मुंबई l
राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री महोदय, प्रधानमंत्री और कैबिनेट मंत्रीगणों सहित सांसदों,नेता प्रतिपक्ष आदि को भी एक खुला पात्र लिखा गया है। इसका विषय-शिक्षा को अंग्रेजी माध्यम के बोझ से मुक्त करने एवं परिवेश की बोली-भाषाओं में केजी से पीजी-पीएच़डी तक समान-सार्थक औपचारिक शिक्षा व्यवस्था,कानून-न्याय व्यवस्था और रोजगार व्यवस्था को लागू कराने की मांग है,जिसे लेकर संविधान के अनुच्छेद ३४८,३४३(१)और(२),३५१,१४७ में व्यापक संशोधन की मांग की गई है।इसमें कहा गया है कि,दुनियाभर के श्रेष्ठ शिक्षाविदों के साथ शिक्षा पर शोध करने वाली एनसीईआरटी के अनुसार भी बच्चों के सीखने का सर्वोत्तम माध्यम बच्चे के परिवेश की भाषा ही है। संविधान का अनुच्छेद ३५० क भी प्राथमिक स्तर पर `मातृभाषा` में शिक्षा की व्यवस्था की बात करता है। इसके बावजूद गली-गली में इंग्लिश मीडियम स्कूल खुल रहे हैं। हमारे माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी माता-पिता को स्कूली शिक्षा माध्यम को चुनने के फैसले को देने वाले निर्णय में माना कि बच्चे के सीखने का सर्वोत्म माध्यम मातृभाषा ही है,पर लोग माननीय सर्वोच्च न्यायालय की इस नेक नसीहत को नजरअंदाज करते हुए अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में ठूंस रहे हैं। अभिभावक चाहे महल का हो या मलिन का,हर एक की पहली पसंद इंग्लिश मीडियम स्कूल हो गई है। परिणाम आज गली-गली में इंग्लिश मीडियम स्कूल खुल रहे हैं। सवाल यह पैदा होता है कि,इस इंग्लिश मीडियम शिक्षा व्यवस्था में बच्चे कुछ सीख भी पाते हैं ? साथियों!शिक्षा का अर्थ मनुष्य की चेतना को जागृत कर ज्ञान को व्यवहारिक बनाना है,वहीं हमारे बच्चे बिना व्यवहारिक अर्थ समझे रटते चले जाते हैं। यह अंग्रेजी माध्यम व्यवस्था का ही परिणाम है कि,हमारे विद्यार्थियों की पढ़ने की रूचि पाठ्यपुस्तक तक ही सिमट कर रह गई है। हमारे बच्चों ने ‘रटने’ को ही ‘ज्ञान’ समझ लिया है और ‘अंग्रेजी बोलने की योग्यता को (इंग्लिश स्पीकिंग)’ को ही ‘शिक्षा’। इंग्लिश मीडियम शिक्षा की बदौलत शिक्षित नहीं कुशिक्षित हो रहा है हमारा समाज। हमारे बच्चे स्कूल में रटे ज्ञान का स्कूल के बाहर के बाहर की दुनिया के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते। ये अंग्रेजी का ही परिणाम है कि हमारे बच्चे समाज से तालमेल नहीं बैठा पाते फलस्वरूप रेव पार्टियों,उद्दंडता एवं अशिष्ट प्रवृत्ति का शिकार बनते जा रहे हैं। हमारे बच्चे मानक भाषा ही सीखें,इसके लिए आज हमारे घरों में हमने अपनी बोली में बात-चीत करना तक बंद कर दिया है। भोजपुरी,मैथली,बांगड़ी बोलने वाले बैकवर्ड कहलाएंगे और दो लाईन अंग्रेजी में गिट-पिटाए नहीं कि,मॉर्डन हो जाएंगे। अंग्रेजीदां बन हर कोई गिट-पिटाना चाहता है। यह अंग्रेजी ही इस देश के लोगों को शिक्षा,न्याय और रोजगार से दूर रखने का काम करती है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में माना कि,देश की आम जनता कोर्ट की इस नास़ीफ भाषा-अंग्रेजी को नहीं समझ पाती। कोर्ट में आज अनेक मामले अंग्रेजी की वजह से लंबित पड़े हैं,और हजारों लोग सिर्फ वकीलों का मुंह ताकने को मजबूर हैं। अनुच्छेद ३४८ के अनुरूप उच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेजी होने की वजह से तमाम संवैधानिक एवं उच्च पदों की भाषा भी अंग्रेजी हो जाती है। ये रोजगार के अवसरों में अंग्रेजी की अनिवार्यता ही है,जिसने हर एक को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए मजबूर किया है। हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने अंग्रेजी को अल्प अवधि के लिए ही लागू किया था। उन्हें अनुमान था कि,संविधान लागू होने के १५ वर्ष के अन्दर हिन्दी देश के सभी राज्यों में स्वीकार कर ली जाएगी और फिर देश में काम-काज की भाषा अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी हो जाएगी,पर तमिलनाडु में हुए विरोध के चलते हिन्दी कामकाज की अधिकारिक भाषा नहीं बन पाई। तमिलनाडु आज भी तमिल को उच्च न्यायालय की अधिकारिक भाषा बनवाने के लिए तरस रहा है। अंग्रेजी व्यवस्था की वजह से भारत में कहने भर को लोकतंत्र रह गया है,पर ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ की वजह से शासन-प्रशासन के स्तर पर होने वाली कारवाई जनता की समझ के बाहर है। शोध आधारित विशलेषण के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि,भारतीय संविधान की धारा ३४८ की वजह से ही गली-गली में अंग्रेजी माध्यम के अधकचरे स्कूल खुल रहे हैं। अंग्रेजी जैसी गैर परिवेश की भाषा में तो बस हम रटी-रटाई बात ही उगल सकते हैं,मौलिक चिंतन नहीं कर सकते हैं। ‘इंग्लिश मीडियम सिस्टम’ ने सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को तोता तैयार करने की फैक्ट्री में तब्दील कर दिया है, जिससे निकला तथाकथित शिक्षित वर्ग रटी-रटाई बातों को ही उगलता है। जिस तेजी से अंग्रेजियत का काला साया हमारे समाज पर पसर रहा है,उसका आने वाले १०-१५ सालों में प्रभाव यह निकलने वाला है कि ‘का’ और `की` जैसे शब्दों के अलावा कोई भी शब्द भारतीय सांस्कृतिक बोलियों के नहीं रह जाएंगे। भारतीय भाषाओं के शब्दकोश अजायबघर में रखे जाने वाली विलुप्त धरोहर भर बनकर रह जाएगी।
अंग्रेजी माध्यम व्यवस्था के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों पर पड़ने वाले औपनिवेशिक प्रभाव’ से मुक्त होने हेतु संसद निम्न संवैधानिक संशोधन करे-
१.’व्यवस्था का बोझ बच्चों के सिर-‘सरकारी-मानक-हिन्दी’ के स्थान पर समस्त भारतीय जन-भाषाएं(भाषा एवं बोलियाँ) ३४३(१) धारा ‘सरकारी-मानक-हिन्दी’ को राजभाषा घोषित करती है,जिसे भ्रमवश लोग राष्ट्रभाषा भी समझ लेते हैं। इस अनुच्छेद का महान योगदान यह है कि,इसने हमारे देश को हिन्दी-गैर हिन्दी नामक दो कृत्रिम राष्ट्रीयताओं में विभक्त कर दिया है। या यूं कहें कि भाषा और क्षेत्र के आधार पर अनेक राष्ट्रीयओं को पैदा कर दिया है। ‘हिन्दी राष्ट्रभाषा है कि नहीं’,हिन्दुतानी भाषा-भाषी की आपसी इस लड़ाई में संविधान की धारा ३४८,३४३(२)के माध्यम से अंग्रेजी का वर्चस्व कायम रहता है। एक रोज हिन्दी को पूरा देश स्वीकार करेगा। सच्चाई यह है कि, हिन्दी को राजभाषा बनाने वाली संविधान की धारा ३४३(१) की वजह से ही गैर हिन्दी परदेशों में हिन्दी के प्रति नफरत पनपी है,वर्ना समस्त भारतीय भाषाओं के मिश्रण से ‘हिन्दुस्तानी-फेविकोल’(अमीर खुसरो से लेकर गांधी तक की मिली जुली ‘हिन्दुस्तानी’) तैयार होने की प्रबल संभावना है।
२.हिन्दी+ऊर्दू अर्थात हिन्दवी/हिन्दुस्तानी का काम भारत की समस्त भाषाओं में समन्वय का हो ,पर किसी भी भाषा को थोपे न। परिवेश के अनुरूप इस मिली जुली हिन्दुस्तानी के कई और कई स्वरूप उत्पन्न हुए हैं। भाषा नदी के समान होती है। नदी में पानी के बहाव की दर में परिवर्तन आता रहता है,वैसे ही भाषा में भी परिवर्तन आता रहता है। संगम पर दो नदियों की धारा अलग-अलग जान पड़ती है,पर मिलकर एक विशाल नदी का रूप ले लेती है। सरकार भाषाई मामले में हस्तक्षेप न करे तो भारत की भाषाओं को मिलकर एक होने की प्रबल संभावना है। अतः अनुच्छेद ३५१ में संशोधन हो।
३.ऑक्सफ़ोर्ड विश्विद्यालय हर वर्ष दुनिया की अनेको भाषाओं से अंग्रेजी में रच-बस चुके शब्दों को अंग्रेजी के शब्दकोश में शामिल करती है। हर साल अनेक भारतीय भाषाओं के शब्द अंग्रेजी शब्दकोश का हिस्सा बन जाते है। हमें भी इस तर्ज पर भारतीय भाषाओं के शब्दकोश को समृद्ध बनाने के लिए विश्व की अनेक भाषाओं से आकर रच-बस चुके शब्दों को भारतीय भाषा शब्दकोश में शामिल करना चाहिए। राजभाषा विभाग क़ो जबरदस्ती के ‘शब्दनिर्माणीकरण’ से बचना चाहिए,नहीं तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। जैसा-‘धर्म’ शब्द का अनुवाद ‘रिलीजन’ होने के बाद ‘धर्म’ शब्द का मर्म ही ख़त्म हो गया है।
४.भारत में कानून मूल रूप से भारतीय भाषाओं में बनाए जाएँ। अंग्रेजी में मूलतः बनाकर भारतीय भाषाओं में अनुवाद की परम्परा बंद की जाए।
५.केजी से पीएचडी तक परिवेश के भाषा माध्यमों में समान समान स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा एवं रोजगार का अधिकार नागरिकों को दिया जाए। वर्तमान शिक्षा मंडलों को भंग कर, संकुल के सिद्धान्त पर सांस्कृतिक शिक्षा बोर्ड-सह-विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाए।
६.पीएससी,एसससी,
डीएसएसएसबी समेत सभी रोजगार के लिए नौकरियों की परीक्षाएं कराने वाली संस्थाएं परीक्षाएं अनिवार्यतः भारतीय जनभाषाओं में ही करें।अंग्रेजी की अनिवार्यता पूर्णतः समाप्त की जाए।
७.जब तक भाषाई समता लागू नहीं होती,तब तक गैर-अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों के समतुल्य लाने के लिए सभी प्रकार की विश्वविद्यालयीन एवं प्रतियोगिता परीक्षाओं में ५ प्रतिशत अतिरिक्त अंक दिए जाएं। विश्वविद्यालय एवं सरकारी सेवाओं के ७५ फीसदी प्रवेश स्थान सरकारी शालाओं, गैर-अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने एवं परीक्षा देने वाले भारतीय भाषा के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्यतः आरक्षित किए जाएं।
८.अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता समाप्त हो। अंग्रेजी भाषा नहीं,भाषा एवं साहित्य के स्रोत्र के रूप में अंग्रेजी ज्ञान की एक और खिड़की है,पर बस यह खिड़की ही अनिवार्य गुफा नहीं रहनी चाहिए।
(साभार-वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)
#अश्विनी कुमार ‘सुकरात’