कलयुगी मानव की लालसाएंँ सुरसा की तरह बढ़ रही हैं। निस्वार्थ प्रेम और विनम्र भक्ति की
मूर्ति खंड-खंड हो रही है। लालसा की देवी यत्र- तत्र- सर्वत्र प्रतिष्ठित हो रही हैं।
प्रपंच /पाखंड की नौका पर सवार सब स्वार्थ की नैया खे रहे हैं। नैतिकता, तप, प्रेम, परहित ,त्याग, संवेदना जैसे सुंदर शब्द अर्थ खो रहे हैं। इनकी जिंदगी के शब्दकोश से गायब है। इस असार संसार सागर में ‘असत ही सार ‘बचा है।
बेसिर पैर का सब कुछ दौड़ रहा है और सच लड़खड़ा रहा है। अच्छाई का आधार जिंदगी से गायब है।
पढ़े कैसे सद्ग्रंथ! शास्त्रोक्त व्यवहार करें कैसे!
सद्गुण संपन्न बने कैसे! संस्कृत समझ में आती नहीं! हिंदी भाती नहीं। अंग्रेजी से नाता नहीं! श्रवण करने का समय नहीं! दिखावट ,बनावट, स्वार्थ के ताने बानों ने इस कदर तन मन को उलझाया है कि इंसान की यह लीला तो लीलाधर भी न समझ पाया है! इंसानों ने ऐसे कौन से अर्थो को अपनी जिंदगी में सजाया है जिससे सार्थकता गायब , निरर्थकता ,अशांँति का घोर अंधकार छाया है।
“अरे प्रिय भक्त नारद! यह क्या मन में बड़बड़ किये जा रहे हैं आप!”
पृथ्वी पर घूम कर आए तो क्या देखा! कितने लोग अब अच्छे बचे हैं ! खुलकर जरा वहांँ का सारा आँखों देखा हाल बताओ-
कि इन 5000 वर्षों में यह किस-किस से जुड़े हैं या कहांँ-कहांँ से छूट गए हैं किस-किस को तोड़ दिया है!! किन-किन बातों से मुंँह मोड़ लिया है!
अरे श्रीनाथ! पृथ्वी लोक पर लोग कहांँ अच्छे बचे हैं! वहांँ तो सब महाठग बने हुए हैं । कोई सुंदर वस्त्रों से ठग रहा है। कोई सुंदर चेहरे से ठग रहा है ।कोई खूबसूरत, लुभावनी बातें करके ठग रहा है। ऑफलाइन ठग रहा है ।ऑनलाइन ठग रहा है। ठगी के खेल में किसको, कितनी महारत हासिल है सब इसी में ही लगे हुए, उलझे हुए हैं । इतनी गुदगुदी बातें करते हैं कि लगता है हवाओं से सतयुग टपक रहा है लेकिन इस कलयुगी मनुष्य का मन जंजालों में फंस के जल रहा है और दूसरों को जला रहा है। प्रभो! यह मरा जा रहे हैं मुफ्त का खाने के लिए । मरा जा रहा हैं दूसरों से पैसे हड़पने के लिए। पैसों के लिए तरह-तरह के अपराध करने में नहीं हिचक रहा! कलयुग का यह स्वार्थी कौवा सिर्फ पैसों के लिए ही काँव-काँव कर रहा है और सब तरह के दुर्गुणों में लिप्त हो रहा है।
मरा जा रहा हैं झूठ बोलने , धोखा देने को। ईर्ष्या के मारे ,प्रतिद्वंद्विता के मारे ,होड़ के मारे जला जा रहा हैं और उनकी जलन पानी से नहीं बुझती प्रभु ! इन्हें जलन बुझाने के लिए बड़ी- बड़ी मादक पेय की बोटल्स,
महंगी -महंगी व्हिस्की पीना पड़ती है पानी की जगह!
और प्रभु अब इनको ठगने के लिए ग्राहकों को बाजार बुलाने की जरूरत नहीं है।
अब यह नया चलन शुरू हुआ है अब यह घर में बैठे ही व्यक्ति को ऑनलाइन हेराफेरी करके ठगते हैं ।सोशल मीडिया नाम है इसका। इंस्टाग्राम, फेसबुक जितने भी माध्यम है उन सब पर यह ठग बैठे हुए हैं और ठगी के ऐसे जाल वैसे प्रपंच बिछाते हैं कि बेचारा भोला भला कोई बंदा हो तो बिना फंँसे रह नहीं सकता!!
सबको मुफ्त खोरी की आदत है बिना किसी मेहनत के पैसा मिले और यह ऐश करें।
क्या कहें प्रभु! कलि के काले गुण कूट-कूट कर इन सब में भरे हुए हैं । फिर भी एक उंगली हमेशा दूसरों की तरफ है जबकि चार उंँगली अपनी तरफ हैं। चार उंगलियों को देखते नही!
प्रभु ! आदमी का रूप बदल गया है पहले आदमी में इतनी सारी बुराइयांँ होती थीं तो वह राक्षस का रूप धारण करता था अब राक्षस रूप धारण करने की आवश्यकता नहीं होती । उसके अंदर का जो ” मैं ” नुमा राक्षस है वही जोर-जोर से चिल्ला रहा है और मैं उसके इंसानी अस्तित्व को तहस-नहस कर दे रहा है। आत्ममुग्ध ,स्वनाम धन्य अपने पर्चे छाप- छाप कर अपनी ही तारीफों के कशीदे काढ़ रहे हैं।
कुछ अच्छे लोग परेशान हो रहे हैं प्रभु ! दुष्ट, उपद्रवी, आरोग्य, अपराधी ,बेईमान सिरमौर हो रहे हैं। सब जगह छा रहे हैं।अच्छे लोगों को धक्का मारा जा रहा है। बेईमानों का बोलबाला है।
ओहहह! नारद ! मुझे तो चिरंजीवी विभीषण की याद आ गई । विभीषण ने जब प्रिय हनुमंत से कहा – “सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥”
जिन्होंने इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना स्धवर्म बचा कर रखा ।
हांँ प्रभु! इस फॉलन सोल को सब कुछ प्राप्त हो जाने के बाद भी भयंकर अशांँति है! पता नहीं कौन सी आग और कौन सी क्रांँति है ! अभी और कौन से भौतिकता के महल खड़े करके उनका शहंशाह इसे बनना है।
यह तो सिकंदर की कब्र पर जाकर लिख सकता है कि ” तू सब कुछ लुटा कर यहांँ खाली हाथ लेटा है। मैं सब कुछ सब समेट कर लेटूँगा!”
भौतिक रूप से बहुत पुष्ट हो गया है आदम। आत्मिक रूप से निस्तेज और खाली!
यही कारण है कि इसकी हर क्रिया में दुर्बुद्धि व अशांँति !
पहले त्यागी ,ऋषि महर्षि अपनी अस्थियों को जगत कल्याण, परोपकार के लिए दान कर देते थे अब आदमी अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की खाल खींचने में और उसे बर्बाद और तहस-नहस करने में करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा!
ओहहह! यह तो मेरे प्यारे इंसान में जींस बदला गया लगता है!
और सुना है प्रेम की धारा किसी ख़ास दिन ही बहती है! –
“हांँ प्रभु! अब तो हर चीज के लिए दिन निश्चित किया है बाजार ने। ऐसे ही एक दिन वैलेंटाइन डे ,प्रेम दिवस मनाते हैं पृथ्वी लोक वासी।
इस दिन बहुत सारी डिमांड के साथ-साथ ऐसी प्रेम धारा बहती है जहांँ प्रेम तो होता नहीं ,वस्तुओं का ढ़ेर होता है।
” प्रिय भक्त नारद! जब हृदय में प्रेम परिशुद्ध नहीं , फिर वहांँ मैं भी नहीं ! तो प्रेम कैसे होगा!
आप ठीक समझे प्रभु ! वहांँ तो बाजार होगा, व्यापार होगा। नारायण! नारायण!
ओहह! तो क्या करें !छोड़ें इन्हें ऐसे ही..!! जब इनका शब्दकोश सुधर जाएगा, जीवन में कुछ प्रेम ,भक्ति, ज्ञान ,तप उतर जाएगा तो फिर बात करेंगे!
हांँ प्रभु ! इनके जीवन में यह सब उतरेगा शायद कभी , लेकिन अभी तो आप उतरे हैं ऊंँचे -ऊंँचे मंदिरों में यहांँ।
सरकारी संस्थाओं के पास पैसे नहीं है कर्मचारियों को देने के लिए, लेकिन ऊंँचे-ऊंँचे मंदिरों में आप विराजमान है प्रभु यह बहुत खुशी की बात है!!
“अरे तब तो धर्म की ध्वजा लहरा रही होगी!”
प्रभु काहे की धर्म की ध्वज लहराएंँगे! ये ओने- पौने तो अपनी ही लकीर पीटने में लगे हुए हैं ।अपना ही झंडा फहरा रहे हैं । आत्ममुग्धता में मरे जा रहे है।
किसी दिन बने ठने एक भक्त ने कहा था “भूखे भजन न हुए गोपाला ,यह लो अपनी कंठी माला”
इनको तो सारे दिन खाने-पीने ,कमाने ,सोने से फुर्सत नहीं । बात तो प्रभु वही है सही – ” मुंँह में राम-राम और बगल में छुरी”
“अच्छा ! ये है इनका चाल- चलन ! राग- रंग!-
हाँ प्रभु! यह तो आधुनिकता के रंग में ऐसे रंगे हैं कि भोग- विलास के उच्च शिखर पर खड़े हैं! क्या नहीं है इनके पास! आज तकनीक से बहुत सारे सुख- सुविधाओं के महल खड़े किए हैं।
अरे! इतना जीवन में माया मोह का इतना राज है तो फिर प्रभु से अनुराग!!
“बस वह नहीं है पाखंड है, आडंबर है, नाटक है और प्रभु आपको मनाने के तरह-तरह के हथकंडे हैं , मनौतिया हैं ,मान्यताएंँ हैं ,पाठ हैं पथ -पंथ हैं ।
नहीं है तो श्रद्धा! नहीं है तो वह भक्ति! नहीं है तो वह समर्पण !नहीं है तो वह दिव्यातिदिव्य प्रेम पर न्योछावर हो जाने का, प्रभु आश्रित हो जाने का भावार्पण।
“अरे! प्रिय नारद मैं तो सतयुग आरंभ करने का सोच रहा था!”-
प्रभो! मुझे पता है आप सतयुग का शुभारंभ करने की सोच रहे हैं।
सतयुग में सद्भावना , आत्मीयता, दिव्यता,भक्ति की जो पवित्र,सरस, मधुर सुरसरि प्रवाहित होती है। सच की वेणु बजती है। आत्मा प्रभु प्रेम में परमानंदित रहती है। नारायण! नारायण! बस सर्वत्र आनंद ही आनंद ।
प्रिय वत्स! तुम सही कह रहे हो ! जब उनके कान , वाणी, नेत्र, हृदय अनुकूल हो जाएंँगे । प्रेम और भक्ति की वृष्टि से दुर्गुण धुल जाएंँगे । मन निर्मल हो जाएंँगे। जब स्वयं से बढ़कर ईश पर विश्वास हो जाएगा तो सतयुग आ जाएगा।
तुम्हें तो पता ही है-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
अति सुंदर देवकृपा ! धन्यवाद प्रभु जैसी आपकी इच्छा।
हांँ ! तब तक इन्हें मैं मैं – तू तू करने दो।
ठीक है प्रभु! मैं अपनी पूर्णभक्ति भावना से शारदे मांँ से प्रार्थना करने निकल पड़ता हूंँ कि पृथ्वी लोक के “मैं’ परिचालित जीवों का एक्सीलेटर थामें और सद्बुद्धि की राह पर चलाएंँ।
इतिश्री ।
#अनुपमा अनुश्री, भोपाल