Read Time3 Minute, 30 Second
कितनी कलियों को जगाया मैंने,
कितनी आत्माएँ परश कीं चुपके;
प्रकाश कितने प्राण छितराए,
वायु ने कितने प्राण मिलवाए।
कितने नैपथ्य निहारे मैंने,
गुनगुनाए हिये लखे कितने;
निखारी बादलों छटा कितनी,
घुमाए फिराए यान कितने।
रहा जीवन प्रत्येक परतों पर,
छिपा चिपका समाया अवनी उर;
नियंत्रित नियंता के हाथों में,
सुयंत्रित तंत्र के विधानों में।
छुआ ज्यों यान ने चरण धरिणी,
मिट गया भेद गगन दृष्टि का;
समष्टि का सुदृष्टि वृष्टि का,
कला के आँकलन की भृकुटि का।
स्वरूपित होने या न होने का,
प्रकृति को छूने या न छूने का;
प्रभु के मर्म को सकाशे ‘मधु’,
जागरण पा लिए विश्व सपने।
उरों के आसमान छूने में,
सुरों की सरिता में नहाने में;
वक़्त कितना है प्राय लग जाता,
कहाँ अहसास परम पद पाता।
पता उस इल्म का कहाँ होता,
फ़िल्म की भाँति विश्व कब लखता;
हक़ीक़त लगता जो अनित्य रहा,
अच्युत से चित कहाँ है मिल पाता।
चेतना फुरती चमन के पुष्पन,
भाव भौंरे को कभी आ जाता;
स्वाद जब परागों का पा जाता,
नित्य प्रति वहीं रहे मँडराता।
मनों को तनों से हटाने में,
आत्म को अहं से फुराने में;
शतायु जाती बीत बस यों ही,
जन्म कितने कभी हैं लग जाते।
गुरु आते हैं और चल देते,
समझ हर किसी को कहाँ आते;
प्रयोजन व्यस्त रहे वे लगते,
‘मधु’ के प्रभु के इशारे रहते।
(लंदन से टोरोंटो की यात्रा में सृजन)
#गोपाल बघेल ‘मधु’
परिचय : ५००० से अधिक मौलिक रचनाएँ रच चुके गोपाल बघेल ‘मधु’ सिर्फ हिन्दी ही नहीं,ब्रज,बंगला,उर्दू और अंग्रेजी भाषा में भी लिखते हैं। आप अखिल विश्व हिन्दी समिति के अध्यक्ष होने के साथ ही हिन्दी साहित्य सभा से भी जुड़े हुए हैं। आप टोरोंटो (ओंटारियो,कनाडा)में बसे हुए हैं। जुलाई १९४७ में मथुरा(उ.प्र.)में जन्म लेने वाले श्री बघेल एनआईटी (दुर्गापुर,प.बंगाल) से १९७० में यान्त्रिक अभियान्त्रिकी व एआईएमए के साथ ही दिल्ली से १९७८ में प्रबन्ध शास्त्र आदि कर चुके हैं। भारतीय काग़ज़ उद्योग में २७ वर्ष तक अभियंत्रण,प्रबंधन,महाप्रबंधन व व्यापार करने के बाद टोरोंटो में १९९७ से रहते हुए आयात-निर्यात में सक्रिय हैं। लेखनी अधिकतर आध्यात्मिक प्रबन्ध आदि पर चलती है। प्रमुख रचनाओं में-आनन्द अनुभूति, मधुगीति,आनन्द गंगा व आनन्द सुधा आदि विशहै। नारायणी साहित्य अकादमी(नई दिल्ली)और चेतना साहित्य सभा (लखनऊ)के अतिरिक्त अनेक संस्थाओं से सम्मानित हो चुके हैं।
Post Views:
472