बैंक वाले किसी को यूं ही नहीं दे सकते…
#तारकेश कुमार ओझा
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं | तारकेश कुमार ओझा का निवास भगवानपुर(खड़गपुर,जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है |